Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 5

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥5॥

ऋषिभिः-महान ऋषियों द्वारा; बहुधा–अनेक प्रकार से; गीतम्-वर्णित; छन्दोभिः-वैदिक मन्त्रो में; विविधो:-विविध प्रकार के; पृथक्-अलग-अलग; ब्रह्म-सूत्र-वेदान्त के सूत्र; पदैः-स्त्रोतों द्वारा; च-भी; एव-विशेष रूप से; हेतु-मद्भिः-तर्क सहित; विनिश्चितैः-निर्णयात्मक साक्ष्यों।

Translation

BG 13.5: महान ऋषियों ने अनेक रूप से क्षेत्र का और क्षेत्र के ज्ञाता के सत्य का वर्णन किया है। इसका उल्लेख विभिन्न वैदिक स्रोतों और विशेष रूप से ब्रह्मसूत्र में ठोस तर्क और निर्णयात्मक साक्ष्यों के साथ प्रकट किया गया है।

Commentary

ज्ञान बुद्धि को तभी आकर्षित करता है जब उसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट, सटीक और ठोस तर्कों सहित की जाती है। आगे इसे अमोघ रूप से स्वीकार करने के प्रयोजन हेतु इसकी पुष्टि अमोघ प्राधिकारी द्वारा करना आवश्यक है। आध्यात्मिक ज्ञान की मान्यता और प्रामाणिकता के लिए वेदों का संदर्भ दिया जाता है। वेद यह केवल कुछ पुस्तकों का नाम नहीं है। वेद भगवान का शाश्वत ज्ञान हैं। जब भगवान संसार की सृष्टि करते हैं तब वे जीवात्माओं के कल्याण के लिए वेदों को प्रकट करते हैं। 

बृहदारण्यकोपनिषद् (4.5.11) में वर्णन है “निःश्वासितमस्या वेदः" अर्थात वेद भगवान की श्वास से प्रकट हुए हैं।" सर्वप्रथम भगवान ने इनका ज्ञान प्रथम जन्मे ब्रह्मा के हृदय में प्रकट किया। वहाँ से वे 'श्रुति' परम्परा द्वारा नीचे पृथ्वी पर आए इसलिए इनको दूसरा नाम 'श्रुति' दिया गया अर्थात 'श्रवण द्वारा प्राप्त ज्ञान।' कलियुग के आरम्भ में महर्षि वेदव्यास जो स्वयं भगवान का अवतार थे, उन्होंने वेदों को ग्रंथ का रूप दिया और ज्ञान की एक शाखा को चार भागों-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में विभाजित किया। इसलिए उनका नाम वेदव्यास कहलाया अर्थात 'वह जिन्होंने वेदों का विभाजन किया।' यह ध्यान रखना चाहिए कि वेदव्यास को कभी वेदों के संपादक के रूप में उद्धृत नहीं किया गया अपितु उनका नाम वेदों का विभाजन करने वाले के रूप में लिया जाता है। इसलिए वेदों को अपौरुषये कहा जाता है जिसका अर्थ है कि 'किसी व्यक्ति द्वारा रचित न होना।'

भूतम् भव्यं भविष्यं च सर्वमं वेदांत प्रसिध्यति 

(मनुस्मृति-12.97)

 "कोई भी आध्यात्मिक सिद्धान्त वेदों के विधान के अंतर्गत अवश्य प्रामाणिक होना चाहिए। वेदों के ज्ञान के विस्तार के लिए कई ऋषियों ने ग्रंथ लिखे और वे परंपरागत रूप में वैदिक ग्रंथों के समूह में सम्मिलित हो गये क्योंकि वे वेदों के प्राधिकार के अनुरूप थे। कुछ महत्त्वपूर्ण वैदिक ग्रंथों का विवरण निम्नांकित है। 

