वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥22॥
वासांसि-वस्त्र; जीर्णानि-फटे पुराने; यथा-जिस प्रकार; विहाय-त्याग कर; नवानि–नये; गृहणति-धारण करता है; नरः-मनुष्य; अपराणिअन्य; तथा उसी प्रकार; शरीराणि शरीर को; विहाय-त्याग कर; जीर्णानि-व्यर्थ; अन्यानि-भिन्न; संयाति-प्रवेश करता है; नवानि–नये; देही देहधारी आत्मा।
Translation
BG 2.22: जिस प्रकार से मनुष्य अपने फटे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा पुराने तथा व्यर्थ शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।
Commentary
आत्मा की प्रकृति का निरन्तर निरूपण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण पुनर्जन्म की अवधारणा को दोहराते हुए उसकी तुलना दैनिक क्रिया-कलापों से कर रहे हैं। जब वस्त्र फट जाते हैं या व्यर्थ हो जाते हैं तब हम उन्हें त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं और ऐसा करते समय हम स्वयं को नहीं बदलते। इसी प्रकार समान दृष्टि से जब आत्मा जीर्ण शरीर को छोड़ती है तब उसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता। न्यायशास्त्र में प्रदत्त निम्न तर्क द्वारा पुनर्जन्म की अवधारणा सिद्ध की गयी है।
जातस्य हर्षभयशोक सम्प्रतिपत्तेः।। (न्यायशास्त्र-3.1.18)
उपर्युक्त तर्क के अनुसार यदि हम छोटे शिशु की गतिविधियों पर ध्यानपूर्वक विचार करते हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है कि वह बिना किसी स्पष्ट कारण के कभी प्रसन्न, कभी उदास और कभी भयभीत दिखाई देता है। न्यायशास्त्र के अनुसार छोटा शिशु अपने पूर्वजन्म का स्मरण करता रहता है और इसी कारण समय-समय पर उसकी मनोदशा में परिवर्तन देखने को मिलता है। हालांकि जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती है तब उसके मन-मस्तिष्क मे वर्तमान जीवन के संस्कार पूरी तरह अंकित हो जाते हैं तथा जिसके परिणामस्वरूप उसके पूर्वजन्म की स्मृतियाँ विलुप्त हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया भी अत्यंत पीड़ादायक होती है जो हमारी पूर्वजन्म की स्मृतियों के ठोस अंशों को मिटा देती है। पुनर्जन्म के पक्ष में न्यायशास्त्र का दूसरा तर्क जिसमें यह कहा गया है-“स्तन्याभिलाषात्" (3.1.21)। इसमें यह वर्णन किया गया है कि नवजात शिशु को भाषा का कोई ज्ञान नहीं होता। तब फिर कोई माँ जब अपने बालक के मुँह में अपना स्तन डाल कर उसे दूध पीना या स्तनपान करना कैसे सिखा सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नवजात शिशु ने अपने अनन्त पूर्व जन्मों में यहाँ तक कि पशु की योनी में स्तन, निप्पल और थन से अपनी असंख्य माताओं का दूध पिया होता है। इसलिए जब माँ अपने बच्चे के मुँह में स्तन का अग्रभाग डालती है, तब बच्चा स्वतः अपने पूर्व जन्म के अभ्यास के आधार पर अपनी माँ का स्तनपान करना आरंभ कर देता है। पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार किए बिना मानव मात्र में भेद करना अनिवर्चनीय और तर्कहीनता है। उदाहरणार्थ मान लो यदि कोई व्यक्ति जन्म से अंधा है तब वह व्यक्ति यह कहे कि उसे ऐसा दण्ड क्यों मिला तब इसका तर्कसंगत उत्तर क्या होना चाहिए? यदि हम कहते हैं कि ये सब उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है तब वह यह तर्क देगा कि उसने केवल वर्तमान जीवन को देखा है और इस प्रकार से जन्म लेते समय उसके कोई पूर्वकर्म ही नहीं है जो उसे इस जन्म में बुरा फल देते। यदि हम कहते हैं कि यह भगवान की इच्छा थी तब यह भी अविश्वसनीय लगता है क्योंकि अकारण करुणा-करण भगवान जो सब पर बिना भेदभाव के करुणा करते हैं और वे कभी किसी को अनावश्यक रूप से अंधा नहीं बनाना चाहेंगे। इसकी तर्कसंगत व्याख्या यही है कि वह मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारणवश अंधा है। इस प्रकार सामान्य मत और धर्मग्रंथों के प्रमाणों के आधार पर हमें पूर्वजन्म की अवधारणा को स्वीकार करना चाहिए।