चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को दिए जा रहे दिव्य ज्ञान के उद्गम को प्रकट करते हुए उसके विश्वास को पुष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि यह वही शाश्वत ज्ञान है जिसका उपदेश उन्होंने आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया था और फिर परम्परागत पद्धति से यह ज्ञान निरन्तर राजर्षियों तक पहँचा। अब वे अर्जुन, जो उनका प्रिय मित्र और परमभक्त है, के सम्मुख इस दिव्य ज्ञान को प्रकट कर रहे हैं। तब अर्जुन प्रश्न करता है कि वे श्रीकृष्ण जो वर्तमान में उसके सम्मुख खड़े हैं वे इस ज्ञान का उपदेश युगों पूर्व सूर्यदेव को कैसे दे सके? इसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण अपने अवतारों का रहस्य प्रकट करते हैं। वे बताते हैं कि भगवान अजन्मा और सनातन हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा धर्म की स्थापना के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं लेकिन उनके जन्म और कर्म दिव्य होते हैं और वे भौतिक विकारों से दूषित नहीं हो सकते। जो इस रहस्य को जानते हैं वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं और उन्हें प्राप्त कर फिर इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते।
इसके पश्चात् इस अध्याय में कर्म की प्रकृति का व्याख्यान किया गया है और कर्म, अकर्म तथा विकर्म से संबंधित तीन सिद्धातों पर चर्चा की गयी है। इनसे विदित होता है कि कर्मयोगी अनेक प्रकार के सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अकर्मा की अवस्था प्राप्त कर लेते हैं और इसलिए वे कर्मचक्र में नहीं फंसते।
इसी ज्ञान के कारण प्राचीन काल में ऋषि मुनि सफलता और असफलता, सुख-दुःख से प्रभावित हुए बिना केवल भगवान के सुख के लिए कर्म करते थे। यज्ञ कई प्रकार के होते हैं और इनमें से कई यज्ञों का उल्लेख यहाँ किया गया है। जब यज्ञ पूर्ण समर्पण की भावना से सम्पन्न किए जाते हैं तब इनके अवशेष अमृत के समान बन जाते हैं। ऐसे अमृत का पान करने से साधक के भीतर की अशुद्धता समाप्त हो जाती है। इसलिए यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण निष्ठा और ज्ञान के साथ करना चाहिए। ज्ञान रूपी नौका की सहायता से महापापी भी संसार रूपी कष्टों के सागर को सरलता से पार कर लेता है। ऐसा दिव्य ज्ञान वास्तविक आध्यात्मिक गुरु से प्राप्त करना चाहिए जो परम सत्य को जान चुका हो। श्रीकृष्ण गुरु के रूप में अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान की खड्ग से अपने हृदय में उत्पन्न हुए सन्देहों को काट दो, उठो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का पालन करो।
Bhagavad Gita 4.1 View commentary »
परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मैने इस शाश्वत ज्ञानयोग का उपदेश सूर्यदेव, विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनु और फिर इसके बाद मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।
Bhagavad Gita 4.2 View commentary »
हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने गुरु परम्परा पद्धति द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया।
Bhagavad Gita 4.3 View commentary »
उसी प्राचीन गूढ़ योगज्ञान को आज मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे मित्र एवं मेरे भक्त हो इसलिए तुम इस दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो।
Bhagavad Gita 4.4 View commentary »
अर्जुन ने कहा! आपका जन्म विवस्वान् के बहुत बाद हुआ तब मैं फिर यह कैसे मान लूं कि प्रारम्भ में आपने उन्हें इस ज्ञान का उपदेश दिया था।
Bhagavad Gita 4.5 View commentary »
तुम्हारे और मेरे अनन्त जन्म हो चुके हैं किन्तु हे परन्तप! तुम उन्हें भूल चुके हो जबकि मुझे उन सबका स्मरण है।
Bhagavad Gita 4.6 View commentary »
यद्यपि मैं अजन्मा और समस्त जीवों का स्वामी और अविनाशी हूँ तथापि मैं इस संसार में अपनी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा प्रकट होता हूँ।
Bhagavad Gita 4.7 View commentary »
जब जब धरती पर धर्म की ध्वनि और अधर्म में वृद्धि होती है तब उस समय मैं पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ।
Bhagavad Gita 4.8 View commentary »
भक्तों का उद्धार, दुष्टों का विनाश और धर्म की मर्यादा को पुनः स्थापित करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।
Bhagavad Gita 4.9 View commentary »
हे अर्जुन! जो मेरे जन्म एवं कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानते हैं वे शरीर छोड़ने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेते अपितु मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं।
Bhagavad Gita 4.10 View commentary »
आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त होकर पूर्ण रूप से मुझमें तल्लीन होकर मेरी शरण ग्रहण कर पहले भी अनेक लोग मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं और इस प्रकार से उन्होंने मेरा दिव्य प्रेम प्राप्त किया है।
Bhagavad Gita 4.11 View commentary »
जिस भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं उसी भाव के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग जाने या अनजाने में मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।
