प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् |
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् || 27||
प्रशान्त-शान्तिप्रियः मनसम्–मन; हि-निश्चय ही; एनम् यह; योगिनम्-योगी; सुखम्-उत्तमम्-परम आनन्द; उपैति-प्राप्त करता है; शान्त-रजसम्–जिसकी कामनाएँ शान्त हो चुकी हैं; ब्रह्म-भूतम्-भगवद् अनुभूति से युक्त; अकल्मषम्-पाप रहित।
BG 6.27: जिस योगी का मन शांत हो जाता है और जिसकी वासनाएँ वश में हो जाती हैं एवं जो निष्पाप है तथा जो प्रत्येक वस्तु का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखता है, उसे अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।
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सिद्ध योगी अपने मन को भौतिक विषयों से हटाने और उसे भगवान में केन्द्रित करने में निपुण हो जाता है और उसके सभी भाव उसके वश में हो जाते हैं तथा उसका मन पूर्ण रूप से शांत हो जाता है। प्रारंभिक प्रयास तो मन को भगवान की ओर केन्द्रित करने के लिए आवश्यक थे किन्तु अब मन स्वतः भगवान की ओर आकर्षित होता है। ऐसी अवस्था में प्रबुद्ध साधक सब कुछ भगवान से संबंधित मानते हैं।
नारद मुनि ने कहा है
तत् प्राप्य तदेवालोकयती तदेव श्रृणोति ।
तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ।।
(नारद भक्तिदर्शन, सूत्र-55)
"जिस साधक का मन भगवान के प्रेम में डूबकर एक हो जाता है उसकी चेतना सदा भगवान की भक्ति में लीन रहती है। ऐसा साधक भगवान को ही देखता है, भगवान के संबंध में ही सुनता है, भगवान की ही चर्चा करता है और उसके बारे में ही सोचता है।" जब मन इस प्रकार से भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है तब आत्मा अपने भीतर विराजमान भगवान के असीम आनन्द की अनुभूति करती है। साधक सदैव यह प्रश्न करते हैं कि वे कैसे जानें कि वे आत्मोन्नति कर रहे हैं। इसका उत्तर इसी श्लोक में दिया गया है। जब हम अपने भीतर के अलौकिक आनन्द को बढ़ता देखते हैं तब हम इस लक्षण को स्वीकार कर सकते हैं कि हमारा मन वश में हो रहा है और हमारी चेतना आध्यात्मिक रूप से ऊपर उठ रही है। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब हम शान्तरजसम् (कामवासना रहित) और अकल्मषम् (पापों से मुक्त) हो जाते हैं तब हम ब्रह्मभूतम्, अर्थात् भगवत्चेतना से युक्त हो जाते हैं। उस अवस्था में हम सुखम्-उत्तमम् अर्थात् परम आनन्द की अनुभूति करते हैं।