सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि || 41||
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् || 42||
सखा–मित्र; इति–इस प्रकार; मत्वा-सोचकर; प्रसभम्-हठपूर्वक; यत्-जो भी; उक्तम्-कहा गया; हे कृष्ण-कृष्ण; हे यादव-हे यादव, श्रीकृष्ण जिनका जन्म यदु वंश में हुआ; हे सखा-हे मित्र; इति–इस प्रकार; अजानता-अज्ञानता से; महिमानम्-शक्तिशाली; तब-आपकी; इदम् यह; मया-मेरे द्वारा; प्रमादात्-असावधानी से; प्रणयेन–प्रेमवश; वापि या तो; यत्-जो; च-भी; अवहास-अर्थम्-उपहास में; असत्-कृतः-अनादर किया गया; असि-हो; विहार-विश्राम करते; शय्या-लेटे रहने पर; आसन-बैठे रहने पर; भोजनेषु-या भोजन करते समयः एकः-अकेले; अथवा-या; अपि भी; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; तत्-समक्षम्-मित्रों के बीच; तत्-उन सभी; क्षामये-क्षमा की याचना करता हूँ; त्वाम्-आपसे; अहम्–मैं; अप्रमेयम्-अचिन्त्य।
BG 11.41-42: आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने धृष्टतापूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया क्योंकि मुझे आपकी महिमा का ज्ञान नहीं था। उपेक्षित भाव से या प्रेमवश होकर यदि उपहासवश मैंने कभी विश्राम करते हुए, बैठते हुए, खाते हुए, अकेले में या अन्य लोगों के समक्ष आपका कभी अनादर किया हो तो उन सब अपराधों के लिए हे अचिन्त्य! मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ।
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भगवान की प्रभुता को अद्वितीय घोषित करते हुए वेदों में वर्णन किया गया है-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यत् किञ्चान्तरं बहिः
(श्रीमद्भागवतम्-6.4.47)
"मैं परम प्रभु सभी प्राणियों में स्थित हूँ। मेरे से परे और मेरे से बढ़कर कोई नहीं है"
विमोङ्कार परात्परः
(वाल्मीकि रामायण)
"अनादि शब्द 'ओम्' आपकी अभिव्यक्ति है। आप में महानतम हैं।"
वासुदेवः प्र: प्रभुः
(नारद पंचरात्र)
" श्रीकृष्ण परम भगवान हैं।"
न देवः केशवात् परः
(नारद पुराण)
"भगवान कृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है।"
विद्यात् तं पुरुषम् परम्
(मनुस्मृति-12.122)
"भगवान सभी व्यक्तित्त्वों में सर्वश्रेष्ठ और परम हैं" लेकिन जैसा कि इस अध्याय के श्लोक-24 में उल्लेख किया गया है कि जब प्रेम-प्रगाढ़ हो जाता है तो प्रेमी प्रियतम की औपचारिक पदवी को भूल जाता है। इस प्रकार से अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ व्यतीत किए गए अंतरंग मित्रता के अविस्मरणीय क्षणों के आनन्द में निमग्न होने के कारण उनकी सर्वोच्च स्थिति से अनभिज्ञ था। श्रीकृष्ण का विश्वरूप देखकर अर्जुन अब यह सोंचकर दुःखी हो जाता है कि भगवान केवल उसके मित्र और अंतरंग सखा नहीं हैं बल्कि परम पुरुषोत्तम भगवान भी हैं जिनका देवता, गंधर्व, सिद्धगण आदि श्रद्धायुक्त होकर आदर सत्कार करते हैं। इसलिए वह यह सोंचकर शोक व्यक्त करता है कि उसने उन्हें केवल अपना मित्र समझकर उनका अनादर करने की धृष्टता की। प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्तियों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका प्रथम नाम नहीं लिया जाता। इसलिए अर्जुन व्याकुल हो जाता है कि उसने घनिष्ठता के कारण अपनी पद प्रतिष्ठा को श्रीकृष्ण के समतुल्य समझा और धृष्टतापूर्वक उन्हें स्नेहपूर्वक संबोधनों 'मेरे मित्र', 'मेरे सखा' और 'हे कृष्ण' जैसे संबोधनों से पुकारा। अतः वह अपने उन सब कृत्यों के लिए क्षमा याचना करता है जो उसने भगवान श्रीकृष्ण के व्यक्तित्त्व की दिव्यता की अज्ञानता के कारण किए।