अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥26॥
अथ-यदि, फिर भी; च-और; एनम्-आत्मा; नित्य-जातम्-निरन्तर जन्म लेने वाला; नित्यम्-सदैव; वा–अथवा; मन्यसे-तुम ऐसा सोचते हो; मृतम-निर्जीव; तथा अपि-फिर भी; त्वम्-तुम; महाबाहो बलिष्ठ भुजाओं वाला; न-नहीं; एवम्-इस प्रकार; शोचितुम्–शोक अर्हसि उचित।
Translation
BG 2.26: यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा निरन्तर जन्म लेती है और मरती है तब ऐसी स्थिति में भी, हे महाबाहु अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार से शोक नहीं करना चाहिए।
Commentary
श्रीकृष्ण द्वारा इस श्लोक में 'अथ' शब्द का अर्थ 'यदि' है का प्रयोग करना यह दर्शाता है कि अर्जुन आत्मा की सत्ता की प्रकृति के विषय पर किसी अन्य प्रचलित स्पष्टीकरण पर विश्वास करना चाहेगा। इस श्लोक को भारत में प्रचलित दार्शनिक विचारधाराओं और आत्मा की प्रकृति के संबंध में उनकी विभिन्न मान्यताओं के तात्त्विक संदर्भो के अंतर्गत समझना चाहिए। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय चिन्तन को बारह दर्शनशास्त्रों में समाविष्ट किया गया है। इनमें से छः दर्शन जो वैदिक प्रमाणों को स्वीकार करते हैं उन्हें आस्तिक दर्शन कहा जाता है। ये मीमांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग हैं। इनमें प्रत्येक की अन्य शाखाएँ भी है। उदाहरणार्थ वैदिक दर्शन को आगे फिर छः दर्शनों में विभक्त किया गया है-अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, विशुद्धाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और अचिन्त्य भेदाभेदभाव। आगे इनकी भी अन्य शाखाएँ पायी जाती है, जैसे अद्वैतवाद को दृष्टि-सृष्टिवाद, अवच्छेदवाद, बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद, विवर्तवाद, अजातवाद आदि में विभक्त किया जाता है। यहाँ इन दर्शनशास्त्रों की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाएगी। यह भी संतोषजनक है कि ये सभी दर्शन शास्त्र वेदों के उद्धरणों को अधिकृत रूप स्वीकार करते हैं। तदनुसार ये समस्त दर्शन शास्त्र आत्मा को शाश्वत और अपरिवर्तनशील मानते हैं। भारतीय चिन्तन के शेष छः दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार नहीं करते। यह दर्शन चार्वाकवाद और बौद्धों के चार दर्शन (योगाचारवाद, माध्यमिकवाद, वैभाषिकवाद और सौत्रांतिकवाद) और जैन धर्म हैं। इनमें से प्रत्येक की आत्मा की प्रकृति के संबंध में अलग-अलग धारणाएँ हैं। चार्वाकवाद के अनुसार शरीर स्वयं आत्मा को बनाता है और चेतना केवल उसके अवयवों के समूहों की उत्पत्ति है।
जैन धर्मग्रंथो के अनुसार आत्मा का आकार शरीर के आकार के समान होता है और इसलिए यह एक जन्म से दूसरे जन्म में परिवर्तित होती रहती है। बौद्ध दर्शन की विचारधारा आत्मा के स्थायी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती और इसके स्थान पर उसकी यह मान्यता है कि एक जन्म से दूसरे जन्म में पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है जो आत्मा और मानव जाति की नित्यता सुनिश्चित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के युग में भी आत्मा के पुनर्जन्म और आत्मा के अस्थायित्व के संबंध में बौद्ध दर्शन की विचारधारा विद्यमान थी। इसलिए श्रीकृष्ण यह व्याख्या कर रहे हैं कि यदि अर्जुन आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म अर्थात पुनर्जन्म के विचार को स्वीकार करता है तब भी उसके शोक करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। कोई शोक क्यों न करें? इसे अब अगले श्लोक में स्पष्ट किया जाएगा।