Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥46॥

यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-अस्तित्त्व में आना; भूतानाम्-सभी जीवित प्राणी; येन-जिसके द्वारा; सर्वम्-सब; इदम् यह; ततम्-व्याप्त; स्व-कर्मणा किसी की स्वाभाविक वृत्तियाँ; तम्-उसको; अभ्यर्च्य-पूजा करके; सिद्धिम् सिद्धि को; विन्दति-प्राप्त करता है; मानवः-मनुष्य।

Translation

BG 18.46: अपनी स्वाभाविक वृत्ति का निर्वहन करते हुए उस सृजक भगवान की उपासना करो जिससे सभी जीव अस्तित्त्व में आते हैं और जिसके द्वारा सारा ब्रह्माण्ड प्रकट होता है। इस प्रकार से अपने कर्मों को सम्पन्न करते हुए मनुष्य सरलता से पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

Commentary

भगवान की सृष्टि में कोई भी आत्मा अतिरिक्त नहीं है। सृष्टि संचालन की उनकी दिव्य योजना सभी जीवों को क्रमिक पूर्णता प्रदान करने के लिए है। हम उनकी योजना के विशाल चक्र में एक छोटे चक्रदंत के रूप में जुड़ते हैं और वे हमें प्रदान की गयी क्षमता से अधिक की हमसे अपेक्षा नहीं करते। इसलिए यदि हम जीवन में अपने स्वभाव और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने स्व-धर्म का पालन करते हैं तभी हम अपने शुद्धिकरण के लिए उनकी दिव्य योजना में अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकेंगे। जब हम भक्तिपूर्ण चेतना से युक्त होकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं तब हमारा कार्य स्वयं पूजा का रूप बन जाता है। 

एक सशक्त कथा जिसे मार्कण्डेय ऋषि ने महाभारत के वन पर्व में युधिष्ठिर को सुनाई थी, यह दर्शाती है कि कोई भी कर्त्तव्य घिनौना या अशुद्ध नहीं होता और यह केवल चेतना ही है जिसके द्वारा हम इसे संपन्न करते हैं वही इसके महत्व को निर्धारित करती है। इस कथा में यह वर्णन किया गया है कि एक युवा संन्यासी वन में गया और वहाँ उसने दीर्घकाल तक ध्यान लगाकर घोर तपस्या की। कुछ वर्षों पश्चात एक दिन वृक्ष के ऊपर से एक कौवे की बीट तपस्वी पर गिरी। उसने कौवे पर क्रोध से दृष्टि डाली और फिर कौवा पृथ्वी पर गिर कर मर गया। संन्यासी ने अनुभव किया कि उसकी तपस्या के फलस्वरूप उसमें रहस्यमय शक्तियाँ प्रकट हुई हैं। वह घमंड से चूर हो गया। समय पश्चात वह किसी के घर भिक्षा मांगने गया। उस घर की गृहिणी द्वार पर आई और उसने संन्यासी से कुछ समय तक प्रतीक्षा करने का अनुरोध किया क्योंकि वह अपने बीमार पति की देखभाल में लगी हुई थी। इससे संन्यासी क्रोधित हो गया और उसने उस स्त्री पर क्रोध भरी दृष्टि डाली और सोचने लगा-"तुम जैसी नीच स्त्री ने मुझसे प्रतीक्षा करवाने का दुःसाहस कैसे किया, तुम्हें मेरी शक्तियों का ज्ञान नहीं?" भिक्षु के मन का अभिप्राय जानकर स्त्री ने उसे उत्तर दिया-"मुझे क्रोध से मत देखो, मैं कोई कौवा नहीं जो तुम्हारे दृष्टि डालने से जल जाऊंगी।" संन्यासी ने चौंककर पूछा कि वह इस घटना के संबंध में कैसे जानती है? गृहिणी ने कहा कि उसने कभी कोई तपस्या नहीं की लेकिन उसने अपने दायित्वों का निर्वहन भक्तिपूर्ण और समर्पण भाव से किया। इसी के बल पर वह प्रबुद्ध हुई और उसके मन में उठे विचारों को जानने में सक्षम हुई। उसने उस संन्यासी से धर्मात्मा व्याध से भेंट करने को कहा जो मिथिला नगर में रहता था और यह भी कहा कि धर्म के विषय पर वह उसके प्रश्न का उत्तर देगा। संन्यासी ने समाज की दृष्टि में नीच माने जाने वाले धर्मात्मा व्याध से भेंट करने की अपनी प्रारम्भिक झिझक पर विजय प्राप्त की और वह मिथिला पहुँचा। व्याध ने उसे समझाया कि हम सबके पूर्व कर्मों और क्षमताओं पर आधारित अपना-अपना स्व-धर्म है। यदि हम अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए अपनी इच्छाओं और निजी स्वार्थों का त्याग करते हैं और मार्ग में आने वाले क्षणिक सुखों और दुःखों से ऊपर उठते हैं तब हम स्वयं को शुद्ध कर सकेंगे और धर्म की अगली कक्षा में प्रवेश करेंगे। अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करने व उनसे विमुख न होने से आत्मा उत्तरोतर अपनी वर्तमान स्थूल चेतना से दिव्य चेतना में विकसित होती है। व्याध द्वारा दिए व्याख्यान को महाभारत की व्याध गीता के रूप में जाना जाता है। 

यह उपदेश स्वाभाविक रूप से अर्जुन पर क्रियान्वित होता है क्योंकि वह युद्ध करने के अपने धर्म को पीड़ादायक और निंदनीय समझ कर युद्ध से विमुख होना चाहता था। इस श्लोक में श्रीकृष्ण उसे उपदेश देते हैं कि समुचित चेतना में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से वह परमेश्वर की उपासना कर सकेगा और सरलता से पूर्णता प्राप्त कर लेगा।