Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 13-14

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥13॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥14॥

अद्वेष्टा द्वेष रहितः सर्व-भूतानाम-समस्त जीवों के प्रतिः मैत्रः-मैत्रीभाव वालाः करुणः-दयावान: एव–वास्तव में; च-भी; निर्मम-स्वामित्व की आसक्ति से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सम-समभाव; दुःख-दुख; सुखः-सुख; क्षमी-क्षमावान; सन्तुष्टः-तुष्ट; सततम्-निरंतर; योगी-भक्ति में एकीकृत; यत-आत्मा आत्मसंयमी; दृढ-निश्चयः-दृढसंकल्प सहित; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मन:-मन को; बुद्धिः-तथा बुद्धि को; यः-जो; मत्-भक्त:-मेरा भक्त; स:-वह; मे–मेरा; प्रियः-अतिप्रिय।

Translation

BG 12.13-14: जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, सबके मित्र हैं, दयालु हैं, ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त और मिथ्या अहंकार से मुक्त रहते हैं, दुख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं। वे सदा तृप्त रहते हैं, मेरी भक्ति में ढूंढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं, वे आत्म संयमित होकर, दूंढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं।

Commentary

यह बताने के पश्चात कि उनके साकार रूप की भक्ति श्रेष्ठ है, अब श्रीकृष्ण 13वें से 19वें श्लोक तक अपने प्रिय भक्तों की विशेषताओं का वर्णन करेंगे। 

सभी जीवों के प्रति द्वेष भावना से मुक्तः भक्त सभी प्राणियों को भगवान के अणु अंश के रूप में देखते हैं। यदि वे अपने मन में अन्य लोगों के प्रति ईर्ष्या के भाव को प्रश्रय देते हैं तब वे उसे समान रूप से भगवान के प्रति ईर्ष्या करना समझते हैं। ऐसे भक्त अपना अहित करने वाले लोगों के प्रति भी द्वेष भावना से मुक्त रहते हैं। 

मैत्री और दया भावना से युक्तः भक्ति सभी जीवों में एकता की भावना उत्पन्न करती है क्योंकि सभी जीव एक ही भगवान की संतानें हैं। इस प्रकार से दूसरों को अपने से भिन्न देखने की धारणा समाप्त हो जाती है। यह भावना भक्तों में शालीनता और दूसरों के कष्टों के प्रति सहानुभूति विकसित करने की ओर ले जाती है।

 स्वामित्व एवं मिथ्या अहंकार की आसक्ति से मुक्तः भक्ति का सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है। अपने भीतर के अहं भाव को मिटाने का अभ्यास करके ही कोई आध्यात्मिक मार्ग पर उन्नति कर सकता है। निष्काम भक्त स्वाभाविक रूप से विनम्र रहते हैं और अहं भावना तथा अपने व्यक्तित्त्व से स्वामित्व के भाव को त्याग देते हैं और उसी प्रकार से शरीर के रूप में अपनी मिथ्या पहचान का उन्मूलन कर देते हैं।

सुख और दुख में समभावः भक्त यह विश्वास करते हैं कि केवल प्रयास करना ही उनके हाथ में है और फल प्रदान करना भगवान के हाथ में होता है। इस प्रकार अपने कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम को वे भगवान की इच्छा समझते हैं और उन्हें समभाव से स्वीकार करते हैं। 

सदैव क्षमाशीलः भक्त कभी अपनी भावनात्मक संतुष्टि के लिए अपने को कष्ट पहुँचाने वालों को दण्ड देने के संबंध में नहीं सोचते। दूसरों के प्रति ऐसे नकारात्मक विचारों से भक्ति नष्ट हो जाती है। इसलिए बुद्धिमान भक्त किसी भी परिस्थिति में निर्मम विचारों को अंतःकरण में शरण देना अस्वीकार कर देते हैं और दुष्कर्म करने वालों को दण्ड प्रदान करने का कार्य भगवान के ऊपर छोड़ देते हैं। 

सदैव संतोषीः सुख समृद्धि से हमें संतोष प्राप्त नहीं होता अपितु इसके विपरीत संतोष केवल अपनी कामनाओं पर अंकुश लगाने से मिलता है। भक्त सांसारिक पदार्थों को अधिक समय तक सुख देने के साधन के रूप नहीं देखते और इसलिए भगवकृपा से उन्हें जो मिलता है उसी में संतुष्ट रहते हैं। 

दृढ़संकल्प से मेरी भक्ति में एकीकृत होनाः जैसे कि पहले से व्याख्या की गयी है कि 'योग' का अर्थ जुड़ना है। भक्त योगी होते हैं क्योंकि उनकी चेतना भगवान में लीन रहती है। यह तल्लीनता केवल यदा-कदा और रुक-रुक कर सविराम नहीं होती अपितु दृढ़तापूर्वक निरंतर बनी रहती है क्योंकि वे भगवान के साथ अटूट संबंध स्थापित कर लेते हैं। 

आत्मसंयमीः भक्त भगवान की प्रेममयी भक्ति में अपना मन अनुरक्त करते हैं। इस प्रकार से वह संसार से विरक्त हो जाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप वे अपने मन और इन्द्रियों पर विजय पा लेते हैं। 

दृढ़संकल्प युक्तः दृढ़ता का गुण स्थिर बुद्धि से प्राप्त होता है क्योंकि भक्त धार्मिक ग्रथों के ज्ञान और गुरु के उपदेशों को अपने साथ बांधे रखते हैं। इससे बुद्धि इतनी दृढ़ हो जाती है कि यदि पूरा संसार अन्यत्र मार्ग पर जाने का परामर्श ही क्यों न दें तब भी वे अपने संकल्प से कदाचित् पीछे नहीं हटते। 

मन और बुद्धि का समर्पणः आत्मा जन्मजात भगवान की सेवक है और जैसे ही हम इस ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं तभी हम वास्तव में स्वयं को परमात्मा को समर्पित करते हैं। इस समर्पण में मन और बुद्धि का प्रमुख रूप से महत्त्व होता है। जब ये भगवान पर समर्पित हो जाते हैं तब हमारे व्यक्तित्त्व के शेष सभी अंग शरीर, कामेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, सांसारिक पदार्थ और आत्मा भी स्वाभाविक रूप से भगवान की सेवा के लिए समर्पित हो जाती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिन भक्तों में ये भगवान की भक्ति में तल्लीनता वाले गुण प्रदर्शित होते हैं वे उन्हें अत्यंत प्रिय लगते हैं।