Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 55

श्रीभगवानुवाच। प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥

श्रीभगवान्-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; प्रजहाति–परित्याग करता है; यदा-जब; कामान्–स्वार्थयुक्त; सर्वान् सभी; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; मनः-गतान्-मन की; आत्मनि-आत्मा की; एव-केवल; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-सन्तुष्ट, स्थितप्रज्ञः-स्थिर बुद्धि युक्त; तदा-उस समय, तब; उच्यत–कहा जाता है।

Translation

BG 2.55: परम प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: हे पार्थ! जब कोई मनुष्य स्वार्थयुक्त कामनाओं और मन को दूषित करने वाली इन्द्रिय तृप्ति से संबंधित कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है तब ऐसे मानव को दिव्य चेतना में स्थित कहा जा सकता है।

Commentary

 इस श्लोक से श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ करते हैं और अध्याय के अंत तक निरन्तर उत्तर देते रहते हैं। सभी अंश स्वाभाविक रूप से अपने अंशी की ओर आकर्षित होते हैं। पत्थर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण पृथ्वी पर गिरता है। हमारी आत्मा भगवान का अंश है जो परमानन्द स्वरूप हैं। चूंकि आत्मा अनन्त सुखों के सागर भगवान का अंश है इसलिए वह स्वाभाविक रूप से आनन्द प्राप्त करना चाहती है। जब यह भगवान से आत्मानंद का रस लेने का प्रयास करती है तब इसे 'दिव्य प्रेम' कहते हैं। किन्तु जब अपनी आध्यात्मिक प्रकृति की अज्ञानता के कारण वह स्वंय को शरीर मान लेती है और संसार से प्राप्त होने वाले शरीर के सुखों का भोग करना चाहती है, तब उसे तृष्णा कहते हैं।

धार्मिक ग्रंथों में संसार को मृगतृष्णा कहा गया है जिसका अर्थ हिरण द्वारा देखा जाने वाला 'मृग जल' है। रेगिस्तान की गर्म रेत पर जब सूर्य की किरणों का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है और उससे हिरण को जल का भ्रम हो जाता है। वह समझता है कि रेत के ऊपर जल है और अपनी प्यास बुझाने के लिए उस ओर दौड़ता है। किन्तु वह जितना अधिक जल की ओर भागता है, वह मृगजल वहाँ से विलुप्त होकर उसे और आगे दिखाई देता है। हिरण अपनी मंदबुद्धि के कारण यह नहीं जान पाता कि वह भ्रम के पीछे भाग रहा है। अभागा हिरण मृगजल का पीछा करते हुए भागता रहता है और रेगिस्तान की तपती रेत पर थककर मर जाता है। इसी प्रकार प्राकृत शक्ति माया भी सुख का भ्रम उत्पन्न करती है और हम अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की आशा में  झूठे सुखों के पीछे भागते रहते हैं। हम चाहे कितना भी प्रयत्न क्यों न करें सुख हमारे हाथ नहीं आता और हमसे दूर हो जाता है। गरुड़ पुराण में निम्न प्रकार से उल्लेख किया गया है:

चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्। 

भवितुं सुरपतिरूवंगतित्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।

(गरुड़ पुराण-2.12.14)

 "एक राजा अखिल विश्व का सम्राट बनना चाहता है। सम्राट स्वर्ग का देवता बनना चाहता है और स्वर्ग का देवता स्वर्ग के राजा इन्द्र का पद पाना चाहता है तथा इन्द्र सृष्टि के दूसरे सृजनकर्ता ब्रह्म का पद चाहता है" फिर भी भौतिक सुखों की भूख समाप्त नहीं होती। लेकिन जब कोई अपने मन को भौतिक लालसाओं और विषय भोगों से हटाना सीख लेता है तब ऐसा मनुष्य आत्मा के आंतरिक सुख की अनुभूति करता है और लोकातीत होकर सिद्धावस्था प्राप्त करता है। कठोपनिषद् में इस विषय पर और अधिक बढ़-चढ़कर यह वर्णन किया गया है-अपनी "कामनाओं का परित्याग करने वाला मनुष्य भगवान के समान हो जाता है"

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। 

अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ।।

(कठोपनिषद्-2.3.14) 

"जब कोई अपने मन से समस्त स्वार्थयुक्त कामनाओं का उन्मूलन करता है, तब सांसारिक बंधनों से जकड़ी जीवात्मा जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है और भगवान के समान सदगुणी हो जाती है।" श्रीकृष्ण उपर्युक्त श्लोक में कहते हैं कि लोकातीत अवस्था में स्थित मनुष्य वह है जिसने अपनी कामनाओं और इन्द्रिय तृप्ति का त्याग कर दिया है और जो आत्म संतुष्ट रहता है।

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