सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते || 9||
सु-हृत्-शुभ चिन्तक के प्रति; मित्र-मित्र; अरि-शत्रु; उदासीन-तटस्थ व्यक्ति; मध्य-स्थ-मध्यस्थता करना; द्वेष्य ईर्ष्यालु, बन्धुषु-संबंधियों; साधुषु-पुण्य आत्माएँ; अपि-उसी प्रकार से; च-तथा; पापेषु–पापियों के; सम-बुद्धिः-निष्पक्ष बुद्धि वाला; विशिष्यते-श्रेष्ठ हैं;
BG 6.9: योगी शुभ चिन्तकों, मित्रों, शत्रुओं पुण्यात्माओं और पापियों को निष्पक्ष होकर समान भाव से देखते हैं। इस प्रकार जो योगी मित्र, सहयोगी, शत्रु को समदृष्टि से देखते हैं और शत्रुओं एवं सगे संबंधियों के प्रति तटस्थ रहते हैं तथा पुण्यात्माओं और पापियों के बीच भी निष्पक्ष रहते हैं, वे मनुष्यों के मध्य विशिष्ट माने जाते हैं।
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यह मनुष्य की प्रकृति है कि वह मित्रों और शत्रुओं के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है किन्तु सिद्ध योगी की प्रकृति भिन्न होती है। भगवद्ज्ञान से सम्पन्न योगी समस्त सृष्टि को भगवान के साथ एक रूप में देखते हैं। इस प्रकार से वे सभी प्राणियों को समदृष्टि से देखने में समर्थ होते हैं। दृष्टि की इस समानता की भी अनेक अवस्थाएँ होती हैं
1. "सभी जीव दिव्य आत्माएँ है और इसलिए वे भगवान का अंश हैं। इसलिए उन्हें एक समान समझना चाहिए। “आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डित:।" अर्थात् "सच्चा पंडित वही है जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में देखता है और इसलिए सबको अपने समान देखता है।"
2. उत्तम दृष्टि यह है कि भगवान प्रत्येक प्राणी के भीतर विराजमान हैं और इसलिए समस्त प्राणी आदर के योग्य हैं।
3. उच्चावस्था प्राप्त योगी 'प्रत्येक में भगवान का रूप' देखने वाली दृष्टि विकसित करता है। वैदिक ग्रंथों में भी बार-बार वर्णित है कि समस्त संसार भगवान का ही रूप है-ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। (ईशोपनिषद-1) अर्थात् "जड़ एवं चेतन पदार्थों के साथ ही समस्त ब्रह्माण्ड भी भगवान की अभिव्यक्ति है जोकि उनके भीतर व्याप्त है।" पुरुष एवेदं सर्वं (पुरुष सूक्तम्) अर्थात "भगवान इस संसार में सर्वत्र व्याप्त हैं और सब कुछ उनकी ही शक्ति है।" इसलिए उच्चावस्था प्राप्त योगी सभी में भगवान की अभिव्यक्ति देखता है। ऐसी दृष्टि से सम्पन्न हनुमान जी कहते हैं-सिया राममय सब जग जानी। (रामचरितमानस) “मैं सभी में सीता राम का रूप देखता हूँ।"
सम दृष्टि की इन श्रेणियों पर श्लोक 6.31 में विस्तृत टिप्पणी की गयी है। उपर्युक्त तीनों श्रेणियों का उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह योगी जो सभी प्राणियों में समदृष्टि बनाए रख सकता है वह पिछले श्लोक में वर्णित योगी की तुलना में अधिक उन्नत योगी है। योग की अवस्था का वर्णन करने के पश्चात् अब श्रीकृष्ण अगले श्लोक का आरम्भ यह व्यक्त करते हुए करेंगे कि किस पद्धति द्वारा इस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।