अध्याय दो: सांख्य योग

विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग

इस अध्याय में अर्जुन अपने सम्मुख उत्पन्न स्थिति का सामना करने में स्पष्ट रूप से अपनी असमर्थता को दोहराता है और युद्ध करने के अपने कर्तव्य का पालन करने से मना कर देता है। तत्पश्चात वह औपचारिक रूप से श्रीकृष्ण को अपना आध्यात्मिक गुरु बनाने और जिस स्थिति में वह स्वयं को पाता है, उसका सामना करने के लिए उचित मार्गदर्शन प्रदान करने की प्रार्थना करता है। परम प्रभु उससे कहते हैं कि आत्मा, जो शरीर के नष्ट होने पर भी नहीं मरती, के अमरत्व की शिक्षा देकर दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में उसी प्रकार से शरीर परिवर्तित करती है जिस प्रकार से मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है। इसके पश्चात श्रीकृष्ण सामाजिक दायित्त्वों के विषय की ओर आगे बढ़ते हैं। वे अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि धर्म की मर्यादा हेतु योद्धा के रूप में युद्ध लड़ना उसका कर्त्तव्य है। वे स्पष्ट करते हैं कि किसी के द्वारा अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करना एक पुण्य का कार्य है जो स्वर्ग जाने का द्वार खोलेगा किन्तु कर्त्तव्यों से विमुख होने से केवल तिरस्कार और अपयश प्राप्त होगा। 

लौकिक स्तर पर अर्जुन को प्रेरित करने के पश्चात श्रीकृष्ण गहनता के साथ कर्मयोग के ज्ञान पर प्रकाश डालते हैं। वे अर्जुन को फल की आसक्ति के बिना निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। फल की कामना से रहित कर्म करने के विज्ञान को वे 'बुद्धियोग' या 'बुद्धि का योग' नाम देते हैं। बुद्धि का प्रयोग मन को कर्मफल की लालसा करने से रोकने के लिए करना चाहिए। इस चेतना के साथ सम्पन्न किए गए कर्म 'बंधनयुक्त कर्मों' से 'बंधन मुक्त कर्मों' में परिवर्तित हो जाते हैं। अर्जुन दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य के लक्षणों के संबंध में जानना चाहता है। श्रीकृष्ण उसे बताते हैं कि किस प्रकार से दिव्य चेतना में स्थित होकर मनुष्य आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है और सभी परिस्थितियों में उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं और उसका मन सदा के लिए भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाता है। अब वे क्रमानुसार स्पष्ट करते हैं कि किस प्रकार से मानसिक संताप, काम-वासना और लोभ विकसित होता है और किस प्रकार से इनका उन्मूलन किया जा सकता है।

संजय ने कहा-करुणा से अभिभूत, मन से शोकाकुल और अश्रुओं से भरे नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर श्रीकृष्ण ने निम्नवर्णित शब्द कहे।

परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहाः मेरे प्रिय अर्जुन! इस संकट की घड़ी में तुम्हारे भीतर यह विमोह कैसे उत्पन्न हुआ? यह सम्माननीय लोगों के अनुकूल नहीं है। इससे उच्च लोकों की प्राप्ति नहीं होती अपितु अपयश प्राप्त होता है।

हे पार्थ! अपने भीतर इस प्रकार की नपुंसकता का भाव लाना तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विजेता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग करो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! हे शत्रुओं के दमनकर्ता! मैं युद्धभूमि में कैसे भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे महापुरुषों पर बाण चला सकता हूँ जो मेरे लिए परम पूजनीय है।

ऐसे आदरणीय महापुरुष जो मेरे गुरुजन हैं, को मारकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा तो भीख मांगकर इस संसार में जीवन निर्वाह करना अधिक श्रेयस्कर है। यदि हम उन्हें मारते हैं तो उसके परिणामस्वरूप हम जिस सम्पत्ति और सुखों का भोग करेंगे वे रक्तरंजित होंगे।

हम यह भी नहीं जानते कि इस युद्ध का परिणाम हमारे लिए किस प्रकार से श्रेयस्कर होगा। उन पर विजय पाकर या उनसे पराजित होकर। यद्यपि उन्होंने धृतराष्ट्र का पक्ष लिया है और अब वे युद्धभूमि में हमारे सम्मुख खड़े हैं तथापि उनको मारकर हमारी जीवित रहने की कोई इच्छा नहीं होगी।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है।

मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। यदि मैं धन सम्पदा से भरपूर इस पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लेता हूँ या देवताओं जैसा प्रभुत्व प्राप्त कर लेता हूँ तब भी मैं इस शोक को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाऊँगा।

संजय ने कहा-ऐसा कहने के पश्चात 'गुडाकेश' शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन, 'हृषीकेश' कृष्ण से बोला, हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा और शांत हो गया।

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! तत्पश्चात दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य शोककुल अर्जुन से कृष्ण ने प्रसन्न होते हुए ये वचन कहे।

परम भगवान ने कहा-तुम विद्वतापूर्ण वचन कहकर भी उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक के पात्र नहीं हैं। बुद्धिमान पुरुष न तो जीवित प्राणी के लिए शोक करते हैं और न ही मृत के लिए।

ऐसा कोई समय नहीं था कि जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे और ये सभी राजा न रहे हों और ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे।

जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख तथा दुख का अनुभव क्षण भंगुर है। ये स्थायी न होकर सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान हैं। हे भरतवंशी! मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना उनको सहन करना सीखे।

हे पुरुषो में श्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों परिस्थितियों में स्थिर रहता है, वह वास्तव मे मुक्ति का पात्र है।

अनित्य शरीर का चिरस्थायित्व नहीं है और शाश्वत आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। तत्त्वदर्शियों द्वारा भी इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन करने के पश्चात निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर इस यथार्थ की पुष्टि की गई है।

जो पूरे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अनश्वर आत्मा को नष्ट करने मे कोई भी समर्थ नहीं है।

केवल भौतिक शरीर ही नश्वर है और शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी, अपरिमेय तथा शाश्वत है। अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो।

वह जो यह सोचता है कि आत्मा को मारा जा सकता है या आत्मा मर सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। वास्तव में आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।

आत्मा का न तो कभी जन्म होता है न ही मृत्यु होती है और न ही आत्मा किसी काल में जन्म लेती है और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, अविनाशी और चिरनूतन है। शरीर का विनाश होने पर भी इसका विनाश नहीं होता।

हे पार्थ! वह जो यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, वह किसी को कैसे मार सकता है या किसी की मृत्यु का कारण हो सकता है?

जिस प्रकार से मनुष्य अपने फटे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा पुराने तथा व्यर्थ शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।

किसी भी शस्त्र द्वारा आत्मा के टुकड़े नहीं किए जा सकते, न ही अग्नि आत्मा को जला सकती है, न ही जल द्वारा उसे गीला किया जा सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।

आत्मा अखंडित और अज्वलनशील है, इसे न तो गीला किया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अपरिर्वतनीय, अचल और अनादि है।

इस आत्मा को अदृश्य, अचिंतनीय और अपरिवर्तनशील कहा गया है। यह जानकर हमें शरीर के लिए शोक प्रकट नहीं करना चाहिए।

यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा निरन्तर जन्म लेती है और मरती है तब ऐसी स्थिति में भी, हे महाबाहु अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार से शोक नहीं करना चाहिए।

जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें अपरिहार्य के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

हे भरतवंशी! समस्त जीव जन्म से पूर्व अव्यक्त रहते हैं, जन्म होने पर व्यक्त हो जाते हैं और मृत्यु होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः ऐसे में शोक व्यक्त करने की क्या आवश्यकता है।

कुछ लोग आत्मा को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं, कुछ लोग इसे आश्चर्य बताते हैं और कुछ इसे आश्चर्य के रूप मे सुनते हैं जबकि अन्य लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ समझ नहीं पाते।

हे अर्जुन! शरीर में निवास करने वाली आत्मा अविनाशी है इसलिए तुम्हें किसी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए।

इसके अलावा एक योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य पर विचार करते हुए तुम्हें उसका त्याग नहीं करना चाहिए। वास्तव में योद्धा के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यशाली होते हैं जिन्हें बिना इच्छा किए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध के ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं जिसके कारण उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।

यदि फिर भी तुम इस धर्म युद्ध का सामना नहीं करना चाहते तब तुम्हें निश्चित रूप से अपने सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम अपनी प्रतिष्ठा खो दोगे।

लोग तुम्हें कायर और भगोड़ा कहेंगे। एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर है।

जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम और यश की सराहना की है, वे सब यह सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्धभूमि से भाग गये और उनकी दृष्टि में तुम अपना सम्मान गंवा दोगे।

तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करेंगे और कटु शब्दों से तुम्हारा मानमर्दन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास उड़ायेंगें। तुम्हारे लिए इससे पीड़ादायक और क्या हो सकता है?

