अर्जुन उवाच।
सन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥1॥
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; संन्यासस्य-कर्मों का त्याग; महाबाहो-बलिष्ट-भुजाओं वाला; तत्त्वम्-सत्य को; इच्छामि चाहता हूँ; वेदितुम–जानना; त्यागस्य-कर्मफल के भोग की इच्छा का त्याग; च-भी; हृषीकेश–इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण; पृथक्-भिन्न रूप से; केशि-निषूदन-केशी असुर के संहार करने वाले, श्रीकृष्ण।
Translation
BG 18.1: अर्जुन ने कहा-हे महाबाहु। मैं संन्यास और त्याग की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता हूँ। हे केशिनिषूदन, हे हृषिकेश! मैं दोनों के बीच का भेद जानने का भी इच्छुक हूँ।
Commentary
अर्जुन, श्रीकृष्ण को 'केशिनिषूदन' कहकर संबोधित करता है जिसका अर्थ केशी नामक असुर का संहार करने वाला है। इस पृथ्वी लोक पर अपनी दिव्य लीलाओं में भगवान श्रीकृष्ण ने केशी नामक उग्र और हिंसक असुर का वध किया था जिसने एक पागल घोड़े का रूप धारण करके बृजभूमि में आतंक मचा रखा था। संशय भी एक बे-लगाम पागल घोड़े के समान है जो मन-मस्तिष्क में पागलों की तरह दौड़ लगाता रहता है तथा भक्ति की सुन्दरतम फुलवारी को नष्ट कर देता है। अर्जुन इंगित करता है कि "जैसे आपने केशी नामक राक्षस का वध किया था उसी प्रकार मेरे मन-मस्तिष्क में उठने वाले संशय का भी दमन करो।" अर्जुन का प्रश्न तीक्ष्ण और मर्मभेदी था। वह संन्यास की प्रकृति के बारे में जानना चाहता है जिसका अर्थ 'कर्मों का त्याग' करना है। वह त्याग की प्रकृति जिसका अर्थ 'कर्म-फलों को भोगने की इच्छाओं का त्याग करने से है' के संबंध में भी जानना चाहता है।
आगे वह 'पृथक' शब्द का प्रयोग करता है जिसका अर्थ भिन्नता है। अतः वह इन दोनों शब्दों के बीच के अंतर के संबंध में भी जानना चाहता है। अर्जुन श्रीकृष्ण को "ऋषिकेश" कह कर संबोधित भी कर रहा है जिसका अर्थ "इन्द्रियों का स्वामी" है। अर्जुन का लक्ष्य महाविजय के अभियान को पूरा करना है, जिसे मन और इन्द्रियों को वश में करके संपूर्ण किया जा सकता है। यह वही विजय अभियान है जिससे पूर्ण शांति की अवस्था प्राप्त की जा सकती है। पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्ण इन्द्रियों के स्वामी के रूप में स्वयं पूर्णता के अवतार हैं।
इस विषय के संबंध में पिछले अध्यायों में भी इसी प्रकार का वर्णन किया जा चुका था। श्लोक 5.13 तथा 9.28 में श्रीकृष्ण पहले ही संन्यास के संबंध में और श्लोक 4.20 तथा 12.11 में त्याग के बारे में वर्णन कर चुके थे लेकिन यहाँ पर वे इसे अन्य दृष्टिकोण से निरूपित कर रहे हैं। यही सत्य विभिन्न प्रकार के परिप्रेक्ष्यों में इसे प्रस्तुत करने की स्वीकृति देता है तथा प्रत्येक परिप्रेक्ष्य अपना पृथक विलक्षण आकर्षण प्रस्तुत करता है। उदाहरणार्थ एक उद्यान के विभिन्न खण्ड देखने वालों के मन में विभिन्न प्रकार के आकर्षण उत्पन्न होते हैं जबकि पूरा उद्यान एक अलग प्रकार का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। भगवद्गीता में भी बहुत कुछ इसी प्रकार से है। प्रत्येक अध्याय को एक योग रूप में निर्दिष्ट किया गया है जबकि अठारहवें अध्याय को पूरी भगवद्गीता का सार कहा जा सकता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण संक्षिप्त रूप में चिरस्थायी सिद्धांतों तथा आंतरिक सत्य का वर्णन कर रहे हैं जिन्हें पिछले 17 अध्यायों में प्रस्तुत किया गया था तथा अब वे सबका सकल निष्कर्ष स्थापित करते हैं। संन्यास तथा विरक्ति के विषयों पर चर्चा करने के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति के तीनों गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं और यह ज्ञात करवाते हैं कि किस प्रकार से ये जीवात्माओं के कार्यों की स्वाभाविक प्रवृतियों को गुह्यतम प्रभावित करते हैं। वे फिर से दोहराते हैं कि केवल सत्वगुण को पोषित करना ही उपयुक्त होता है। तत्पश्चात वे यह निष्कर्ष देते हैं कि भक्ति या पुरूषोत्तम भगवान के प्रति अनन्य प्रेमामयी भक्ति ही परम कर्त्तव्य है और इसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।