ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग्रह: || 18||
ज्ञानम्-ज्ञान; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषयः परिज्ञाता-जानने वाला; त्रि-विधा–तीन प्रकार के कारक; कर्म-चोदना-कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व; करणम्-कर्म के उपादान; कर्म-कर्म; कर्ता-कर्ता इति–इस प्रकार; त्रि-विधाः-तीन प्रकार के कर्म-कर्म के; सड्.ग्रहः-संग्रह।
BG 18.18: ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-ये कर्म को प्रेरित करने वाले तीन कारक हैं। करण,कर्म और कर्ता-ये कर्म के तीन घटक हैं।
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कर्मयोग के अंतर्गत श्रीकृष्ण ने इसके अंगों का वर्णन किया था। उन्होंने कर्मों के फलों की व्याख्या की थी और उनसे मुक्त होने की प्रक्रिया का वर्णन किया था। अब वे कर्मों को प्रेरित करने वाले तीन कारकों की चर्चा करते हैं। ये ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता हैं। संयुक्त रूप से इन्हें 'ज्ञानत्रिपुटी' अर्थात् ज्ञान की त्रिमूर्ति कहा जाता है।
'ज्ञान' कर्म का प्रेरक है। यह ज्ञाता को 'ज्ञेय' की जानकारी देता है। यह त्रिवेणी संयुक्त रूप से कर्म को प्रेरित करती है। उदाहरणार्थ नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले धन का ज्ञान कर्मचारी को उत्साह से काम करने के लिए प्रेरित करता है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में स्वर्ण की खोज ने श्रमिकों में सोने की खानों में प्रवास करने की उद्विग्नता उत्पन्न की। ओलंपिक में पदक प्राप्त करने के महत्त्व का ज्ञान खिलाड़ियों को वर्षों तक अभ्यास करने के लिए प्रेरित करता है। ज्ञान और कार्य की गुणवत्ता का सीधा संबंध होता है।
उदाहरणार्थ किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से प्राप्त की गई डिग्री का जीविका प्राप्त करने में अत्यंत महत्त्व होता है। प्रतिष्ठित निगम और कम्पनियाँ जानती हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अधिक कुशलता से कार्य कर सकते हैं। इसलिए कई संस्थान अपने कर्मचारियों की कार्यकुशलता को विकसित करने के लिए निवेश करते हैं। यथा सेमिनारों, संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में अपने कर्मचारियों को भेजकर उनके कार्य की गुणवत्ता, कार्य क्षमता और कार्यकुशलता को और अधिक बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।
इसकी दूसरी श्रेणी को 'कर्मत्रिपुटी' का नाम दिया गया है जिसमें कर्ता, (कार्य करने वाला) करण (कर्म के उपादान) और स्वयं कर्म सम्मिलित है। संयुक्त रूप से कर्म की यह त्रिपुटी कर्म तत्त्व का निर्माण करती है। कर्ता 'कर्म के उपादानों' का प्रयोग कर्म को सम्पन्न करने के लिए करता है। यह विश्लेषण करने के पश्चात् श्रीकृष्ण अब कर्म को तीन गुणों से संबंद्ध बताते हैं जिससे यह समझाया जा सके कि हम लोग क्यों एक दूसरे से भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं।