Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 67

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥67॥

इदम् यह; ते तुम्हारे द्वारा; न कभी नहीं; अतपस्काय–वे जो संयमी नहीं है; न कभी नहीं; अभक्ताय–वे जो भक्त नहीं हैं; कदाचन-किसी समय; न कभी नहीं; च-भी; अशुश्रूषवे-वे जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के विरुद्ध हैं; वाच्यम्-कहने के लिए; न कभी नहीं; च-भी; माम् मेरे प्रति; यः-जो; अभ्यसूयति-द्वेष करता है।

Translation

BG 18.67: यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।

Commentary

पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने यह समझाया था कि यदि कोई भगवान की प्रेममयी भक्ति में स्थित हो जाता है तब सांसारिक कर्तव्यों का त्याग करने से कोई पाप नहीं लगता। लेकिन इस उपदेश के साथ एक समस्या है। यदि हम अभी तक भगवान की प्रेममयी भक्ति में स्थित नहीं हो पाए है और अपरिपक्व अवस्था में अपने संसारिक दायित्वों से विमुख हो जाते हैं तब हम न तो इस लोक के और न ही परलोक के रहेंगे। अतः कर्म संन्यास केवल उनके लिए है जो इसके पात्र हैं। हमारी पात्रता क्या है? इसका निर्धारण आध्यात्मिक गुरु ही कर सकता है जो हमारी क्षमताओं और इस मार्ग में आने वाली कठिनाईयों के संबंध में जानता है। यदि कोई विद्यार्थी स्नातक बनना चाहता है तब ऐसा नहीं होता कि वह सीधे स्नातक की डिग्री वितरित करने वाले समारोह में उपस्थित हो जाए। हमें इसके लिए प्रथम कक्षा के क्रम से अध्ययन करना पड़ेगा। समान रूप से बहुसंख्यक लोग कर्मयोग के पात्र है और यह उनके लिए महा मूर्खतापूर्ण होगा कि यदि वे अपरिपक्व अवस्था में समय से पूर्व संन्यास लेते हैं। उन्हें यह निर्देश देना उत्तम होगा कि वह पहले अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करें और साथ-साथ भक्ति का अभ्यास भी करते रहें। इसी कारण से श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि यह गुह्य ज्ञान जो उसे प्रदान किया गया है वह सबके लिए नहीं है। अन्य लोगों में इसे बांटने के लिए यह आवश्यक है कि हमें उन्हें यह ज्ञान देने से पूर्व उनकी पात्रता को परखना चाहिए। 

जागरूकता शब्द विशेष रूप से पिछले श्लोक के गुह्य उपदेशों पर क्रियान्वित होता है और सामान्य रूप से यह भगवद्गीता का व्यापक सन्देश है। यदि इसे भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष रखने वाले व्यक्ति को सुनाया जाता है तब वह यह प्रतिक्रिया देगा-"श्रीकृष्ण अभिमानी हैं। वह अर्जुन को अपनी स्तुति करने के लिए कहते रहते हैं।" इस उपदेश का अनर्थ करने से श्रद्धाविहीन श्रोता को इस दिव्य संदेश से हानि होगी। पद्मपुराण में इस प्रकार से कहा गया है

अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश् चोपदेशः शिवनामापराधः।

(पद्म पुराण) 

" श्रद्धाविहीन श्रोता और भगवान से द्वेष रखने वाले को यह अलौकिक उपदेश देकर हम उन्हें अपराधी बनाने का कारण बनेंगे।" इसलिए श्रीकृष्ण उपर्युक्त श्लोक में श्रोताओं की अयोग्यताओं का वर्णन करते हैं।