यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: || 15||
यस्मात्-जिसके द्वारा; न कभी नहीं; उद्विजते-उत्तेजित; लोकः-लोग; लोकात्-लोगों से; न–कभी नहीं; उद्विजते-विक्षुब्ध होना; च–भी; यः-जो; हर्ष-प्रसन्न; अमर्ष-अप्रसन्नता; भय-भय; उद्वेगैः-चिन्ता से; मुक्त:-मुक्त; यः-जो; सः-वह; च-और; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।
BG 12.15: वे जो किसी को उद्विग्न करने का कारण नहीं होते और न ही किसी के द्वारा व्यथित होते हैं। जो सुख-दुःख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।
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आत्मा प्राकृतिक रूप से शुद्ध है। समस्या यह है कि वर्तमान में यह अशुद्ध मन द्वारा आच्छादित है। एक बार जब यह अशुद्धता दूर हो जाती है, तत्पश्चात् आत्मा के श्रेष्ठ गुण स्वाभाविक रूप से प्रकाशित हो जाते हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है:
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चन सर्वैगुणैस्तत्र समासते सुराः।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः।।
(श्रीमद्भागवतम्-5.18.12)
"वे भक्त जो स्वयं को परमात्मा की भक्ति में तल्लीन कर लेते हैं उनके हृदय में समस्त स्वर्ग के देवताओं के अद्भुत गुण प्रकट होते हैं। किन्तु जो भगवान की भक्ति में लीन नहीं होते और केवल मन को तुच्छ बाहरी विषयों की ओर दौड़ाते हैं उनमें महापुरुषों के गुण नहीं आ सकते।" यहाँ श्रीकृष्ण कुछ और गुणों का वर्णन करते हैं जो उनके भक्तों में प्रकट होते हैं।
किसी की निराशा का कारण न होनाः भक्ति हृदय को पिघला कर उसे कोमल बना देती है। इसलिए भक्त स्वाभाविक रूप से सभी के साथ सद्व्यवहार करते हैं। इसके साथ-साथ वे सबके भीतर भगवान को विद्यमान देखते हैं और सबको भगवान के अंश के रूप में देखते हैं इसलिए वह कभी किसी को कष्ट पहुँचाने की नहीं सोंचते।।
किसी के द्वारा व्यथित न होनाः यद्यपि भक्त किसी को कष्ट नहीं देते किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे उन्हें कष्ट पहुँचाने का प्रयास नहीं करते। अखिल विश्व के संतों के इतिहास से यह विदित होता है कि उनके जीवनकाल के दौरान जो लोग उनके कल्याणकारी कार्यों और सिद्धान्तों से भयभीत रहते थे वे प्रायः उन्हें उत्पीड़ित करते थे। लेकिन संतों ने सदैव अपने को कष्ट देने वालों के प्रति दयालुता का भाव ही दर्शाया। इसी प्रकार हम देखते है कि नाज़रेथ के यीशू ने सूली पर चढ़ते हुए यह प्रार्थना की थी-“हे परमात्मा इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।" (लूक 23.24)।
सुख और दुःख में समभावः भक्त शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न होते हैं और इसलिए वे जानते हैं कि सुख और दुःख दोनों जीवन के उतार-चढ़ाव हैं। जैसे ग्रीष्म और शरद् ऋतु का आना-जाना। इसलिए वे सुख-दुख दोनों को भगवान की कृपा के रूप में देखते हैं और सभी परिस्थितियों का उपयोग अपनी भक्ति बढ़ाने के लिए करते हैं।
भय और चिंता से मुक्तः भय और चिन्ता का कारण आसक्ति है। इससे हमारे भीतर भौतिक पदार्थों के भोग की इच्छा उत्पन्न होती है और इनके छिन जाने की चिन्ता हमें भयभीत करती है। जिस क्षण हमारे भीतर भौतिक पदार्थों के प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है, उसी क्षण हम भय मुक्त हो जाते हैं। भक्त केवल आसक्ति रहित ही नहीं होते बल्कि वे भगवान की इच्छा के साथ सामंजस्य रखते हैं। इसलिए उन्हें भय और चिन्ता का अनुभव नहीं होता।