Bhagavad Gita: Chapter 16, Verse 1-3

श्रीभगवानुवाच।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥1॥
अहिंसा सत्यमक्रोधास्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥2॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥3॥

श्रीभगवानुवाच–पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा; अभयम्-निडर; सत्त्व-संशुद्धिः-मन की शुद्धि ज्ञान-सत्य ज्ञान; योग–अध्यात्मिक; व्यवस्थिति:-दृढ़ता; दानम्-दान; दमः-इन्द्रियों पर नियंत्रण; च-और; यज्ञः-यज्ञ का अनुष्ठान; च-और; स्वाध्यायः-धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन; तपः-तपस्या; आर्जवम्-स्पष्टवादिता; अहिंसा-अहिंसा; सत्यम्-सत्यता; अक्रोधः-क्रोध से मुक्ति; त्यागः-त्याग; शन्तिः शान्तिप्रियता; अपैशुनम्-दोषारोपण से दूर; दया करुणा; भूतेषु-सभी जीवों के प्रति; अलोलुप्त्वम्-लोभ से मुक्ति; मार्दवम्-भद्रता; ह्री:-लज्जा; अचापलम्-अस्थिरहीनता; तेजः-शक्ति; क्षमा क्षमाः धृतिः-धैर्य; शौचम्-पवित्रता; अद्रोहः-दूसरों के प्रति ईर्ष्याभाव से मुक्ति; न नहीं; अतिमानिता–प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त; भवन्ति हैं; सम्पदम्-गुण; दैवीम् दिव्य स्वभाव; अभिजातस्य–से संपर्क; भारत-हे भरतपुत्र।

Translation

BG 16.1-3: परम पुरुषोत्तम भगवान् ने कहाः हे भरतवंशी! निर्भयता, मन की शुद्धि, अध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, तपस्या और स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधहीनता, त्याग, शांतिप्रियता, दोषारोपण से मुक्त, सभी जीवों के प्रति करूणा भाव, लोभ से मुक्ति, भद्रता, लज्जा, अस्थिरहीनता, शक्ति, क्षमाशीलता, धैर्य, पवित्रता किसी के प्रति शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होना, ये सब दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों के दैवीय गुण हैं।

Commentary

यहाँ श्रीकृष्ण दैवीय प्रकृति के छब्बीस गुणों का वर्णन करते हैं। हमें स्वयं को उन्नत करने और परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तथा अपने आध्यात्मिक अभ्यास के अंग के रूप में इन गुणों का पोषण करना चाहिए। 

निर्भयताः यह वर्तमान और भविष्य के दुखों की चिन्ता से मुक्त होने की अवस्था है। किसी प्रकार की अत्यधिक आसक्ति भय का कारण होती है। धन संपदा में आसक्ति घोर दरिद्रता की ओर ले जाती है, सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति आसक्ति अपयश के भय का कारण होती है, दुर्व्यसनों में आसक्ति पाप के परिणामों की चिंता का भय उत्पन्न करती है और शरीर के सुखों आदि के प्रति आसक्ति से अस्वस्थ होने का भय सताता है। अतः विरक्ति और भगवान की शरणागति हृदय से सभी भयों को नष्ट करती है। 

मन की शुद्धिः यह आंतरिक शुद्धिकरण की स्थिति है। मन विचारों, कल्पनाओं, अनुभूतियों, भावुकता आदि को जन्म और प्रश्रय देता है। जब यह नैतिक, स्वास्थ्यकर, सकारात्मक और उन्नत होते हैं तब मन शुद्ध हो जाता है और जब ये अनैतिक और निंदात्मक होते हैं तब मन को अशुद्ध माना जाता है। मोह के कारण भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति और अज्ञानता मन को दूषित करती है जबकि भगवान में प्रीति मन को शुद्ध करती है। 

आध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ताः यह कहा जाता है कि "तत्त्व विस्मरणात भेकिवत" अर्थात "जब मनुष्य यह विस्मृत कर देता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है तब वह पशु बन जाता है।" इसलिए अध्यात्मिक सिद्धांतो के प्रति दृढ़तापूर्वक जागरूक रहने के सदाचार के पथ का निर्माण करना चाहिए। दान पुण्यः इसका तात्पर्य अपने स्वामित्व की धन-सम्पदा आदि को शुभ कार्य के लिए दान करने या अभावग्रस्त लोगों को प्रदान करने से है। वास्तविक दान वही है जो न केवल श्रेष्ठता की भावना से मुक्त होकर किया जाए बल्कि इसे भगवान द्वारा प्रदत्त सहायता का अवसर समझ कर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की भावना से करना चाहिए। द्रव्य का दान शरीर के पालन पोषण हेतु किया जाता है जिससे दूसरों को अस्थायी सहायता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक दान आत्मा के स्तर पर किया जाता है जो उन सभी प्रकार के दुखों के कारणों का निवारण करने में सहायता करता है जो भगवान से विमुख होने के कारण सहन करने पड़ते हैं। इसे भौतिक दान से श्रेष्ठ माना जाता है। 