हे कुन्ती पुत्र! यदि तुम युद्ध करते हो फिर या तो तुम मारे जाओगे और स्वर्ग लोक प्राप्त करोगे या विजयी होने पर पृथ्वी के साम्राज्य का सुख भोगोगे। इसलिए हे कुन्ती पुत्र! उठो और दृढ़ संकल्प के साथ युद्ध करो।

कर्तव्यों पालन हेतु युद्ध करो, युद्ध से मिलने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि को समान समझो। यदि तुम इस प्रकार अपने दायित्त्वों का निर्वहन करोगे तब तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

अब तक मैंने तुम्हें सांख्य योग या आत्मा की प्रकृति के संबंध में वैश्लेषिक ज्ञान से अवगत कराया है। अब मैं क्योंकि बुद्धियोग या ज्ञानयोग प्रकट कर रहा हूँ, हे पार्थ! उसे सुनो। जब तुम ऐसे ज्ञान के साथ कर्म करोगे तब कर्मों के बंधन से स्वयं को मुक्त कर पाओगे।

इस चेतनावस्था में कर्म करने से किसी प्रकार की हानि या प्रतिकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते अपितु इस प्रकार से किया गया अल्प प्रयास भी बड़े से बड़े भय से हमारी रक्षा करता है।

हे कुरुवंशी! जो इस मार्ग का अनुसरण करते हैं, उनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है और उनका एकमात्र लक्ष्य होता है लेकिन जो मनुष्य संकल्पहीन होते हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं मे विभक्त रहती है।

अल्पज्ञ मनुष्य वेदों के आलंकारिक शब्दों पर अत्यधिक आसक्त रहते हैं जो स्वर्गलोक का सुख भोगने के प्रयोजनार्थ दिखावटी कर्मकाण्ड करने की अनुशंसा करते हैं और जो यह मानते हैं कि इन वेदों में कोई उच्च सिद्धान्तों का वर्णन नहीं किया गया है। वे वेदों के केवल उन्हीं खण्डों की महिमामण्डित करते हैं जो उनकी इन्द्रियों को तृप्त करते हैं और वे उत्तम जन्म, ऐश्वर्य, इन्द्रिय तृप्ति और स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए आडम्बरयुक्त कर्मकाण्डों के पालन में लगे रहते हैं।

सांसारिक सुखों में मन की गहन आसक्ति के साथ उनकी बुद्धि ऐसी वस्तुओं में मोहित रहती है इसलिए वे भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने के हेतु दृढ़-संकल्प लेने में असमर्थ होते हैं।

वेदों में प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन मिलता है। हे अर्जुन! प्रकृति के इन गुणों से ऊपर उठकर विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना मे स्थित हो जाओ। परम सत्य में स्थित होकर सभी प्रकार के द्वैतों से स्वयं को मुक्त करते हुए भौतिक लाभ-हानि और सुरक्षा की चिन्ता किए बिना आत्मलीन हो जाओ।

जैसे एक छोटे जलकूप का समस्त कार्य सहजता से सभी प्रकार से विशाल जलाशय से तत्काल पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार समान रूप से परम सत्य को जानने वाले वेदों के सभी प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।

तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।

हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।

हे अर्जुन! दिव्य ज्ञान और अन्तर्दृष्टि की शरण ग्रहण करो, फलों की आसक्ति युक्त कर्मों से दूर रहो जो निश्चित रूप से दिव्य ज्ञान में स्थित बुद्धि के साथ निष्पादित किए गए कार्यों से निष्कृष्ट हैं। जो अपने कर्मफलों का भोग करना चाहते हैं, वे कृपण हैं।

जब कोई मनुष्य बिना आसक्ति के कर्मयोग का अभ्यास करता है तब वह इस जीवन में ही शुभ और अशुभ प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पा लेता है। इसलिए योग के लिए प्रयास करना चाहिए जो कुशलतापूर्वक कर्म करने की कला है।

समबुद्धि युक्त ऋषि मुनि कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं जो मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र में बांध लेती हैं। इस चेतना में कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो सभी दुखों से परे है।

जब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल को पार करेगी तब तुम सुने हुए और आगे सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक के भोगों सबके प्रति उदासीन हो जाओगे।

जब तुम्हारी बुद्धि का वेदों के अलंकारमयी खण्डों में आकर्षण समाप्त हो जाए और वह दिव्य चेतना में स्थिर हो जाए तब तुम पूर्ण योग की उच्च अवस्था प्राप्त कर लोगे।

