Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥62॥

तम्-उस पर; एव-केवल; शरणम् गच्छ–शरण ग्रहण करो; सर्व-भावेन विशाल हृदय से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; तत्-प्रसादात्-उसकी कृपा से; पराम्-परम; शान्तिम्-शान्ति; स्थानम्-धाम को प्राप्सयसि–प्राप्त करोगे; शाश्वतम्-नित्य।

Translation

BG 18.62: हे भारत! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे।

Commentary

भगवान पर निर्भरता के कारण आत्मा को अपनी वर्तमान दुर्दशा से बाहर निकलने और अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उनकी कृपा पर अवलंबित होना चाहिए। इसके लिए स्वयं का प्रयास कभी पर्याप्त नहीं हो सकता। यदि भगवान अपनी कृपा प्रदान करते हैं तब वे जीवात्मा को अपना दिव्य ज्ञान प्रदान करेंगे और उसे माया शक्ति के बंधन से मुक्त कर देते हैं। श्रीकृष्ण बल देते हुए कहते हैं कि उनकी कृपा से ही कोई शाश्वत परमानंद और अविनाशी लोक प्राप्त करता है। अतः यह कृपा प्राप्त करने के लिए जीवात्मा के लिए भगवान के शरणागत होने की पात्रता ग्रहण करना आवश्यक है। संसार में भी कोई पिता अपने पुत्र को अपनी सभी बहुमूल्य संपत्तियाँ तब तक हस्तांतरित नहीं करता जब तक वह इनका समुचित रूप से सदुपयोग करने का उत्तरदायित्व निर्वहन करने के योग्य नहीं हो जाता। समान रूप से भगवान की कृपा एक सनकी कार्य नहीं है। इसके लिए उनके तर्कसंगत नियम है जिसके आधार पर वे इसे प्रदान करते हैं। यदि भगवान अपनी कृपा प्रदान करते समय इन नियमों का पालन नहीं करते तब लोगों का उन पर से विश्वास टूट जाएगा। 

इसे एक उदाहरण द्वारा समझें-एक पिता के दो पुत्र थे। फसल जोतने के मौसम में वह अपने दोनों पुत्रों को धान के खेत में कड़ा परिश्रम करने का आदेश देता है। एक पुत्र दिन भर सूर्य की तेज धूप में पसीना बहाकर परिश्रम करता है। जब रात्रि को वह घर पहुँचता है तब पिता कहता है-"मेरे पुत्र तुमने बहुत अच्छा काम किया। तुम आज्ञाकारी, अति परिश्रमी और निष्ठावान हो। यह तुम्हारा पुरस्कार है। यह 500 रुपये लो और इसको जैसे चाहो वैसे व्यय करो।" दूसरा पुत्र जिसने कुछ नहीं किया और वह पूरा दिन बिस्तर पर पड़ा रहा, मदिरा पान तथा धूम्रपान करता रहा और अपने पिता के लिए अपशब्द बोलता रहा। मान लो कि यदि रात को उसका पिता उससे कहता है-"चिंता मत करो। अंततः तुम भी मेरे पुत्र हो। यह 500 रुपये लो और इससे आनंद मनाओ।" इसका परिणाम यह होगा कि पहले पुत्र की कड़ा परिश्रम करने की प्रेरणा दब जाएगी। वह कहेगा-"यदि मेरे पिता का पुरस्कार प्रदान करने का यही मापदण्ड है तब मैं भी परिश्रम क्यों करू? मैं भी कुछ नहीं करूँगा क्योंकि फिर भी मुझे 500 रुपये प्राप्त होंगे।" समान रूप से यदि भगवान हमारी पात्रता पर विचार किए बिना अपनी कृपा प्रदान करते हैं तब जो लोग पहले ही संत बन चुके हैं वे शिकायत करेंगे-"यह क्या है? हमने कई जन्मों तक स्वयं को शुद्ध करने का प्रयास किया और तब हम भगवान की कृपा प्राप्त करने के पात्र बन पाए लेकिन इस व्यक्ति ने बिना पात्रता प्राप्त किए कृपा प्राप्त कर ली तब क्या स्वयं को सुधारने के हमारे प्रयास निरर्थक थे?" भगवान कहते हैं-"मैं इस प्रकार के अन्यायपूर्ण ढंग से व्यवहार नहीं करता, मेरी कुछ शाश्वत शर्ते हैं जिसके आधार पर मैं अपनी कृपा प्रदान करता हूँ। मैंने इसकी घोषणा सभी ग्रंथो में की है।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में निम्न प्रकार से वर्णन किया है-

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदाश्च प्रहिणोति तस्मै। 

तः ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ।।

(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.18)

