विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥
विहाय-त्याग कर; कामान्–भौतिक इच्छाएँ; यः-जो; सर्वान्–समस्त; पुमान्-पुरुष; चरति-रहता है; निःस्पृहः-कामना रहित; निर्ममाः-स्वामित्व की भावना से रहित; निरहंकारः-अहंकार रहित; सः-वह; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति को; अधिगच्छति-प्राप्त करता है।
Translation
BG 2.71: जिस मुनष्य ने अपनी सभी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया हो और इन्द्रिय तृप्ति की लालसा, स्वामित्व के भाव और अंहकार से रहित हो गया हो, वह पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।
Commentary
इस श्लोक में श्रीकृष्ण मनुष्य की शांति के मार्ग में आने वाले बाधक तत्त्वों की व्याख्या कर रहे हैं और फिर अर्जुन को उनका परित्याग करने को कहते हैं।
सांसारिक इच्छाएँ: जिस क्षण हम अपनी इच्छाओं को मन में प्रश्रय देते हैं तब हम लोभ और क्रोध के जाल में फंस जाते हैं। किसी भी प्रकार से हम इनके जाल में फंस जाते हैं इसलिए आंतरिक शांति का मार्ग कामनाओं की तुष्टि करने के स्थान पर उनका उन्मूलन करने से प्राप्त होता है।
लोभः सर्वप्रथम भौतिक उन्नति की लालसा बहुमूल्य समय को व्यर्थ करने जैसा है। यह कभी न समाप्त होने वाली दौड़ है। विकसित देशों के बहुत कम लोग उत्तम रहन-सहन और खान पान से वंचित रहते हैं किन्तु फिर भी वे विक्षुब्ध रहते हैं क्योंकि उनकी लालसाएँ तुष्ट नहीं हुई हैं। अतः जो संतोष का धन पा लेता है वह जीवन की अनमोल निधि पा लेता है।
अहंकारः लोगों के बीच होने वाले अधिकतर विवाद अहंकार से उत्पन्न होते हैं। हॉवर्ड बिजनेस स्कूल के विद्वान और 'व्हॉट दे डोंट टीच यू ऍट हॉवर्ड बिजनेस स्कूल' नामक पुस्तक के लेखक मार्क एच. मैकॉरमैक लिखते हैं-"अधिकतर व्यावसायिक कार्यकारी अधिकारियों में अपनी भुजाओं और पैरों को फैलाए हुए दैत्य के समान अहंकार होता है।" सांख्यिकी के आँकड़ों से विदित होता है कि अधिकतर व्यावसायिक कार्यकारी जो उच्च प्रबंधीय स्तर पर अपनी जीविका छोड़ देते हैं वे ऐसा अपनी व्यावसायिक अक्षमताओं के कारण से नहीं अपितु अपने निजी अहं के कारण करते हैं। अहंकार का पोषण करने और उसे बढ़ाने की अपेक्षा उससे मुक्ति पाने से ही शांति प्राप्त होती है।
स्वामित्वः अज्ञानता के कारण मन में स्वामित्व की भावना उत्पन्न होती है। हम संसार में खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे तब ऐसे में हम सांसारिक पदार्थों को अपना कैसे मान सकते हैं।