Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 17

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते || 17||

यस्य–जिसके; न-नहीं; अहङ्कृतः-कर्तापन के अहंकार से मुक्त; भावः-प्रकृति; बुद्धिः-बुद्धि; यस्य–जिसकी; न-लिप्यते-अनासक्त; हत्वा-मारकर; अपि भी; सः-वे; इमान्–इस; लोकान्–जीवों को; न कभी नहीं; हन्ति मारता है; न कभी नहीं; निबध्यते- बंधन में पड़ता है।

Translation

BG 18.17: जो कर्तापन के अहंकार से मुक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है, वे जीवों को मारते हुए भी न तो जीवों को मारते हैं और न कर्मों के बंधन में पड़ते हैं।

Commentary

पिछले श्लोक में मोहित बुद्धि का वर्णन करने के बाद श्रीकृष्ण अब विशुद्ध बुद्धि का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि विशुद्ध बुद्धि से युक्त मनुष्य कर्ता होने के मिथ्या अभिमान से मुक्त रहते हैं। वे अपने कर्मों का फल भी नहीं भोगना चाहते इसलिए वे जो कर्म करते हैं उसमें आसक्त नहीं होते। 

पहले भी श्लोक 5.10 में उन्होंने कहा था कि जो कर्म-फलों से विरक्त रहते हैं वे कभी पाप से ग्रस्त नहीं होते। भौतिक दृष्टि से वे कार्य में संलग्न प्रतीत होते हैं लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से वे आसक्ति से मुक्त होते हैं और इसलिए वे कर्म फलों के बंधनो में नहीं पड़ते। 

मुगलकाल में रहीम खानखाना प्रसिद्ध संत कवि थे। जन्म से मुसलमान होने पर भी वे भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। जब भी वे भिक्षा देते तब वे अपनी आंखे झुका लेते थे। उनकी इस आदत के संबंध में एक रोचक घटना है। यह कहा जाता है कि संत तुलसी दास ने रहीम द्वारा इस प्रकार से दान देने के बारे में सुन रखा था और उन्होंने उनसे पूछाः

ऐसी देनी देन ज्यों, कित सीखे हो सैन

ज्यों-ज्यों कर ऊंच्यो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन 

"श्रीमान्, तुमने इस प्रकार से भिक्षा देने की कला कहाँ से सीखी? तुम्हारे हाथ उतने ही ऊपर की ओर होते हैं जितनी नीचे तुम्हारी दृष्टि।" रहीम ने इसका अति विनम्रता से उत्तर दिया 

देनहार कोई और है, भेजत है दिन-रैन

लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन

 "देने वाला कोई और है जो दिन रात देता है किन्तु संसार इसका श्रेय मुझे देता है इसलिए मैं अपनी आँखों को नीचे झुका लेता हूँ।" यह बोध होना कि हम अपनी उपलब्धियों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, हमें कर्तापन के भाव से मुक्त करता है।

Swami Mukundananda

18. मोक्ष संन्यास योग

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