"हमें उस परमेश्वर की शरण ग्रहण करनी चाहिए जिसने ब्रह्मा और अन्यों को जन्म दिया है। यह उनकी कृपा ही है जिसके कारण आत्मा और बुद्धि प्रकाशित होती है।"

श्रीमद्भागवतम् में भी इस प्रकार से वर्णन किया गया है

मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्। 

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः।।

(श्रीमद्भागवतम्-11.12.15) 

"हे उद्धव! सभी प्रकार की लौकिक, सामाजिक और धार्मिक परंपराओं का त्याग करो और सभी आत्माओं की परम आत्मा की शरण प्राप्त ग्रहण करो। केवल तभी तुम इस संसार रूपी महा सागर को पार कर सकोगे और सर्वथा निडर हो जाओगे।" भगवद्गीता के 7वें अध्याय के 14वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था-"मेरी दिव्य शक्ति माया प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित हैं और इसको पार करना अत्यंत कठिन है लेकिन वे जो मेरे शरणागत हो जाते हैं वे इसे सरलता से पार कर लेते हैं।"

रामायण में भी ऐसा वर्णन किया गया है

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। 

जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं। 

"जिस क्षण जीवात्मा भगवान के शरणागत हो जाती है तब उसके अनन्त पूर्व जन्मों के संचित पापमयी कर्म उसकी कृपा से नष्ट हो जाते हैं।" भगवद्गीता के उपर्युक्त श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए उनके शरणागत होने की अनिवार्यता के सिद्धांत को दोहराया गया है। शरणागति का विस्तृत अर्थ क्या है?

इसे हरि भक्ति विलास, भक्ति रसामृत सिंधु, वायु पुराण और आहीर बुधिनी संहिता में निम्न प्रकार से समझाया गया है

आनुकूलस्य सड्.कल्प प्रतिकूलस्य वर्जनम् 

रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा। 

आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागति।।

(हरि भक्तिविलास 11.676) 

उपर्युक्त श्लोक में भगवान की शरणागति के निम्नवर्णित छः स्वरूपों का वर्णन किया गया है

1. केवल भगवान की इच्छानुसार इच्छा करनाः स्वाभाविक रूप से हम भगवान के सेवक हैं और सेवक का यह धर्म है कि वे अपने स्वामी की इच्छा को पूर्ण करें। इसलिए भगवान के शरणागत भक्त के रूप में हमें भगवान की दिव्य इच्छा के अनुरूप ही अपनी इच्छा रखनी चाहिए। एक सूखा पत्ता वायु पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जाता है। यदि वायु चाहे तो उसे ऊपर उठा दे, नीचे गिरा दे या उसे आगे या पीछे ले जाए और या फिर उसे पृथ्वी पर फेंक दे, लेकिन सूखा पत्ता इसकी कोई शिकायत नहीं करता। समान रूप से हमें भी भगवान के सुख में सुखी रहना सीखना चाहिए।

2. भगवान की इच्छा के विरुद्ध इच्छा न करनाः इस जीवन में हमें अपने पूर्व और वर्तमान जन्म के फल प्राप्त होते हैं। फिर भी कर्मों के फल अपने आप नहीं प्राप्त होते। भगवान हमारे कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं और उचित समय पर उनके फल प्रदान करते हैं। चूंकि भगवान स्वयं फल वितरित करते हैं इसलिए हमें धैर्यपूर्वक उन्हें स्वीकार करना सीखना चाहिए। प्रायः जब लोग धन, यश, सुख और संसार के भोग विलास के पदार्थ प्राप्त करते है तब वे भगवान के प्रति आभार प्रकट करते हैं। किन्तु यदि वे कष्ट पाते हैं तब इसका दोष भगवान को देते हैं-" भगवान ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?" दूसरी प्रकार की शरणागति के स्वरूप का तात्पर्य भगवान हमें जो भी प्रदान करें उस पर असंतोष प्रकट न करने से है। 

3. यह दृढ़ विश्वास होना कि भगवान सदैव हमारी रक्षा करते हैं: भगवान हमारे शाश्वत पिता हैं। वे सृष्टि के सभी जीवों की देखभाल करते हैं। पृथ्वी लोक पर खरबों चींटियाँ हैं और सभी को नियमित रूप से भोजन की आवश्यकता पड़ती है। क्या हमने कभी उनमें से कुछ हजार चींटियों को अपने बगीचे में भूख से मरते हुए देखा? भगवान सुनिश्चित करते हैं कि इन सबको भोजन मिलता रहे। दूसरी ओर हाथी प्रतिदिन ढेरों भोजन करते हैं। भगवान इनके लिए भी भोजन की व्यवस्था करते हैं। सांसारिक पिता अपने बच्चों की चिंता और उनका पालन-पोषण करता है। तब हम यह संदेह क्यों करें कि हमारा शाश्वत पिता हमारी देख भाल करेगा या नहीं? भगवान के संरक्षण में दृढ़तापूर्वक विश्वास करना शरणागति का तीसरा स्वरूप है। 

