पिछले अध्याय में आत्मा और शरीर के बीच के अन्तर को विस्तार से समझाया गया था। इस अध्याय में माया शक्ति का वर्णन किया गया है जो शरीर और उसके तत्त्वों का स्रोत है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि माया सत्त्व, रजस, और तमस तीन गुणों से निर्मित है। शरीर, मन और बुद्धि जो प्राकृत शक्ति से बने हैं उनमें भी तीनों गुण विद्यमान होते हैं और हम में इन गुणों का अनुपात हमारे व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। सत्त्व गुण शांत स्वभाव, सद्गुण और शुद्धता को इंगित करता है तथा रजो गुण कामनाओं और को बढ़ाता है एवं तमो गुण भ्रम, आलस्य, और निद्रा का कारण है। जब तक आत्मा मुक्त नहीं होती तब तक उसे माया शक्ति की प्रबल शक्तियों से निपटना पड़ता है। मुक्ति इन तीन गुणों से परे है।
आगे श्रीकृष्ण इन बंधनों को काटने का एक सरल उपाय बताते हैं। परम शक्तिशाली भगवान इन तीनों गुणों से परे अर्थात् गुणातीत हैं। यदि हम मन को उनमें अनुरक्त करते हैं तब हमारा मन भी दिव्यता की ओर बढ़ता है। इस बिन्दु पर अर्जुन तीन गुणों से परे होने की अवस्था प्राप्त व्यक्तियों के गुण-विशेषताओं के संबंध में पूछता है तब श्रीकृष्ण सहानुभूतिपूर्वक ऐसी प्रबुद्ध आत्माओं के लक्षणों का निरूपण करते हैं। वे बताते हैं कि महापुरुष सदैव संतुलित रहते हैं और वे संसार में तीन गुणों के कार्यान्वयन को देखकर व्यक्तियों, पदार्थों तथा परिस्थितियों में प्रकट होने वाले उनके प्रभाव से विचलित नहीं होते। वे सभी पदार्थों को भगवान की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं जो अंततः उनके नियंत्रण में होती है। इसलिए सांसारिक परिस्थितियाँ न तो उन्हें हर्षित और न ही उन्हें दुखी कर सकती हैं। इस प्रकार बिना विचलित हुए वे अपनी आत्मा में स्थित रहते हैं। श्रीकृष्ण भक्ति की महिमा और हमें तीन गुणों से परे ले जाने की इसकी क्षमता का स्मरण कराते हुए इस अध्याय का समापन करते हैं।
परमेश्वर ने कहाः अब मैं पुनः तुम्हें श्रेष्ठ ज्ञान के विषय में बताऊँगा जो सभी ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ है और सभी ज्ञानों का परम ज्ञान है, जिसे जानकर सभी महान संतों ने परम सिद्धि प्राप्त की है।
वे जो इस ज्ञान की शरण लेते हैं, वे मुझे प्राप्त होंगे और वे सृष्टि के समय न तो पुनः जन्म लेंगे और न ही प्रलय के समय उनका विनाश होगा।
हे भरत पुत्र! प्रकृति, गर्भ स्वरूपा है। मैं इसी प्रकृति में जीवात्मा को गर्भस्थ करता हूँ जिससे समस्त जीवों का जन्म होता है। हे कुन्ती पुत्र! सभी योनियाँ जो जन्म लेती है, माया उनकी गर्भ है और मैं उनका बीज प्रदाता जनक हूँ।
हे महाबाहु अर्जुन! माया शक्ति सत्त्व, रजस और तमस तीन गुणों से निर्मित है। ये गुण अविनाशी आत्मा को नश्वर शरीर के बंधन में डालते हैं।
इनमें से सत्त्वगुण शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और पुण्य कर्मों से युक्त है। हे निष्पाप अर्जुन! यह आत्मा में सुख और ज्ञान के भावों के प्रति आसक्ति उत्पन्न कर उसे बंधन में डालता है।
हे अर्जुन! रजोगुण की प्रकृति रागात्मिका है। यह सांसारिक इच्छाओं और आसक्ति से उत्पन्न होता है और आत्मा को कर्म के प्रतिफलों से बांधता है।
हे अर्जुन! तमोगुण अज्ञानता के कारण उत्पन्न होता है और यह देहधारियों जीवात्माओं के लिए मोह का कारण है। यह सभी जीवों को प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा भ्रमित करता है।
