Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 2

श्रीभगवानुवाच।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥2॥

श्री-भगवान् उवाच-आनन्दमयी श्री भगवान ने कहा; मयि–मुझमें; आवेश्य-स्थिर करके; मन:-मन को; ये-जो; माम्-मुझमें; नित्य-युक्ताः-सदा तल्लीन हुए; उपासते-उपासना करते हैं; श्रद्धया श्रद्धापूर्वक; परया-उत्तम; उपेता:-युक्त होकर; ते वे; मे मेरे द्वारा; युक्त-तमा:-योग की उच्चावस्था में स्थित; मता:-मैं मानता हूँ।

Translation

BG 12.2: आनंदमयी भगवान ने कहा-वे जो अपने मन को मुझमें स्थिर करते हैं और सदैव दृढ़तापूर्वक पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं, मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ।

Commentary

भगवान की निकटता विभिन्न कोणों से अनुभव की जा सकती है। इसे एक उदाहरण से समझें। मान लो कि आप एक रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े हैं। एक ट्रेन अपनी चमकती हुई हेडलाइट के साथ दूर से आ रही हैं। पहले आपको ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कोई रोशनी दिखाई दे रही है। जब ट्रेन कुछ समीप पहुंचती है तब तुम रोशनी के साथ झिलमिलाहट भी देखते हो। अंततः ट्रेन जब तुम्हारे सामने प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो जाती है तब तुम्हें अनुभव होता है-'ओह, यह तो ट्रेन है और मैं इसके भीतर लोगों को उनके कंपार्टमेन्ट में बैठे हुए देख सकता हूँ जो अपनी खिड़की से बाहर झांक रहे हैं।' यही ट्रेन दूर से एक रोशनी दिखाई दे रही थी। जब यह कुछ समीप आई तो रोशनी के साथ दिखाई दी। अंत मे जब यह एकदम समीप आयी तब तुम्हें बोध हुआ कि यह ट्रेन है। यह वही ट्रेन थी लेकिन इसके समीप आते-आते तुम्हें इसके विभिन्न गुणों जैसे आकार, रंग, यात्री, कम्पार्टमेन्ट, इसके गेट और खिड़कियों का बोध होने लगा।" समान रूप से भगवान पूर्ण सिद्ध हैं और अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। उनका परम व्यक्तित्त्व दिव्य नामों, रूपों, लीलाओं, गुणों, संतों और लोकों से परिपूर्ण है किन्तु उनकी निकटता विभिन्न स्तरों पर अनुभव होती है जैसे ब्रह्म (निराकार रूप में भगवान की सर्वव्यापक अभिव्यक्ति) परमात्मा (सभी जीवों के हृदय में स्थित परमात्मा जीवात्मा से भिन्न) और भगवान (भगवान का साकार रूप) जिसके द्वारा वह पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ञानमद्वयम्। 

ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।। 

(श्रीमद्भागवतम्-1.2.11)

"सत्य को जानने वाले कहते हैं कि केवल एक ही परम सत्ता संसार में तीन प्रकार से ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में प्रकट होती है।" ब्रह्म भगवान का सर्वव्यापक स्वरूप है। केवल एक ही परमात्मा है। ये तीनों अलग-अलग भगवान नहीं है अपितु एक सर्वशक्तिमान की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं। ये जल भाप और बर्फ के समान हैं जो सब एक ही तत्त्व-हाईड्रोजन डाईआक्साइड कण हैं लेकिन इनके भौतिक रूप विभिन्न होते हैं अगर कोई प्यासा व्यक्ति जल मांगता है तब यदि हम उसे बर्फ देते हैं तो उससे उसकी प्यास नहीं बुझेगी। बर्फ और जल दोनों एक ही तत्त्व हैं किन्तु उनके भौतिक गुण विभिन्न हैं। इस प्रकार ब्रह्म, परमात्मा और भगवान सभी एक ही परम प्रभु की अभिव्यक्तियाँ हैं किन्तु उनके गुण विभिन्न हैं। ब्रह्मः भगवान का सर्वव्यापक रूप है जो सर्वत्र है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन है

एको देवः सर्वभूतेषु गुढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा

(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.11) 

