Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 65

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65।

मत्-मनाः-मेरा चिंतन करो; भव-होओ; मत्-भक्त:-मेरा भक्त; मत्-याजी-मेरी पूजा करो; माम्–मुझे नमस्कुरू-प्रणाम करो; माम्-मेरे पास; एव–निश्चित रूप से; एष्यसि-आओगे; सत्यम् वास्तव में; ते-तुमसे; प्रतिजाने-वचन देता हूँ; प्रिय:-प्रिय; असि-हो; मे-मुझको।

Translation

BG 18.65: सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो।

Commentary

नौंवे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया था कि वे उसे अति गुह्य ज्ञान प्रदान करेंगे और फिर उसके पश्चात भक्ति की महिमा का वर्णन करेंगे। यहाँ वे पुनः नौवें अध्याय के 34 वें श्लोक की प्रथम पंक्ति को दोहराते हैं और अर्जुन को उनकी भक्ति में लीन होने के लिए कहते हैं। श्रीकृष्ण के लिए गहन प्रेम विकसित कर मन को सदैव उनकी भक्ति में तल्लीन रखने से अर्जुन सुनिश्चित रूप से अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। भगवान की भक्ति में पूर्णतया तल्लीन होने के संबंध में सबसे उपर्युक्त उदाहरण राजा अम्बरीष का है। श्रीमद्भागवतम् में इसे इस प्रकार से वर्णित किया गया है

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । 

करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ।। 

मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तभृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसंङ्गमम् । 

घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसानां तदर्पिते ।।

पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृशीकेशपदाभिवन्दने। 

कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः।।

(श्रीमद्भागवतम्-9.4.18-20)

 "अम्बरीष ने भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों में अपने सांसरिक मन को तल्लीन रखा। उसने अपनी सुन्दर वाणी को भगवान की अप्रतिम महिमा का गुणगान करने में, अपने दोनों हाथों को भगववान के मंदिर को स्वच्छ करने में और अपने कानों को भगवान की दिव्य लीलाओं को ध्यानपूर्वक सुनने में लगाया। उसने अपनी आंखों को भगवान की मूर्ति देखने, अपने शरीर के अंगों से भक्तों के शरीर को स्पर्श करने, अपनी नासिका को भगवान के चरण कमलों में अर्पित तुलसी की सुगंध को सूंघने में, अपनी जिह्वा को भगवान को अर्पित प्रसाद के अवशेषों का स्वाद चखने, अपने पावों को भगवान के तीर्थ स्थानों की यात्रा करने में और अपने शीश को भगवान के चरणों में झुकाने में लगाया। उन्होंने सभी प्रकार की सामग्रियों जैसे फूल, माला और चंदन की लकड़ियाँ भगवान की सेवा में अर्पित की। उन्होंने यह सब किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं किया। बल्कि शुद्धिकरण द्वारा केवल भगवान की निःस्वार्थ सेवा प्राप्त करने के लिए किया। सच्चे हृदय से भगवान की भक्ति में लीन होने का उपदेश सभी शास्त्रों का सार है और सभी प्रकार के ज्ञान से श्रेष्ठ है तथापि श्रीकृष्ण द्वारा प्रकट यह ज्ञान अति गुह्य नहीं था क्योंकि वे पहले भी इसका उल्लेख कर चुके हैं। अब वे अगले श्लोक में इस परम रहस्य को प्रकट करेंगे।