इस अध्याय में श्रीकृष्ण दैवीय और आसुरी दो प्रकार की प्रकृति का वर्णन करते हैं। दैवीय गुण धार्मिक ग्रंथों के उपदेशों के अनुसरण, सत्त्वगुण को पोषित करने और अध्यात्मिक अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध करने से विकसित होते हैं। ये दैवीय गुणों में वृद्धि करते हैं और अंततः भगवत्प्राप्ति तक पहुँचाते हैं। इसके विपरीत संसार में आसुरी प्रवृत्ति भी पायी जाती है, जो मोह अर्थात् आसक्ति और अज्ञानता के गुणों से तथा भौतिक विचारों द्वारा विकसित होती है। यह हमारे व्यक्तित्व में अवगुणों का पोषण करती है और अंततः आत्मा को नारकीय अवस्था में धकेलती है।
यह अध्याय दैवीय गुणों से सम्पन्न पुण्यात्माओं के निरूपण से शुरू होता है। आगे इसमें आसुरी गुणों का भी वर्णन किया गया है जिनका अति सतर्कता के साथ त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये आत्मा को पुनः अज्ञानता और 'संसार' अर्थात् जीवन और मृत्यु के चक्र में खींचते हैं। श्रीकृष्ण इस अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए, इसका निर्णय करने का अधिकार केवल वेद शास्त्रों का ही माना जाता है अतः हमें भी वेदों के वाक्यों को मानना चाहिए। हमें इन वैदिक शास्त्रों के विधि-निषेधों को समझना चाहिए और तदनुसार इस संसार में अपने कार्यों का निष्पादन और दायित्वों का निर्वहन करना चाहिए।
परम पुरुषोत्तम भगवान् ने कहाः हे भरतवंशी! निर्भयता, मन की शुद्धि, अध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, तपस्या और स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधहीनता, त्याग, शांतिप्रियता, दोषारोपण से मुक्त, सभी जीवों के प्रति करूणा का भाव, लोभ से मुक्ति, भद्रता, लज्जा, स्थिरता, शक्ति, क्षमाशीलता, धैर्य, पवित्रता, शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्ति होना, ये सब दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों के गुण हैं।
हे पार्थ! पाखण्ड, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता आसुरी प्रकृति वाले लोगों के गुण हैं।
दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन का कारण होते हैं। हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो।
संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं-एक वे जो दैवीय गुणों से सम्पन्न हैं और दूसरे वे जो आसुरी प्रकृति के हैं। मैं दैवीय गुणों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ अब तुम मुझसे आसुरी स्वभाव वाले लोगों के संबंध में सुनो।
वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह समझ नहीं पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो पवित्रता, न ही सदाचरण और न ही सत्यता पायी जाती है।
वे कहते हैं, संसार परम सत्य से रहित और आधारहीन है तथा यह भगवान से रहित है। यह दो विपरीत लिंगों के परस्पर समागम से उत्पन्न होता है और कामेच्छा के अतिरिक्त इस संसार का कोई अन्य कारण नहीं है।
ऐसे विचारों द्वारा पथ भ्रष्ट आत्माएँ अल्प बुद्धि और क्रूर कृत्यों के कारण संसार की शत्रु बन जाती हैं और इसके विनाश का कारण बनती हैं।
अतृप्त काम वासनाओं, पाखंड युक्त गर्व और अभिमान में डूबे आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य अपने झूठे सिद्धांतों से संसक्त रहते हैं। इस प्रकार वे भ्रमित होकर अशुभ संकल्प के साथ काम करते हैं।
वे अंतहीन चिंताओं से पीड़ित रहते हैं। फिर भी वे आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन सम्पत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है।
सैंकड़ों कामनाओं के बंधनों में पड़ कर काम वासना और क्रोध से प्रेरित होकर वे अवैध ढंग से धन का संग्रह करने में जुटे रहते हैं। यह सब वे इन्द्रिय तृप्ति के लिए करते हैं।
आसुरी स्वभाव वाला व्यक्ति सोचता है-"मैंने आज इतनी संपत्ति प्राप्त कर ली है और मैं इससे अपनी कामनाओं की पूर्ति कर सकूँगा। यह सब कुछ मेरा है और कल मेरे पास इससे भी अधिक धन होगा। मैंने अपने एक शत्रु का नाश कर दिया है और मैं अन्य शत्रुओं का भी विनाश करूंगा। मैं स्वयं भगवान के समान हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं शक्तिशाली हूँ, मैं सुखी हूँ। मैं धनाढ्य हूँ और मेरे सगे-संबंधी भी कुलीन वर्ग से हैं। मेरे बराबर कौन है? मैं देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, मैं सुखों का भोग करूँगा।" इस प्रकार से वे अज्ञानता के कारण मोह ग्रस्त रहते हैं।
ऐसी कल्पनाओं से पथभ्रष्ट होकर और मोह के जाल में फँसकर तथा विषय भोग की तृप्ति के आदी होकर वे घोर नरक में गिरते हैं।
ऐसे आत्म अभिमानी और हठी लोग अपनी संपत्ति के मद में चूर होकर शास्त्रों के विधि-विधानों का आदर न करते हुए केवल आडम्बर करते हुए यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं।
अहंकार, शक्ति, दम्भ, कामना और क्रोध से अंधे मनुष्य अपने और अन्य लोगों के शरीरों में उपस्थित मेरी उपस्थिति की निंदा करते हैं।
इन दुष्ट और निर्दयी व्यक्तियों को मैं निरन्तर जीवन-मृत्यु के चक्र में आसुरी प्रकृति के गर्मों में डालता हूँ। ये अज्ञानी आत्माएँ बार-बार आसुरी प्रकृति के गर्थों में जन्म लेती हैं। मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण हे अर्जुन! वे शनैः-शनैः अधम गति प्राप्त करते हैं।
काम, क्रोध और लोभ जीवात्मा को नरक की ओर ले जाने वाले तीन द्वार हैं इसलिए सबको इनका त्याग करना चाहिए।
जो इन तीन द्वारों से मुक्त होते हैं, वे अपने के कल्याण के लिए चेष्टा करते हैं और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
वे जो इच्छाओं के आवेग से कर्म करते हैं और शास्त्रों के विधि-निषेधों को नहीं मानते वे न तो सिद्धि प्राप्त करते हैं और न ही परम लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
इसलिए कार्य और अकार्य का निश्चय करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों को समझो तथा तदनुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो।