Bhagavad Gita: Chapter 15, Verse 5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥5॥

निः-से मुक्त; मान-अभिमान; मोहा:-मोह; जित-वश में करना; सडग-आसक्ति; दोषा:-बुराइयाँ अध्यात्म-नित्याः-निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहना; विनिवृत्त से मुक्त; कामा:-विषय भोगों की लालसा; द्वन्द्वैः-द्वैत से; विमुक्ताः-मुक्त; सुख-दुःख-सुख तथा दुख; संज्ञैः-जाने जाते हैं; गच्छन्ति–प्राप्त करते हैं; अमूढाः-मोहरहित; पदम्-लोक; अव्ययम्-अविनाशी; तत्-उस।

Translation

BG 15.5: वे जो अभिमान और मोह से मुक्त रहते हैं एवं जिन्होंने आसक्ति की बुराई पर विजय पा ली है, जो निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहते हैं, जो इन्द्रिय भोग की कामना से मुक्त रहते हैं और सुख-दुख के द्वन्द्वों से परे हैं, ऐसे मुक्त जीव मेरा नित्य ध मि प्राप्त करते हैं।

Commentary

श्रीकृष्ण अब बताते हैं कि इस वृक्ष के आधार, जो स्वयं भगवान हैं, की शरणागति कैसे प्राप्त करें। वे कहते हैं कि मनुष्य को सर्वप्रथम अज्ञानता से उत्पन्न अभिमान का त्याग करना चाहिए। वर्तमान जीवन में देहधारी जीव भ्रम के कारण यह सोचता हैं कि "मैं सब का स्वामी हूँ जो कुछ भी मेरे स्वामित्व में है भविष्य में मेरे पास उसमें और अधिक होगा। यह सब कुछ मेरे सुख के लिए है।" जब तक हम अज्ञानता से उत्पन्न घमण्ड के नशे में चूर रहते हैं तब तक हम स्वयं को भौतिक सुखों का भोक्ता समझते हैं। ऐसी अवस्था में हम भगवान का अनादर करते हैं और भगवान की इच्छा के सम्मुख समर्पित हाने की इच्छा नहीं करते। ज्ञान की सहायता से हमें स्वयं को भोक्ता मानने की अनुचित धारणा का त्याग करना चाहिए। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि भौतिक सुखों और पदार्थों का संबंध भगवान से है और ये सब उनकी सेवा के लिए हैं। आत्मा भगवान की दासी है इसलिए इन्द्रिय विषयों को भोगने की पहली मनोवृत्ति को सेवा की मनोभावना में परिवर्तित कर देना चाहिए। इसके लिए हमें सांसारिक आसक्तियों का उन्मूलन करना चाहिए जो हमारे मन को संसार में आसक्त और भगवान से विमुख करती हैं। इसके स्थान पर हमें निष्काम सेवा भावना से मन को भगवान में अनुरक्त करना चाहिए और स्वयं की वास्तविक प्रकृति को भगवान का शाश्वत दास समझना चाहिए। पद्मपुराण में वर्णन है

दास भूतमिदम् तस्य जगतस्थावर जंगमम्

श्रीमन्नारायण स्वामी जगतानप्रभुर्शीवरः 

"परम प्रभु नारायण इस संसार के नियामक और स्वामी हैं। सभी चर और अचर तथा सृष्टि की सभी अभिव्यक्तियाँ उनकी सेवक हैं।" इसलिए हम जितनी भगवान की सेवा की इच्छा करते हैं उतना ही प्रकृति के भोक्ता होने का हमारा भ्रम दूर होगा और हृदय शुद्ध होगा। कृपालु जी महाराज हृदय की शुद्धता के लिए इसे अपेक्षाकृत शक्तिशाली साधन मानने पर बल देते हैं

सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।

बढ़वहु सेवा-वासना, यह सौ ज्ञानन ज्ञान।। 

(भक्ति शतक-74) 

"शुद्धिकरण के लिए सैकड़ों परामर्शों में से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि मन को मुरली मनोहर श्रीकृष्ण में तल्लीन किया जाए और उनकी सेवा करने की इच्छा बढ़ायी जाय। यह परामर्श ज्ञान के हजारों रत्नों से महत्वपूर्ण है।" एक बार जब हम अपने ईश्वरीय हृदय को शुद्ध कर लेते हैं और भगवान की प्रेममयी सेवा में स्थित हो जाते हैं तब क्या होता है? श्रीकृष्ण उपर्युक्त श्लोक में वर्णन करते हैं कि ऐसी सिद्ध आत्माएँ शेष अनन्त काल के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में जाती है। जब भगवचेतना की अवस्था प्राप्त हो जाती है तब भौतिक क्षेत्र का आगे कोई महत्व नहीं रहता। फिर आत्मा अन्य भगवद् अनुभूत आत्माओं के साथ भगवान के दिव्यलोक में निवास करने के योग्य हो जाती है जैसे कारागार किसी नगर के एक छोटे से भू-भाग पर स्थित होता है वैसे समस्त भौतिक क्षेत्र भगवान की सारी सृष्टि का एक चौथाई भाग है जबकि आध्यात्मिक क्षेत्र तीन चौथाई है। वेद में वर्णन है

पादोस्य विश्वा भूतानि, त्रिपादस्य अमृतं दीवि 

(पुरुष सुक्तम मंत्र-3) 

अस्थायी संसार भौतिक शक्ति से निर्मित है लेकिन यह सृष्टि का एक भाग है। अन्य तीन भाग जन्म और मृत्यु से परे भगवान के नित्य लोक हैं। श्रीकृष्ण अगले श्लोक में भगवान के नित्य धाम की व्याख्या करते हैं।