इतिहासः ये ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। इनकी संख्या दो है-एक रामायण और एक महाभारत। इनमें दो महान अवतारों के इतिहास का वर्णन है। रामायण की रचना ऋषि वाल्मीकि ने की थी और इसमें भगवान राम की लीलाओं का वर्णन किया गया है। यह आश्चर्यजनक है कि वाल्मीकि ने इसकी रचना भगवान श्रीराम की लीलाओं के प्रदर्शन से पूर्व की थी। महाऋषि वाल्मीकि दिव्य दृष्टि से सम्पन्न थे जिसके द्वारा वे संसार में भगवान राम द्वारा अवतार लेने से पूर्व राम के अवतार काल में प्रदर्शित होने वाली लीलाओं को पहले से देख सके। उन्होंने रामायण में लगभग 24000 अति सुन्दर श्लोक संस्कृत में लिखे। इन श्लोकों में विभिन्न सामाजिक भूमिकाओं जैसे कि पुत्र, भाई, पत्नी, राजा और विवाहित युगलों के लिए आदर्श आचरण की शिक्षा भी निहित है। रामायण भारत की कई क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखी गयी जिससे जनमानस में इसकी लोकप्रियता बढ़ती गयी। इनमें से सबसे अधिक लोकप्रिय रामायण परम रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अवधी में रचित रामचरितमानस है। 

ऋषि वेदव्यास ने महाभारत की रचना की। इसमें एक लाख श्लोक हैं और इसे विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य माना गया है। श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाएँ महाभारत का मूल विषय हैं। इसमें भरपूर ज्ञान और पथ प्रदर्शन है। महाभारत में मानव जीवन की सभी अवस्थाओं से संबंधित कर्त्तव्यों का भरपूर ज्ञान, पथ प्रदर्शन और भगवान की भक्ति का विस्तृत विशद वर्णन किया गया है। भागवद्गीता महाभारत का एक भाग है। यह हिन्दुओं का अति लोकप्रिय ग्रंथ है क्योंकि इसमें आध्यात्मिक ज्ञान का सार निहित है जिसका अति सुन्दर और विशद वर्णन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने किया है। इसका विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। भगवद्गीता पर असंख्य भाष्य लिखे गये हैं। 

पुराणः महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराण लिखे। इन सब में कुल चार लाख श्लोक हैं। इनमें भगवान द्वारा विभिन्न रूपों में लिए गए अवतारों की दिव्य लीलाओं और उनके भक्तों का वर्णन है। पुराणों में भरपूर तत्त्वज्ञान है। ये ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और उसके संहार तथा पुनः सृष्टि सृजन, मानव जाति के इतिहास, स्वर्ग के देवताओं और पवित्र संतों की वंशावली का वर्णन करते हैं। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण भगवत्पुराण या श्रीमद्भागवतम् है। यह वेदव्यास द्वारा रचित अंतिम ग्रंथ है जिसमें उन्होंने यह उल्लेख किया है कि वे इस ग्रंथ में भगवान के शुद्ध और निष्काम प्रेम के परम धर्म को प्रकट कर रहे हैं। तात्विक दृष्टि से जहाँ भगवद्गीता समाप्त होती है वहीं श्रीमद्भागवतम् आरम्भ होती है। 

षट दर्शनः ये वैदिक ग्रंथों के अगले महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। छः ऋषियों ने हिन्दू दर्शन के विशेष पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले छः ग्रंथों की रचना की। इन्हें षटदर्शन या छः दर्शन शास्त्र के नाम से जाना जाता है। 

1. मीमांसाः जैमिनि महर्षि द्वारा रचित इस ग्रंथ में धार्मिक रीति रिवाजों, कर्त्तव्यों और धर्मानुष्ठानों का वर्णन किया गया है। 

2. वेदान्त दर्शनः वेदव्यास द्वारा रचित इस दर्शन में परम सत्य की प्रकृति का वर्णन किया गया

3. न्याय दर्शनः महर्षि गौतम द्वारा रचित इस दर्शन में जीवन और परम सत्य को जानने की

पद्धति का निरूपण किया गया है। 

4. वैशेषिक दर्शनः महर्षि कणाद द्वारा लिखित यह दर्शन ब्रह्माण्ड विज्ञान और सृष्टि का तथा

इसके विभिन्न तत्त्वों के परिप्रेक्ष्यों से विश्लेषण करता है। 

5. योग दर्शनः महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित इस दर्शन में शारीरिक योगासनों से आरम्भ करते

