अर्जुन उवाच।
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥1॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; एवम्-इस प्रकार; सतत–निरंतर; युक्ताः -समर्पित; ये-जो; भक्ताः -भक्तजन; त्वाम्-आपको; पर्युपासते-आराधना करते हैं; ये-जो; च-भी; अपि-पुनः; अक्षरम्-अविनाशी; अव्यक्तम्-अप्रकट को; तेषाम्-उनमें से; के-कौन; योगवित्-तमा:-योगविद्या में अत्यन्त पारंगत।
Translation
BG 12.1: अर्जुन ने पूछा। आपके साकार रूप पर दृढ़तापूर्वक निरन्तर समर्पित होने वालों को या आपके अव्यक्त निराकार रूप की आराधना करने वालों में से आप किसे योग में पूर्ण मानते हैं?
Commentary
पिछले अध्याय में अर्जुन ने भगवान के विराट रूप को देखा था जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ था। उसे देखकर अब अर्जुन भगवान के गुण, विशेषता और लीलाओं सहित उनके साकार रूप को पसंद करता है। इसलिए वह यह जानने के लिए उत्सुक है कि साकार रूप में भगवान की भक्ति करने वाले भक्त या वे जो उनके निराकार अव्यक्त ब्रह्म रूप की उपासना करते हैं, में से पूर्ण योगी कौन है?
अर्जुन का प्रश्न पुनः यह पुष्टि करता है कि भगवान के दो रूप हैं-एक सर्वव्यापक निराकार ब्रह्म रूप और दूसरा उनका साकार रूप। जो यह कहते हैं कि भगवान साकार रूप धारण नहीं कर सकते वे भगवान को अपूर्ण मानते हैं और इसी प्रकार से जो यह कहते हैं कि भगवान केवल साकार में विद्यमान रहते हैं वे भी भगवान को अपूर्ण सिद्ध करते हैं। भगवान पूर्ण और सिद्ध हैं इसलिए वे साकार और निराकार दोनों रूपों में रहते हैं। हम जीवात्माओं के व्यक्तित्त्व के भी दो पहलू हैं। हमारी आत्मा निराकार है फिर भी यह न केवल एक बार शरीर धारण करती है अपितु अनंत बार हमारे अनगनित पूर्व जन्मों में आत्मा हमारे शरीर में थी और आगे के जन्मों में भी रहेगी। यदि हम अणु जीवात्माओं के व्यक्तित्त्व के दो स्वरूप हैं तब फिर सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी इच्छानुसार जब चाहे साकार रूप धारण क्यों नहीं कर सकता? यहाँ तक कि ज्ञान योग के प्रबल समर्थक शंकराचार्य ने भी कहा है
मूर्तम् चैवमूर्तम् द्वेवा ब्रह्मणों रूपे, इत्युपनिशत त्योरवाद्वय
भक्तो भगवदुपदिष्टौ, क्लेशदक्लेशद्वा मुक्तिस्यादेरत्योर्मध्ये
"परम प्रभुत्ता सम्पन्न भगवान के साकार और निराकार दोनों रूप हैं। आध्यात्मिक मार्ग के साधक भी दो प्रकार के होते है-एक निराकार ब्रह्म के उपासक और दूसरे साकार रूप की आराधना करने वाले किन्तु निराकार रूप की पूजा करना अत्यंत कठिन है।"