Bhagavad Gita: Chapter 16, Verse 5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥5॥

दैवी-दिव्य; सम्पत्-गुण; विमोक्षाय-मुक्ति की ओर; निबन्धाय-बन्धन; आसुरी-आसुरी गुण; मता-माने जाते हैं; मा-नहीं; शुचः-शोक; सम्पदम्-गुणों; दैवीम् दैवीय; अभिजात:-जन्मे; असि-तुम हो; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुन।

Translation

BG 16.5: दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन की नियति का कारण होते हैं। हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो।

Commentary

दो प्रकार की प्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात अब श्रीकृष्ण दोनों के परिणामों को व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि आसुरी गुण मनुष्य को जीवन और मृत्यु रूपी 'संसार' की बेड़ियों में जकड़ लेते हैं जबकि दैवीय गुणों को पोषित करने से माया के बंधनों को काटने में सहायता मिलती है। आध्यात्मिक मार्ग पर सफलतापूर्वक चलने और अंत तक इसका अनुसरण करने के लिए साधक के लिए कई बिन्दुओं पर ध्यान रखना आवश्यक होता है। यहाँ तक कि यदि कोई एक भी आसुरी गुण जैसे अभिमान, पाखंड आदि व्यक्तित्व में रह जाता है तब यह असफलता का कारण बन सकता है। इसलिए कुल मिलाकर हमें दैवीय गुणों को भी विकसित करना चाहिए। दैवीय गुणों के बिना हमारी आध्यात्मिक उन्नति पुनः पंगु हो सकती है। उदाहरणार्थ जब बिना धैर्य धारण किए हम विपत्ति आने पर अपनी यात्रा छोड़ देंगे और क्षमाशीलता के बिना मन विद्वेष के साथ बंध जाएगा तब उसमें भगवान में तल्लीन होने में क्षमता नहीं रहेगी। लेकिन यदि हम श्रीकृष्ण द्वारा निरूपित दैवीय गुणों से सम्पन्न रहते हैं तब प्रगति के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं का सामना करने के लिए हमारी क्षमता बढ़ जाएगी। इस प्रकार से सद्गुणों को विकसित करना और अवगुणों का उन्मूलन करना आध्यात्मिक अभ्यास का अभिन्न अंग है। एक उपयोगी पद्धति जो हमारी दुर्बलताओं को दूर करने में सहायता करती है वह अपने प्रतिदिन के निजी कार्यकलापों की दैनिकी (डायरी) लिखना है। कई महान और सफल लोगों ने अपने संस्मरणों और कार्य-कलापों को डायरी में लिखा ताकि उन्हें सफलता प्राप्त करने हेतु अपेक्षित गुणों को विकसित करने में सहायता मिल सके। महात्मा गांधी और बेजामिन फ्रैंकलिन दोनों ने अपनी आत्मकथाओं में ऐसी पद्धतियों का प्रयोग करने का उल्लेख किया है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि यदि हम अपने भीतर भगवान की भक्ति को पुष्ट करते हैं तब समय के साथ हम स्वाभाविक रूप से श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित दैवीय गुण प्राप्त कर लेगें। यह वास्तव में सत्य है लेकिन संभवतः ऐसा नहीं होता कि हम प्रारंभ से भक्ति से परिपूर्ण मार्ग की ओर अग्रसर होने का सूत्रपात करेंगे और सभी प्रकार के नकारात्मक लक्षणों से मुक्त रहेंगे। इनमें से कोई भी नाटकीय ढंग से हमारी भक्ति की प्रगति में हस्तक्षेप कर सकता है। अधिकांश लोगों के लिए धीरे-धीरे भक्ति भावना को विकसित करना उपयोगी होता है जिससे दैवीय गुणों को विकसित करने और आसुरी गुणों का उन्मूलन करने के अभ्यास में भी सफलता मिलती है। इसलिए हमें अपने भक्तिपूर्ण प्रयासों के अंग के रूप में श्रीकृष्ण द्वारा इस अध्याय में वर्णित दैवीय गुणों को अपने भीतर विकसित करने के लिए निरन्तर कार्यरत रहना होगा और आसुरी गुणों का त्याग करना होगा।