Bhagavad Gita: Chapter 16, Verse 7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: |
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते || 7||

प्रवृत्तिम्-उचित कर्म; च-और; निवृत्तिम्-अनुचित कर्म करना; च-और; जना:-लोग; न-नहीं; विदुः-समझते हैं; आसुराः-आसुरी गुण से युक्त; न-न हीं; शौचम्-पवित्रता; न-न तो; अपि-भी; च-और; आचारः-आचरण; न-न ही; सत्यम्-सत्यता; तेषु-उनमें; विद्यते-होता है।

Translation

BG 16.7: वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह समझ नहीं पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो पवित्रता, न ही सदाचरण और न ही सत्यता पायी जाती है।

Commentary

धर्म में व्यवहारविधि निहित होती है जो मनुष्य के कल्याण के अनुकूल होती है। अधर्म में वे कार्य सम्मिलित होते हैं जो पतन की ओर ले जाते हैं और समाज की क्षति का कारण बनते हैं। इसलिए इसके प्रभुत्व में आये हुए लोग उचित और अनुचित कर्म क्या हैं? के संबंध में सदैव विचलित रहते हैं। इसका एक उदाहरण पाश्चात्य दर्शन की वर्तमान विचारधारा है। पुनर्जागरण के पश्चात् विकसित विभिन्न विचारधाराओं जैसे ज्ञान का युग, मानवतावाद अनुभववाद, समाजवाद और संदेहवाद के बाड़े आए पाश्चात्य दर्शन के वर्तमान युग को 'उत्तर आधुनिकतावाद' का नाम दिया गया है। उत्तर आधुनिकतावाद का प्रचलित मत यह है कि संसार में कोई भी परम सत्य नहीं है। 'सारी सत्ताएँ व्यावहारिक है' यह उत्तर आधुनिकतावाद के दर्शन का नारा बन चुका है। हम प्रायः ऐसी उक्ति सुनते हैं कि “यह तुम्हारे लिए सत्य हो सकता है, लेकिन मेरे लिए सत्य नहीं हैं।" सत्य को एक व्यक्तिगत दृष्टिकोण के रूप में या ऐसी अनुभूति के रूप में देखा जाता है जो मनुष्य की निजी सीमाओं से बंधी है। यह दृष्टिकोण नैतिकता से संबंधित विषयों को भी प्रभावित करता है जो उचित और अनुचित आचरण का ज्ञान कराते हैं। यदि संसार में परम सत्य जैसा कुछ भी नहीं है तब संसार में किसी विषय के संबंध में भी कोई निश्चित नैतिक औचित्य और अनौचित्य नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में लोगों का यह कहना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि "यह तुम्हारे लिए उचित हो सकता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह मेरे लिए भी उचित है।" ऐसा विचार हमें आकर्षक लग सकता है किन्तु यदि इसकी तार्किकता को देखा जाए तब यह निरर्थक और विनाशकारी सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ क्या यह उचित है कि यदि कोई लाल बत्ती होने पर यातायात (ट्रैफिक) लाईट की उपेक्षा करे? ऐसा करने वाला व्यक्ति अन्य लोगों के जीवन को जोखिम में डाल देगा। क्या इसे उचित माना जा सकता है? यदि कोई व्यक्ति घनी आबादी वाले क्षेत्र में आत्मघाती बम विस्फोट करे। भले ही उसकी बुद्धि भ्रष्ट करके उसे यह समझाया गया हो कि वह जो कर रहा है वह उचित है, लेकिन क्या समाज और मानवता की दृष्टि से इसे उचित कार्य माना जा सकता है? यदि कोई भी ऐसा विचार या क्रिया चरम सत्य नहीं है तब कोई यह नहीं कह सकता है कि 'उसे यह करना चाहिए' या 'उसे यह नहीं करना चाहिए।' अधिकांश लोग यह तर्क दे सकते हैं कि -'अनेक लोग इस काम को अच्छा नहीं समझते। इसलिए यह ग़लत है। 'सापेक्षवादियों के दृष्टिकोण के अनुसार कोई यह भी कह सकता है कि 'तुम्हारे लिए यह उचित हो सकता है लेकिन हमारे लिए निश्चित रूप से यह उचित नहीं है।' नैतिकता के दृष्टिकोण से परम सत्य को न मानने के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी प्रकृति वाले लोग क्या उचित है अथवा क्या अनुचित, के संबंध में विचलित रहते हैं और इस प्रकार से उनमें न तो शुद्धता, न सत्य और न ही सदाचरण होता है। श्रीकृष्ण अगले श्लोक में ऐसे लोगों के विचारों का वर्णन करेंगे।

Swami Mukundananda

16. दैवासुर सम्पद् विभाग योग

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