इन्द्रिय संयमः मन को गहनता से सांसारिक मोह में डालने में इन्द्रियाँ कुख्यात रूप से कुशल होती हैं। ये जीवों को शीघ्र तृप्ति के लिए उकसाती हैं इसलिए धर्म के मार्ग का अनुसरण करने के लिए और परम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु तुच्छ इन्द्रिय सुखों का त्याग करना आवश्यक है। इस प्रकार से इन्द्रियों पर संयम रखना भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर चलने का अनिवार्य गुण है। 

यज्ञ परायणताः इसका तात्पर्य वैदिक कर्त्तव्यों और सामाजिक दायित्वों का पालन करने से है। भले ही ये आनन्ददायक न हो। यज्ञों को तभी परिपूर्ण माना जाता है जब इन्हें भगवान के सुख के लिए संपन्न किया जाता है। 

पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करनाः दिव्य गुणों को विकसित करने का महत्वपूर्ण दृष्टिकोण शास्त्रों के उन्नत ज्ञान द्वारा बुद्धि को पोषित करना है। जब बुद्धि उपयुक्त ज्ञान से प्रकाशित हो जाती है तब मनुष्य के कर्म स्वतः उत्कृष्ट हो जाते हैं। 

तपस्याः मन, शरीर और इन्द्रियों की प्रवृत्ति ऐसी होती हैं कि यदि हम इन्हें संतुष्ट करते हैं तब ये और अधिक आनन्द प्राप्त करने की लालसा करते हैं और यदि हम इन पर अंकुश लगाते हैं तब ये अनुशासित हो जाते हैं। इस प्रकार तपस्या शरीर, मन और बुद्धि को शुद्ध करने के लिए कष्ट सहन करने की स्वैच्छिक स्वीकृति है। 

अहिंसाः इसका तात्पर्य अन्य लोगों के प्रगतिशील जीवन में विचारों, वाणी और कर्मों द्वारा बाधा न पहुँचाने से है। 

स्पष्टवादिताः वाणी और आचरण में निष्कपटता मन को सुव्यवस्थित करती है और श्रेष्ठ विचारों को अंकुरित करती है। अंग्रेजी कहावत 'सादा जीवन उच्च विचार' स्पष्टवादिता के गुण के लाभों को समुचित रूप से चित्रित करती है। 

सत्यताः इसका अर्थ अपने उद्देश्य की अनुकूलता के लिए तथ्यों का विरूपण करने से स्वयं को नियंत्रित करना है। भगवान परम सत्य हैं और इसलिए सत्य परायणता का अभ्यास हमें उसकी ओर ले जाता है जबकि दूसरी ओर झूठ भले ही लाभदायक हो सकता है लेकिन हमें भगवान से विमुख करता है। 

क्रोध मुक्त होनाः क्रोध प्रकट करना भौतिक मन का विकार है। यह तब उत्पन्न होता है जब सुख की कामनाओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है और परिस्थितियाँ हमारी अपेक्षाओं और कल्पनाओं के अनुकूल नहीं होती। विरक्ति भाव को विकसित कर और भगवान की इच्छा के सम्मुख समर्पण करने से कोई भी क्रोध को वश में कर सकता है। 

त्यागः सभी प्रकार की भौतिक ऊर्जा का संबंध भगवान से और भगवान के सुख के लिए है। इसलिए संसार के वैभव किसी के उपभोग के लिए नहीं हैं बल्कि भगवान की सेवार्थ उपभोग करने के लिए हैं। इसी ज्ञान में स्थित होना त्याग है। 

शांतिप्रियताः सद्गुणों को पोषित करने के लिए मानसिक शांति आवश्यक है। शांतिप्रियता में बाह्य परिस्थितियों की आकुलता के बावजूद आंतरिक संतुलन बनाए रखने की क्षमता होती है। 

दोषारोपण से बचनाः संपूर्ण संसार और इसके सभी पदार्थ कुछ गुणों और दुर्गुणों का मिश्रण हैं। दूसरों में दोष ढूंढने से मन मलीन होता है और दूसरों में गुण देखने से मन शुद्ध होता है। संत महापुरुषों की प्रकृति अपने भीतर अवगुणों और दूसरों में गुणों का अवलोकन करने की होती है। 

