Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥3॥

त्यागम्-त्याग देना चाहिए; दोष-वत्-बुराई के समान; इति–इस प्रकार; एके-कुछ; कर्म-कर्म; प्राहुः-कहते हैं; मनीषिणः-महान विद्वान; यज्ञ-यज्ञ; दान-दान; तपः-तप; कर्म-कर्म; न कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागना चाहिए; इति–इस प्रकार; च-और; अपरे–अन्य।।

Translation

BG 18.3: कुछ मनीषी घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए किन्तु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।

Commentary

सांख्य विचारधारा वाले कुछ दार्शनिक लौकिक जीवन को यथाशीघ्र और यथासंभव त्याग देने के पक्ष में हैं। उनका मत है कि समस्त कार्यों का परित्याग कर देना चाहिए क्योंकि ये सब इच्छाओं से प्रेरित होते हैं जो आगे देहान्तर के रूप में जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसाते हैं। वे तर्क प्रस्तुत करते हैं कि समस्त कार्य स्वाभाविक रूप से विकार युक्त होते हैं जैसे कि अप्रत्यक्ष हिंसा। उदाहरण के लिए यदि कोई अग्नि जलाता है तब सदैव यह संभावना बनी रहती है कि कीट कीटाणु इसमें अनिच्छा से जल सकते हैं। अतः वे केवल शरीर की देखभाल को छोड़कर सभी कर्मों से विरत रहने के मार्ग की संतुति करते हैं। वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि वेदों में भी दो परस्पर विरोधी निर्देश देखने को मिलते हैं। 

यदि उनमें से कोई विशिष्ट रूप से अधिक प्रबल हो तब सामान्य निर्देश को त्याग देना चाहिए। उदाहरण के लिए, वेद हमें यह निर्देश देते हैं-"मा हिंसयत् सर्वा भूतानि" अर्थात किसी भी जीवित प्राणी की हत्या न करो। यह एक सामान्य निर्देश है। वही वेद यह भी निर्देश देते हैं कि अग्नि यज्ञ सम्पन्न करो। यह एक विशेष निर्देश हैं जिसमें संभावना बनी रहती है कि अग्नियज्ञ संपन्न करते समय कुछ कीट-कीटाणु भूल से उसमें मर सकते हैं। परन्तु मीमांसक (मीमांसा दर्शन के अनुयायी) मानते हैं कि यज्ञ सम्पन्न करने के विशेष निर्देश यथावत रहना चाहिए और इसका पालन अवश्य होना चाहिए भले ही इससे हिंसा न करने के समान्य निर्देश का विरोध होता हो। इसलिए मीमांसक विचारधारा के विद्वान कहते हैं कि हमें लाभप्रद गतिविधियों, जैसे कि यज्ञ, दान तथा तपस्या का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।