सत्त्वगुण सांसारिक सुखों में बांधता है, रजोगुण आत्मा को सकाम कर्मों की ओर प्रवृत्त करता है और तमोगुण ज्ञान को आच्छादित कर आत्मा को भ्रम में रखता है।
कभी-कभी सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण को अभिभूत करता है और कभी-कभी रजोगुण सत्त्व गुण और तमोगुण पर हावी हो जाता है और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तमोगुण सत्त्व गुण और रजोगुण पर हावी हो जाता है।
जब शरीर के सभी द्वार ज्ञान से आलोकित हो जाते हैं तब इसे सत्वगुण की अभिव्यक्ति मानो। जब रजोगुण प्रबल होता है तब हे अर्जुन! लोभ, सांसारिक सुखों के लिए परिश्रम, बचैनी और उत्कंठा के लक्षण विकसित होते हैं। हे अर्जुन! जड़ता, असावधानी और भ्रम यह तमोगुण के प्रमुख लक्षण हैं।
जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता होती है वे मृत्यु पश्चात् ऋषियों के ऐसे उच्च लोक में जाते हैं जो रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होता है। रजोगुण की प्रबलता वाले सकाम कर्म करने वाले लोगों के बीच जन्म लेते हैं और तमोगुण में मरने वाले पशुओं में जन्म लेते है।
ऐसा कहा जाता है कि सत्त्वगुण में सम्पन्न किए गये कार्य शुभ फल प्रदान करते हैं, रजोगुण के प्रभाव में किए गये कर्मों का परिणाम पीड़ादायक होता है तथा तमोगुण से सम्पन्न किए गए कार्यों का परिणाम अंधकार है।
सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ और तमोगुण से अज्ञानता, प्रमाद और मोह उत्पन्न होता है।
सत्त्वगुण में स्थित जीव उच्च लोकों में जाते हैं, रजोगुणी पृथ्वी लोक पर और तमोगुणी नरक लोकों में जाते हैं
जब बुद्धिमान व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि सभी कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अलावा कोई अन्य कर्ता नहीं है और जो मुझे इन तीन गुणों से परे देखते हैं, वे मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त करता है।
शरीर से संबद्ध माया के त्रिगुणों से मुक्त होकर जीव जन्म, मृत्यु, रोग, बुढ़ापे और दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा अमरता प्राप्त कर लेता है।
अर्जुन ने पूछा-हे भगवान! वे जो इन तीनों गुणों से परे हो जाते हैं उनके लक्षण क्या हैं? वे किस प्रकार से गुणों के बंधन को पार करते हैं?
भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तीनों गुणों से रहित मनुष्य न तो प्रकाश, (सत्त्वगुण का उदय) न ही कर्म, (रजोगुण से उत्पन्न) और न ही मोह (तमोगुण से उत्पन्न) होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं। वे गुणों की प्रकृति से उदासीन रहते हैं और उनसे विक्षुब्ध नहीं होते। यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं, वे बिना विचलित हुए रहते हैं।
वे जो सुख और दुःख में समान रहते हैं, जो आत्मस्थित हैं, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने के टुकड़े को समान दृष्टि से देखते हैं, जो प्रिय और अप्रिय घटनाओं के प्रति समता की भावना रखते हैं। जो निंदा और प्रशंसा को समभाव से स्वीकार करते हैं, जो मान-अपमान की स्थिति में सम भाव रहते हैं। जो शत्रु और मित्र के साथ एक जैसा व्यवहार करते हैं, जो सभी भौतिक व्यापारों का त्याग कर देते हैं-वे तीनों गुणों से ऊपर उठे हुए (गुणातीत) कहलाते हैं।
जो लोग विशुद्ध भक्ति के साथ मेरी सेवा करते हैं, वे माया के तीनों गुणों से ऊपर उठ जाते हैं और ब्रह्म पद को पा लेते हैं।
मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आधार हूँ जो अमर, अविनाशी, शाश्वत धर्म और असीम दिव्य आनन्दस्वरूप है।