4. भगवान के प्रति कृतज्ञता की भावना रखनाः भगवान से हम अनेक बहुमूल्य उपहार प्राप्त करते हैं। पृथ्वी जिस पर हम चलते हैं। सूर्य का प्रकाश जिससे हम देखते हैं तथा वायु जिससे हम श्वास लेते हैं और जल जिसका हम सेवन करते हैं। यह सब हमें भगवान द्वारा प्रदान किया जाता है। वास्तव में भगवान के कारण ही हमारा अस्तित्त्व है। वे हमें जीवन और हमारी आत्मा को चेतना प्रदान करते हैं। हम भगवान को इसके एवज में कोई कर नहीं देते लेकिन अंततः हमें भगवान जो प्रदान करते हैं उस सब के लिए हमें उनका ऋणी होना चाहिए। यह कृतज्ञता की भावना है। 

इसके विपरीत की भावना अकृतज्ञता है। उदाहरणार्थ पिता अपने पुत्र के लिए बहुत कुछ करता है। इसके लिए पुत्र को अपने पिता के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए लेकिन अगर बच्चा यह प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, "मुझे अपने पिता का क्यों आभारी होना चाहिए? इनके पिता ने इनका पालन पोषण किया और यह मेरा कर रहे है।" यह सांसारिक पिता के प्रति अकृतज्ञता है। अपने शाश्वत पिता भगवान द्वारा प्रदत्त अमूल्य उपहारों के लिए उनके प्रति कृतज्ञ होना शरणागति का चौथा स्वरूप है।

5. अपने स्वामित्व की सभी वस्तुओं को भगवान से संबंधित माननाः भगवान ने समस्त संसार की सृष्टि की है। संसार हमारे जन्म से पूर्व अस्तित्त्व में है और मृत्यु के पश्चात भी अस्तित्त्व में रहेगा। इसलिए केवल भगवान ही सभी वस्तुओं के वास्तविक स्वामी हैं। जब हम यह सोचते हैं कि कोई वस्तु हमारी है तब हम भगवान के स्वामित्व को विस्मृत कर देते हैं। इस विषय को इस प्रकार से समझा जा सकता है। जब तुम अपने घर में नहीं होते तब कोई तुम्हारे घर में प्रवेश करता है। वह तुम्हारे कपड़े पहनता है, तुम्हारे रैफ्रिजरेटर से खाने पीने की चीजें उठा कर उनका सेवन करता है और तुम्हारे बिस्तर पर सो जाता है। जब तुम लौट कर घर आते हो तब तुम उससे क्रोध से पूछते हो-“तुम मेरे घर में क्या कर रहे हो?" वह कहता है-"मैंने तुम्हारे घर की किसी वस्तु को क्षतिग्रस्त नहीं किया है। मैंने सभी वस्तुओं का भली भांति उपयोग किया है। तुम मुझ पर क्रोधित क्यों हो रहे हो?" तब तुम उत्तर दोगे, "चाहे तुमने किसी वस्तु को क्षतिग्रस्त नहीं किया है लेकिन ये सब मेरी है। तुमने मेरी अनुमति के बिना इनका उपयोग किया, तुम चोर हो।" समान रूप से संसार के सभी पदार्थ भगवान के हैं। इसे ध्यान में रखो। इस प्रकार से स्वामित्व की भावना को त्यागना शरणागति का पांचवा स्वरूप है। 

6. अपनी उपलब्धियों और समर्पण पर अभिमान न करनाः यदि हम अपने द्वारा किए गए शुभ कार्यों पर अभिमान करते हैं तब यह अभिमान हमारे हृदय को अपवित्र करता है और हमने जो भी अच्छा कार्य किया होता है उसे भी विनष्ट कर देता है। इसी कारण विनम्रता की मनोभावना बनाए रखना महत्वपूर्ण है। "यदि मैं कुछ उत्कृष्ट करने के योग्य था तो यह केवल भगवान द्वारा मेरी बुद्धि को उचित दिशा की ओर प्रेरित करने के कारण संभव हुआ, यदि यह मेरे ऊपर होता तब मैं इसे न कर पाता।" विनम्रता की ऐसी मनोवृति रखना शरणागति का छठा स्वरूप है। यदि हम शरणागति के इन छः बिन्दुओं का पूर्ण रूप से अनुसरण करते हैं तब हम भगवान की शर्तों को पूरा कर पाएंगे और वे हम पर अपनी कृपा बरसायेंगे।