अनंत ब्रह्माण्डों में एक परम ही सत्ता है। वह सभी वस्तुओं और सभी जीवों में स्थित है। भगवान के इस सर्वव्यापक रूप को ब्रह्म कहते हैं। यह सत्-चित्-आनन्द अर्थात नित्य, सर्वज्ञ और आनन्द है। अपने इस रूप में भगवान अपने अनंत गुणों, अनंत सौंदर्य और मधुर लीलाओं को व्यक्त नहीं करता। वह एक दिव्य ज्योति है जो कि निर्गुण निर्विशेष और निराकार है। जो ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हैं वे भगवान के इसी स्वरूप की पूजा करते हैं। 

परमात्माः भगवान का वह स्वरूप है जो सबके हृदय में स्थित है। श्लोक 18.61 में श्रीकृष्ण कहते हैं-हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदयों में वास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देश देता है जो प्राकृत शक्ति से बने यंत्र पर सवार रहती हैं। हमारे हृदय में बैठकर भगवान हमारे सभी कर्मों को देखते हैं और उनका लेखा-जोखा रखते हैं और उचित समय पर उन कर्मों का फल देते हैं। हम जो कर्म करते हैं उसे भूल जाते हैं। भगवान हमारे सभी विचारों और कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। उन्हें हमारे सभी विचारों, शब्दों, कार्यों और हमारे सभी जन्मों का स्मरण रहता है। न केवल इस जन्म में अपितु अनंत जन्मों में हम जहाँ भी रहे और हमने जो भी शरीर पाया वे सदैव हमारे साथ रहे। वे हमारे ऐसे मित्र हैं जो क्षण भर भी हमारा साथ नहीं छोड़ते। हमारे हृदय में स्थित भगवान का यह स्वरूप परमात्मा है। 

पतंजलि ने अपने योग दर्शन में जिस अष्टांग योग का उल्लेख किया है उसका उद्देश्य अपने भीतर स्थित भगवान की अनुभूति का अभ्यास करना है और यह परमात्मा की ओर ले जाता है। जिस प्रकार ट्रेन दूर से एक रोशनी के रूप में दिखाई देती है और समीप आने पर वह झिलमिलाती रोशनी के साथ दिखाई देती है। समान रूप से परम शक्तिशाली परमात्मा की अनुभूति ब्रह्म की अपेक्षा अधिक समीपस्थ होती है। 'भगवान' परमेश्वर का वह स्वरूप है जो साकार रूप में प्रकट होता है।

श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है

कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानमखिलात्मनाम्।

जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया।।

(श्रीमद्भागवतम्-10.14.55)

 "परम प्रभु जो सभी आत्माओं की आत्मा हैं वे श्रीकृष्ण के रूप में संसार के कल्याणार्थ पृथ्वी पर साकार रूप में प्रकट हुए। संसार के कल्याण के लिए भगवान अवतार रूप में अपने सब मधुर नामों, रूपों, गुणों, धामों, लीलाओं और संतों के रूप में प्रकट होते हैं। ये गुण ब्रह्म और परमात्मा में भी उसी प्रकार से प्रकट होते हैं किन्तु अव्यक्त रहते हैं जैसे कि माचिस की तीली में आग केवल तभी प्रकट होती है जब उसे माचिस की डिबिया पर चिपकी ज्वलंत स्ट्रिप पर रगड़ा जाता है। समान रूप से भगवान की सभी शक्तियाँ जोकि उसके अन्य स्वरूपों में लुप्त रहती हैं वे सब भगवान के स्वरूप में प्रकट होती हैं। भक्ति का मार्ग भगवान के परम शक्तिशाली स्वरूप की अनुभूति की ओर ले जाता है। यह भगवान की समीपस्थ अनुभूति का स्वरूप है जैसे कि रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति के सामने ट्रेन रूकने पर ट्रेन के भीतर और बाहर का दृश्य स्पष्ट दिखाई देता है। इसलिए श्लोक 18.55 में श्रीकृष्ण कहते हैं-"मुझ पुरूषोत्तम भगवान के वास्तविक स्वरूप को जिसमें मैं रहता हूँ, उसे केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।" इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए स्पष्ट करते हैं कि उनके साकार रूप की भक्ति करने वाले भक्त ही श्रेष्ठ योगी हैं।