सभी जीवों के प्रति करुणाः जैसे-जैसे मनुष्य अपने भीतर आध्यात्मिकता विकसित करते हैं तब वे स्वाभाविक रूप से आत्म-केंद्रित होने की भावना से ऊपर उठकर सभी जीवों के प्रति सहानुभूति का भाव विकसित करते हैं। करुणा गहन सहानुभूति है जो दूसरों के दुखों को देख कर उत्पन्न होती है। 

लोभ मुक्तिः लोभ शरीर की देखभाल के लिए किसी के द्वारा अपेक्षित आवश्यकताओं से अधिक संग्रह करने की कामना है। इसके वशीभूत होकर लोग विपुल धन-सम्पदा एकत्रित करते हैं यद्यपि वे यह जानते हैं कि मृत्यु के समय सब कुछ यहीं छूट जाएगा। इस प्रकार लोभ से मुक्ति आंतरिक शांति की ओर ले जाती है। 

भद्रताः दूसरों के साथ रूखा व्यवहार करने की प्रवृत्ति उनकी भावनाओं के प्रति संवेदन शून्यता के कारण उत्पन्न होती है। लेकिन जैसे-जैसे कोई आध्यात्मिक महत्ता विकसित करता है तब वह स्वाभाविक रूप से अपने अशिष्ट आचरण को त्याग देता है। सौम्यता आध्यात्मिक परिष्कार का लक्षण है। 

लज्जाः ह्वीर का अर्थ 'शास्त्रों और समाज की आज्ञाओं के विरुद्ध कर्म करने के लिए अपराध बोध होने से है।' संत महापुरुषों की प्रकृति निष्ठुर अंतरात्मा से सराबोर होती है जो पापजन्य कर्मों के लिए मनुष्य को आत्मग्लानि का बोध कराती है। 

अस्थिरहीनताः किसी भी कार्य का आरंभ शुद्ध भावना से करना चाहिए लेकिन यदि हम प्रलोभन या विपत्तियों से विचलित हो जाते हैं तब हम अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सकते। सत्य के पथ पर सफलता मार्ग में आने वाले विपथनों के बावजूद लक्ष्य का बिना विचलित हुए अनुशीलन करने से मिलती है। 

शक्तिः मन की शुद्धता से किसी को उच्च आदर्शों और सच्ची श्रद्धा के अनुसार कर्म करने की गहन प्रेरणा प्राप्त होती है। इसलिए संत तुल्य आत्माएँ अपने हाथ में लिए कार्य को असीम शक्ति और उत्साह के साथ सम्पन्न करती हैं। 

क्षमा और सहनशीलताः यह अन्य लोगों के अपराधों को बिना किसी प्रतिशोध की भावना से सहन करने की क्षमता है। क्षमाशीलता द्वारा कोई दूसरों द्वारा दिए गए घावों को भर लेता है अन्यथा ये सड़ने लगते हैं और मन को व्यथित करते हैं। 

धैर्यः यह प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मन और इन्द्रियों के क्लांत हो जाने पर भी लक्ष्य प्राप्त करने की आंतरिक शक्ति और दृढ़ निश्चय है। संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्य उन लोगों के द्वारा संपन्न किए गए हैं जो किसी प्रकार की आशा की किरण दिखाई न देने और परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर भी प्रयासरत रहे। श्री अरविंदो ने इसका अर्थपूर्ण वर्णन किया है-"तुम्हें कठिनाईयों से भी अधिक दृढ़ होना होगा क्योंकि अन्य कोई उपाय नहीं है।" । 

शुद्धताः इसका उल्लेख आंतरिक और बाह्य शुद्धता के लिए किया जाता है। लोग बाह्य शुद्धता बनाए रखने में विश्वास करते हैं क्योंकि यह आंतरिक शुद्धता के अनुकूल होती है। जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, "अपने हृदय को स्वच्छ और उज्ज्वल रखना उत्तम है, तुम एक झरोखा हो जिसमें तुम ब्रह्माण्ड देख सकते हो।" 

शत्रुता का भाव न रखनाः दूसरों के प्रति शत्रुता का भाव हमारे मन में विष घोलता है और यह आध्यात्मिक मार्ग की उन्नति में बाधा उत्पन्न करता है। दूसरों के प्रति विद्वेष की भावना से मुक्ति और अन्य लोगों को अपने समान समझने की भावना उनके भीतर भगवान की उपस्थिति की मनोभावना विकसित करने से प्राप्त होती है। 

घमंड रहित होनाः आत्म प्रशंसा, डींग मारना, आडंबर आदि सभी घमंड की डंठल हैं। संत महापुरुष स्वयं पर किसी प्रकार का घमंड नहीं करते बल्कि इसके स्थान पर वे अपने सद्गुणों को भगवान की देन मानते हैं। इसलिए वे अति कथन से दूर रहते हैं।