हुए अष्टांग योग के अनुपालन द्वारा भगवान के साथ एकत्व स्थापित करने के सबंध में

वर्णन किया गया है। 

6. सांख्य दर्शनः महर्षि कपिल द्वारा रचित इस दर्शन में प्रकृति, जो भौतिक शक्ति का आदि रूप है, द्वारा ब्रह्माण्ड के क्रमिक विकास और प्राकृत शक्ति के मूल तत्त्वों का वर्णन किया गया है। 

उपर्युक्त उल्लिखित ग्रंथों के अलावा हिन्दू परम्परा में अन्य सैकड़ों ग्रंथ हैं। यहाँ इन सबका वर्णन करना संभव नहीं है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि वैदिक ग्रंथ भगवान और संतों द्वारा प्रकट मानव जाति के नित्य कल्याणार्थ दिव्य ज्ञान की अथाह निधि हैं।

इन धार्मिक मूल ग्रंथों में ब्रह्म सूत्र (वेदान्त दर्शन) को आत्मा, भौतिक शरीर और परमात्मा में भेद के विषय पर अंतिम वाक्य माना गया है जिसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने ऊपर श्लोक में विशेष रूप से किया है। 'वेद' वेदों को उद्धत करता है और अन्त का अर्थ 'विश्लेषण करना' है। परिणामस्वरूप वेदान्त से तात्पर्य 'वैदिक ज्ञान के विश्लेषणात्मक अध्ययन' से है। यद्यपि वेदान्त दर्शन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित है किन्तु फिर भी कई महान विद्वानों ने इसे दार्शनिक तर्क वितर्क के संदर्भ सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार किया और इस पर भाष्य लिखे ताकि आत्मा और परमात्मा के संबंध में अद्वितीय दार्शनिक दृष्टिकोण स्थापित किए जा सकें। जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा वेद दर्शन पर लिखा गया भाष्य शारीरिक भाष्य के नाम से जाना जाता हैं जो अद्वैतवादी दर्शन परम्परा की नींव रखता है। उनके अनुयायियों में कई जैसे वाचस्पति और पद्यपाद ने इस पर विस्तार से अपनी टिप्पणियाँ लिखी हैं। जगद्गुरु निम्बार्काचार्य ने 'वेदांत पारिजात सौरभ' लिखा जिसमें द्वैत-अद्वैतवाद की विचारधारा की व्याख्या की गयी है। जगद्गुरु रामानुजाचार्य के भाष्य को "श्री भाष्य' कहा जाता है जो विशिष्ट-अद्वैतवाद पद्धति के दर्शन का आधार व्यक्त करता है। जगद्गुरु माध्वाचार्य द्वारा लिखा गया भाष्य 'ब्रह्मसूत्र भाष्यम' कहलाता है जो द्वैतवाद के सिद्धान्त की नींव है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अणु भाष्य लिखा जिसमें शुद्ध द्वैतवाद दर्शन की विचारधारा को स्थापित किया गया। इसके अतिरिक्त अन्य प्रसिद्ध भाष्यकार भट भास्कर, यादव प्रकाश, केशव, नीलकंठ, विजनान भिक्षु और बलदेव विद्या भूषण हैं। 

चैतन्य महाप्रभु स्वयं वैदिक विद्वान थे परन्तु उन्होंने वेदांत दर्शन पर कोई भाष्य नहीं लिखा। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महर्षि वेदव्यास ने स्वयं घोषित किया कि उनका अंतिम ग्रंथ श्रीमद्भागवत ही इसका पूर्ण भाष्य है।

अर्थोंयम् ब्रह्मासूत्राणं सर्वोपनिषदामपि

 "श्रीमद्भागवतम् में वेदान्त दर्शन और सभी उपनिषदों का सार और अर्थ प्रकट हुआ है।" इसलिए वेदव्यास के प्रति श्रद्धाभाव और सम्मान के कारण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं को वेदान्त पर अलग से अन्य भाष्य लिखने के योग्य नहीं समझा।