Bhagavad Gita: Chapter 14, Verse 22-23

श्रीभगवानुवाच।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥23॥

श्रीभगवान् उवाच-परम प्रभु ने कहा; प्रकाशम् प्रकाश; च–तथाप्रवृत्तिम्-कार्य रूप; च-तथा; मोहम्-मोह; एव-भी; च-और; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुनः न-द्वेष्टि-घृणा नहीं करता; सम्प्रवृत्तानि-जब प्रकट होते हैं; न-निवृत्तानि-न रुकने पर जब अप्रकट होते हैं; काड क्षति-आकांक्षा करना; उदासीनवत्-तटस्थ; आसीनः-स्थित; गुणैः-प्राकृत शक्ति के गुणों द्वारा; य:-जो; न कभी नहीं; विचाल्यते विक्षुब्ध होना; गुणा:-प्राकृतिक गुण; वर्तन्ते-कर्म करना ; इति-एवम्-इस प्रकार जानते हुए; यः-जो; अवतिष्ठति-आत्म स्थित है; न कभी नहीं; इङ्गते–विचलित;

Translation

BG 14.22-23: परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा-हे अर्जुन! तीनों गुणों से गुणातीत मनुष्य न तो प्रकाश, (सत्वगुण से उदय) न ही कर्म, (रजोगुण से उत्पन्न) और न ही मोह (तमोगुण से उत्पन्न) की बहुतायत उपलब्धता होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं। वे गुणों की प्रकृति से तटस्थ रहते हैं और उनसे विक्षुब्ध नहीं होते। वे यह जानकर कि केवल गुण ही क्रियाशील हैं, इसलिए वे बिना विचलित हुए आत्म स्थित रहते हैं।

Commentary

श्रीकृष्ण अब तीनों गुणों से परे हो चुके मनुष्यों के लक्षणों को स्पष्ट करते हैं। जब वे देखते हैं कि संसार में गुण कार्य कर रहे हैं और व्यक्तियों, पदार्थों और आस-पास की परिस्थितियों में उनके प्रभाव प्रकट हो रहे हैं तब भी वे उनसे विक्षुब्ध नहीं होते। प्रबुद्ध व्यक्ति जब अज्ञानता के संपर्क में आते है तब वे उससे घृणा नहीं करते और उसमें फंसते भी नहीं हैं। लौकिक मानसिकता युक्त व्यक्ति संसारिक विषयों की अत्यधिक चिंता करते हैं। वे अपना समय और ऊर्जा संसार के पदार्थों और संसार में घट रही घटनाओं के चिंतन में लगाते हैं। दूसरी ओर प्रबुद्ध आत्माएँ मानव कल्याण के लिए भी प्रयास करती हैं। वे ऐसा इसलिए करती है क्योंकि उनका स्वभाव दूसरों की सहायता करना होता है। एक ही समय में वे अनुभव करती हैं कि संसार अंततः भगवान के हाथों में है। उन्हें केवल अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने दायित्वों का भली-भांति निर्वहन करना चाहिए और शेष सब भगवान पर छोड़ देना चाहिए। संसार में आकर हमारा प्रथम कर्त्तव्य यह है कि हम स्वयं को कैसे शुद्ध करें। तब फिर शुद्ध मन के साथ हम स्वाभाविक रूप से उत्तम और संसार के लिए लाभदायक कार्य करेंगे। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था-"वह परिवर्तन लाओ जिसे तुम संसार में देखना चाहते हो।" 

श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्ति स्वयं को गुणों की क्रियाशीलता से परे मानते हैं। जब प्रकृति के गुण अपनी प्रवृत्ति के अनुसार संसार में कार्यों को सम्पन्न करते हैं तब वे न तो दुखी और न ही हर्षित होते है। वास्तव में जब वे इन गुणों को अपने मन में भी देखते हैं तब भी वे विचलित नहीं होते। मन प्राकृत शक्ति से निर्मित है और माया के तीनों गुण उसमें निहित होते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मन को इन गुणों और इनके समरूप विचारों के प्रभुत्व में रहना पड़ता है। 

समस्या यह है कि शारीरिक चेतना के कारण हम मन को अपने से अलग नहीं समझते और इसलिए जब मन क्षुब्ध करने वाले विचार प्रस्तुत करता है तब हम अनुभव करते हैं-"ओ, मैं नकारात्मक दृष्टिकोण से सोच रहा हूँ।" हम विषाक्त विचारों से जुड़ते है और उन्हें अपने भीतर प्रश्रय देने की और स्वयं को क्षति पहुँचाने की अनुमति देते हैं। इसकी अति ऐसी होती है कि जब हमारा मन भगवान और गुरु के विरुद्ध विचार प्रस्तुत करता है तब हम उन्हें अपने विचार मान लेते हैं। उस समय हमें मन को अपने से अलग इकाई के रूप में देखना चाहिए, तभी हम नकारात्मक विचारों से स्वयं को आबद्ध करने के योग्य हो सकेंगे। तब फिर हम मन के ऐसे विचारों को इस प्रकार से अस्वीकार करेंगे। “मैं ऐसे विचारों को कोई महत्त्व नही दूंगा जो मेरी भक्ति के लिए सहायक नहीं हैं।" लोकातीत अवस्था को प्राप्त मनुष्य गुणों के प्रभाव से मन में उठने वाले सभी नकारात्मक विचारों से दूरी बनाए रखने की कला में पारंगत होता है।