गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥5॥
गुरून्–शिक्षक; अहत्वा-न मारना; हि-निःसंदेह; महा-अनुभावान्-आदरणीय वयोवृद्ध को; श्रेयः-उत्तम; भोक्तुम्-जीवन का सुख भोगना; भैक्ष्यम्-भीख माँगकर; अपि-भी; इह-इस जीवन में; लोके-इस संसार में; हत्वा-वध कर; अर्थ-लाभ; कामान्–इच्छा से; तु–लेकिन; गुरून्-आदरणीय वयोवृद्ध; इह-इस संसार में; एव–निश्चय ही; भुञ्जीय-भोगना; भोगान्-सुख; रूधिर-रक्त से; प्रदिग्धान्-रंजित।
Translation
BG 2.5: ऐसे आदरणीय महापुरुष जो मेरे गुरुजन हैं, को मारकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा तो भीख मांगकर इस संसार में जीवन निर्वाह करना अधिक श्रेयस्कर है। यदि हम उन्हें मारते हैं तो उसके परिणामस्वरूप हम जिस सम्पत्ति और सुखों का भोग करेंगे वे रक्तरंजित होंगे।
Commentary
यह कहना तर्क संगत होगा कि अर्जुन को अपने जीवन निर्वाह के लिए साम्राज्य प्राप्त करने हेतु युद्ध करना चाहिए किन्तु अर्जुन यहां इन तर्को का खण्डन करता है। वह कहता है कि वह ऐसा जघन्य अपराध करने की अपेक्षा भीख मांगकर जीवन निर्वाह करना पसंद करेगा। आगे वह यह तर्क व्यक्त करता है कि यदि वह युद्ध लड़ने जैसे जघन्य अपराध में संलिप्त होकर अपने आदरणीय वयोवृद्धों और बंधु-बान्धवों का वध करता है तो उसकी आत्मा उसके इस कृत्य के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली सुख-संपत्ति और सत्ता का सुख भोगने की अनुमति नहीं देगी। शेक्सपीयर के 'मैकबेथ' नाटक में एक ऐसे उदाहरण का उल्लेख किया गया है कि अपराध बोध से ग्रस्त मनुष्य अच्छी निद्रा का सुख प्राप्त नहीं कर सकता। छल-कपट आदि बुरे कर्मों से प्राप्त की गई सम्पत्ति और सत्ता से सुख और चैन छिन जाता है। मैकबेथ स्काटलैण्ड का एक सम्मानित व्यक्ति था। एक बार यात्रा के दौरान स्कॉटलैण्ड का राजा रात को विश्राम करने के लिए उसके घर ठहरा था। मैकबेथ की पत्नी ने उसे राजा की हत्या कर उसका उसका राज-सिंहासन पाने के लिए उकसाया। मैकबेथ ने उसके परामर्श को स्वीकार कर राजा की हत्या कर दी और उसके पश्चात वह और उसकी पत्नी 'राजा और रानी' के रूप में स्काटलैण्ड के सिंहासन पर बैठ गये। एक वर्ष के पश्चात मैकबेथ अपने महल में अपनी रातें जागकर व्यतीत करने लगा। लेखक लिखता है-“मैकबेथ ने षडयंत्र रचकर सोये हुए राजा को मारा था इसलिए मैकबेथ रात को कभी सो नहीं पाया।" रानी बारंबार अपने हाथों को साफ करते हुए दिखाई देती थी ताकि उसके रक्तरंजित हाथों पर लगे रक्त के धब्बे धुल जाएँ। इस श्लोक में अर्जुन यह संवेदना प्रकट कर रहा है कि यदि वह युद्ध कर इन श्रद्धावान् महानुभावों का वध कर देगा तब उसके हाथ भी रक्तरंजित होंगे और उसकी आत्मा उसे किसी भी प्रकार का राजसी ठाठ बाट और राजसत्ता का सुख भोगने की अनुमति नहीं देगी।