यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: |
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: || 18||
यस्मात्-क्योंकि; क्षरम्-नश्वर; अतीत:-परे; अहम् मैं हूँ; अक्षरात्-अक्षर से भी; अपि-भी; च-तथा; उत्तमः-परे; अत:-अतएव; अस्मि-मैं हूँ; लोके-संसार में; वेदे-वैदिक ग्रंथों में; च तथा; प्रथितः विख्यात; पुरुष उत्तमः पुरुषोत्तम के रूप में।
BG 15.18: मैं नश्वर सांसारिक पदार्थों और यहाँ तक कि अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ इसलिए मैं वेदों और स्मृतियों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष के रूप में विख्यात हूँ।
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पिछले कुछ श्लोकों में श्रीकृष्ण ने विस्तारपूर्वक यह प्रकट किया था कि प्रकृति के सभी भव्य पदार्थ उनकी ही महिमा की अभिव्यक्तियाँ हैं। वे केवल दृश्य जगत का सृजन मात्र नहीं करते। वे मायाशक्ति और दिव्य आत्माओं से परे है। यहाँ उन्होंने अपने स्वरूप को पुरुषोत्तम के रूप में अभिव्यक्त किया है। अब कोई यह संदेह कर सकता है कि श्रीकृष्ण और परम सत्ता क्या एक ही हैं? ऐसे किसी भ्रम की संभावना को हटाने के लिए श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्वयं को उत्तम पुरुष एकवचन में प्रस्तुत करते हैं। आगे वे कहते हैं कि वेदों में भी इस प्रकार की उदघोषणा की गयी है-
कृष्ण एव परो देवस्तं ध्यायेत् तं रसयेत् तं यजेत तं भजेद्
(गोपालतापिन्युपनिषद्)
"भगवान श्रीकृष्ण परम प्रभु हैं, उनका ध्यान करो उनकी भक्ति में परम आनन्द पाओ और उनकी आराधना करो" आगे पुनः वर्णन किया गया है:
योऽसै परं ब्रह्म गोपालः
(गोपालतापिन्युपनिषद्)
"गोपाल परम पुरुष हैं।" अब कोई भगवान विष्णु, भगवान राम, भगवान शिव आदि की स्थिति के संबंध में पूछ सकता है? ये सब एक ही परम पुरुष के विभिन्न रूप हैं। ये सब भगवान की अभिव्यक्तियाँ हैं।