अर्जुन ने कहाः हे केशव! दिव्य चेतना में लीन मनुष्य के क्या लक्षण हैं। वह सिद्ध पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

परम प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: हे पार्थ! जब कोई मनुष्य स्वार्थयुक्त कामनाओं और मन को दूषित करने वाली इन्द्रिय तृप्ति से संबंधित कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है तब ऐसे मानव को दिव्य चेतना में स्थित कहा जा सकता है।

जो मनुष्य किसी प्रकार के दुखों में क्षुब्ध नहीं होता जो सुख की लालसा नहीं करता और जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त रहता है, वह स्थिर बुद्धि वाला मनीषी कहलाता है।

जो सभी परिस्थितियों में अनासक्त रहता है और न ही शुभ फल की प्राप्ति से हर्षित होता है और न ही विपत्ति से उदासीन होता है वही पूर्ण ज्ञानावस्था में स्थित मुनि है।

जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उनके विषय भोगों से खींच लेने के लिए उसी प्रकार से योग्य होता है, जैसे एक कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके उन्हें खोल के भीतर कर लेता है, वह दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।

यद्यपि देहधारी जीव इन्द्रियों के विषयों से अपने को कितना दूर रखे लेकिन इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा बनी रहती है फिर भी जो लोग भगवान को जान लेते हैं, उनकी लालसाएँ समाप्त हो जाती हैं।

हे कुन्ति पुत्र! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल और अशान्त होती है कि वे विवेकशील और आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले मनुष्य के मन को भी अपने वश में कर लेती है।

वे जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और अपने मन को मुझमें स्थिर कर देते हैं, वे दिव्य ज्ञान में स्थित होते हैं।

इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य उनमें आसक्त हो जाता है और आसक्ति कामना की ओर ले जाती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोध निर्णय लेने की क्षमता को क्षीण करता है जिसके कारण स्मृति भ्रम हो जाता है। जब स्मृति भ्रमित हो जाती है तब बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है।

लेकिन जो मन को वश में रखता है वह इन्द्रियों के विषयों का भोग करने पर भी राग और द्वेष से मुक्त रहता है और भगवद्कृपा प्राप्त करता है।

भगवान की दिव्य कृपा से शांति प्राप्त होती है जिससे सभी दुखों का अन्त हो जाता है और ऐसे शांत मन वाले मनुष्य की बुद्धि दृढ़ता से भगवान में स्थिर हो जाती है।

लेकिन असंयमी व्यक्ति का अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता, न ही उसकी बुद्धि दृढ़ होती है और न ही उसका मन भगवान के चिन्तन मे स्थिर हो सकता है जो अपने मन को भगवान में स्थिर नहीं करता, जिसके बिना शान्ति संभव नहीं और शांति के बिना कोई कैसे सुखी रह सकता है?

जिस प्रकार प्रचंड वायु अपने तीव्र वेग से जल पर तैरती हुई नाव को दूर तक बहा कर ले जाती है उसी प्रकार से अनियंत्रित इन्द्रियों मे से कोई एक जिसमें मन अधिक लिप्त रहता है, बुद्धि का विनाश कर देती है।

इसलिए हे महाबाहु। जो मनुष्य इन्द्रियों के विषय भोगों से विरक्त रहता है, वह दृढ़ता से लोकातीत ज्ञान से युक्त हो जाता है।

जिसे सब लोग दिन समझते हैं वह आत्मसंयमी के लिए अज्ञानता की रात्रि है तथा जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मविश्लेषी मुनियों के लिए दिन है।

जिस प्रकार से समुद्र उसमें निरन्तर मिलने वाली नदियों के जल के प्रवाह से विक्षुब्ध नहीं होता उसी प्रकार से ज्ञानी अपने चारों ओर इन्द्रियों के विषयों के आवेग के पश्चात भी शांत रहता है, न कि उस मनुष्य की भांति जो कामनाओं को तुष्ट करने के प्रयास में लगा रहता है।

जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, स्वामित्व के भाव और अंहकार से रहित हो गया हो, वह पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।

हे पार्थ! ऐसी अवस्था में रहने वाली प्रबुद्ध आत्मा जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, वह फिर कभी भ्रमित नहीं होती तब मृत्यु के समय भी इस दिव्य चेतना में स्थित सिद्ध पुरुष जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और भगवान के परम धाम में प्रवेश करता है।