Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥8॥

मयि–मुझमें; एव–अकेले ही; मन:-मन को; आधत्स्व-स्थिर; मयि–मुझमें; बुद्धिम्-बुद्धि; निवेशय–समर्पित करो; निवसिष्यसि-तुम सदैव निवास करोगे; मयि–मुझमें; एव–अकेले ही; अतःऊर्ध्वम्-तत्पश्चात; न कभी नहीं; संशयः-सन्देह।

Translation

BG 12.8: अपने मन को केवल मुझ पर स्थिर करो और अपनी बुद्धि मुझे समर्पित कर दो। इस प्रकार से तुम सदैव मुझ में स्थित रहोगे। इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

Commentary

 यह व्याख्या करने के पश्चात कि भगवान के साकार रूप की आराधना सर्वोत्कृष्ट है अब श्रीकृष्ण यह व्याख्या करना आरम्भ करते हैं कि उनकी आराधना कैसे की जाए। वे अर्जुन को दो उपदेशों का पालन करने के लिए कहते हैं। एक तो वह अपना मन उनमें स्थिर करें और अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित कर दें। मन का कार्य कामनाएँ, आकर्षण और द्वेष उत्पऊ करना है। बुद्धि का कार्य विचार, विश्लेषण और विभेद करना है। वैदिक ग्रथों में मन के महत्त्व का बार-बार वर्णन किया गया है।

चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम्।

गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ।। 

(श्रीमदभागवतम्-3.25.15) 

"माया के बंधन में रहना या माया से मुक्त रहना इसका निश्चय मन ही करता है। यदि मन संसार में आसक्त है तब मनुष्य माया के बंधन में बंध जाता है और यदि मन संसार से विरक्त हो जाता है तब मनुष्य माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।"

मनेव मनुष्यानम् कारणम् बंध मोक्ष्योः। 

(पंचदशी) 

"बंधन और मोक्ष मनःस्थिति द्वारा निर्धारित होते है। केवल शारीरिक भक्ति ही पर्याप्त नहीं है। हमें अपने मन को भगवान के चिंतन में लीन करना चाहिए क्योंकि मन को तल्लीन किए बिना मात्र इन्द्रियग्राही गतिविधियों का कोई महत्त्व नहीं होता। उदाहरणार्थ यदि हम कोई प्रवचन सुनते हैं किन्तु यदि मन कहीं अन्यत्र भटकता है तब हमें यह बोध नहीं होता कि हमने क्या सुना। हमारे कानों में शब्द तो पड़ते हैं किन्तु वह हृदय में प्रविष्ट नहीं होते। यह दर्शाता है कि मन की तल्लीनता के बिना इन्द्रियों के कार्य निरर्थक हैं। दूसरे शब्दों में मन एक ऐसा यंत्र है जिसमें सभी इन्द्रियाँ सूक्ष्म रूप से रहती हैं। इसलिए यहाँ तक कि वास्तविक क्रियाओं के बिना भी मन रूप, गंध, स्वाद, स्पर्श और शब्द के बोध का अनुभव करता है। उदाहरणार्थ जब हम रात को सो जाते हैं उस समय हमारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं फिर भी जब हम स्वप्न देखते हैं तब हमारा मन सभी इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है। इससे सिद्ध होता है कि मन स्थूल इन्द्रियों के बिना भी सभी धारणाओं को अनुभव करने में समर्थ होता है। इसलिए जब भगवान हमारे कर्मों का लेखा-जोखा रखता है तब वह हमारे मानसिक विचारों को महत्त्व देते हैं न कि शारीरिक कार्यों को। फिर भी मन से परे बुद्धि है। हम अपने मन को भगवान में तभी स्थिर कर सकते हैं जब हम अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित करते हैं। भौतिक जगत में भी जब विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में हमारी बुद्धि समर्थ नहीं होती। तब हम अपने से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। उदाहरणार्थ अस्वस्थ होने पर हम डॉक्टर के पास जाते हैं क्योंकि हमें स्वयं आयुर्विज्ञान की जानकारी नहीं होती और इसलिए हमें योग्य मेडिकल डाक्टर के परामर्श की आवश्यकता पड़ती है। डॉक्टर हमारे लक्षणों और चिकित्सा रिपोर्टों की जांच कर रोग का पता लगाता है और फिर तब वह औषधि देता है। समान रूप से जब हम किसी कानूनी प्रकरण में फंस जाते हैं तब हम वकील की सहायता लेते हैं। वकील हमें यह सिखाता है कि किस प्रकार से विरोधी पक्ष के वकील के प्रश्नों का उत्तर देना है। कानून की जानकारी न होने के कारण हमें वकील को अपनी बुद्धि का समर्पण करना पड़ता है और हम केवल उसके मार्गदर्शन पर चलते हैं। समान रूप से वर्तमान में हमारी बुद्धि कई विकारों से ग्रस्त है।

श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाते समय कंस के दूत अक्रूर, बुद्धि के इन्हीं दोषों का वर्णन करते हुए कहते हैं-

अनित्यानात्मदुः खेषु विपर्ययमतिमुहम्। 

(श्रीमद्भागवतम्-10.40.25)

 अक्रूर ने कहा-"हमारी बुद्धि अनुचित ज्ञान की पट्टी से बंधी है। यद्यपि हम शाश्वत जीवात्माएँ हैं किन्तु हम केवल अपनी नश्वर देह की चिंता करते हैं। यद्यपि संसार के सभी पदार्थ नश्वर हैं किन्तु हम यह सोचते हैं कि ये सदा हमारे साथ रहेंगे और इसलिए हम दिन-रात उनका संचय करने में रत रहते हैं किन्तु आगे जाकर अंततः इन्द्रिय सुख का परिणाम दुखदः होता है किन्तु फिर भी हम इस आशा से इनके पीछे भागते रहते हैं कि इनसे हमें सुख प्राप्त होगा।" हमारी बुद्धि के उपर्युक्त तीन विकारों को 'विपर्यय' या लौकिक भ्रम के कारण 'ज्ञान विपर्यय' अर्थात परिवर्तन कहते हैं। इससे हमारी समस्या की गंभीरता में बढ़ोतरी होती है क्योंकि हमारी बुद्धि अनंत पूर्व जन्मों से इस प्रकार दुर्विचारों को ग्रहण करने की आदी होती है। यदि हम अपनी बुद्धि के निर्देशानुसार अपना जीवन यापन करते हैं तब हम निश्चित रूप से दिव्य आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होने में अधिक प्रगति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार यदि हम भगवान में मन को अनुरक्त कर आत्मिक सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उन्हें अपनी बुद्धि का समर्पण और उनके उपदेशों का पालन करना चाहिए। बुद्धि का समर्पण करने का अभिप्राय धार्मिक ग्रथों और प्रामाणिक गुरु के माध्यम से प्राप्त भगवद्प्राप्ति के ज्ञान के अनुसार ही चिंतन करने से है।