Bhagavad Gita 4.12 View commentary »
इस संसार में जो लोग सकाम कर्मों में सफलता चाहते हैं वे लोग स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि सकाम कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त होता है।
Bhagavad Gita 4.13 View commentary »
मनुष्यों के गुणों और कर्मों के अनुसार मेरे द्वारा चार वर्णों की रचना की गयी है। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ किन्तु तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी मानो।
Bhagavad Gita 4.14 View commentary »
न तो कर्म मुझे दूषित करते हैं और न ही मैं कर्म के फल की कामना करता हूँ जो मेरे इस स्वरूप को जानता है वह कभी कर्मफलों के बंधन में नहीं पड़ता।
Bhagavad Gita 4.15 View commentary »
इस सत्य को जानकर प्राचीन काल में मुमुक्षुओं ने भी कर्म किए इसलिए तुम्हे भी उन मनीषियों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
Bhagavad Gita 4.16 View commentary »
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्धारण करने में बद्धिमान लोग भी विचलित हो जाते हैं अब मैं तुम्हें कर्म के रहस्य से अवगत कराऊँगा जिसे जानकर तुम सारे लौकिक बंधनों से मुक्त हो सकोगे।
Bhagavad Gita 4.17 View commentary »
तुम्हें सभी तीन कर्मों-कर्म, विकर्म और अकर्म की प्रकृति को समझना चाहिए। इनके सत्य को समझना कठिन है।इनका ज्ञान गलत है।
Bhagavad Gita 4.18 View commentary »
वे मनुष्य जो अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म को देखते हैं, वे सभी मनुष्यों में बुद्धिमान होते हैं। सभी प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी वे योगी कहलाते हैं और अपने सभी कर्मों में पारंगत होते हैं।
Bhagavad Gita 4.19 View commentary »
जिन मनुष्यों के समस्त कर्म सांसारिक सुखों की कामना से रहित हैं तथा जिन्होंने अपने कर्म फलों को दिव्य ज्ञान की अग्नि में भस्म कर दिया है उन्हें आत्मज्ञानी संत बुद्धिमान कहते हैं।
Bhagavad Gita 4.20 View commentary »
अपने कर्मों के फलों की आसक्ति को त्याग कर ऐसे ज्ञानीजन सदा संतुष्ट रहते हैं और बाह्य विषयों पर निर्भर नहीं होते। कर्मों में संलग्न रहने पर भी वे वास्तव में कोई कर्म नहीं करते।
Bhagavad Gita 4.21 View commentary »
ऐसे ज्ञानीजन फल की आकांक्षाओं और ममत्व की भावना से मुक्त होकर अपने मन और बुद्धि को संयमित रखते हैं और शरीर से कर्म करते हुए भी कोई पाप अर्जित नहीं करते।
Bhagavad Gita 4.22 View commentary »
वे जो अपने आप स्वतः प्राप्त हो जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, ईर्ष्या और द्वैत भाव से मुक्त रहते हैं, वे सफलता और असफलता दोनों में संतुलित रहते हैं, जो सभी प्रकार के कार्य करते हुए कर्म के बंधन में नहीं पड़ते।
Bhagavad Gita 4.23 View commentary »
"वे सांसारिक मोह से मुक्त हो जाते हैं और उनकी बुद्धि दिव्य ज्ञान में स्थित हो जाती है क्योंकि वे अपने सभी कर्म यज्ञ के रूप में भगवान के लिए सम्पन्न करते हैं और इसलिए वे कर्मफलों से मुक्त रहते हैं।"
Bhagavad Gita 4.24 View commentary »
जो मनुष्य पूर्णतया भगवत्च्चेतना में तल्लीन रहते हैं उनका हवन ब्रह्म है, हवन सामग्री ब्रह्म है और वह पात्र जिससे आहुति डाली जाती है वह ब्रह्म है, अर्पण कार्य ब्रह्म है और यज्ञ की अग्नि भी ब्रह्म है। ऐसे मनुष्य जो प्रत्येक वस्तु को भगवान के रूप में देखते हैं वे सहजता से उसे पा लेते हैं।
Bhagavad Gita 4.25 View commentary »
कुछ योगी सांसारिक पदार्थों की आहुति देते हुए यज्ञ द्वारा देवताओं की पूजा करते हैं। अन्य लोग जो वास्तव में आराधना करते हैं वे परम सत्य ब्रह्मरूपी अग्नि में आत्माहुति देते हैं।
Bhagavad Gita 4.26 View commentary »
कुछ योगीजन श्रवणादि क्रियाओं और अन्य इन्द्रियों को संयमरूपी यज्ञ की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं और जबकि कुछ अन्य शब्दादि क्रियाओं और इन्द्रियों के अन्य विषयों को इन्द्रियों के अग्निरूपी यज्ञ में भेंट चढ़ा देते हैं।
Bhagavad Gita 4.27 View commentary »
दिव्य ज्ञान से प्रेरित होकर कुछ योगी संयमित मन की अग्नि में अपनी समस्त इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राण शक्ति को भस्म कर देते हैं।
Bhagavad Gita 4.28 View commentary »
कुछ लोग यज्ञ के रूप में अपनी सम्पत्ति को अर्पित करते हैं। कुछ अन्य लोग यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करते हैं और कुछ योग यज्ञ के रूप में अष्टांग योग का अभ्यास करते हैं और जबकि अन्य लोग यज्ञ के रूप में वैदिक ग्रंथों का अध्ययन और ज्ञान पोषित करते हैं जबकि कुछ कठोर प्रतिज्ञाएँ करते हैं।
Bhagavad Gita 4.29 – 4.30 View commentary »
कुछ अन्य लोग भी हैं जो बाहर छोड़े जाने वाली श्वास को अन्दर भरी जाने वाली श्वास में जबकि अन्य लोग अन्दर भरी जाने वाली श्वास को बाहरी श्वास में रोककर यज्ञ के रूप में अर्पित करते हैं। कुछ प्राणायाम की कठिन क्रियाओं द्वारा भीतरी और बाहरी श्वासों को रोककर प्राणवायु को नियंत्रित कर उसमें पूरी तरह से तल्लीन हो जाते हैं। कुछ योगी जन अल्प भोजन कर श्वासों को यज्ञ के रूप में प्राण शक्ति में अर्पित कर देते हैं। सब प्रकार के यज्ञों को संपन्न करने के परिणामस्वरूप साधक स्वयं को शुद्ध करते हैं।
Bhagavad Gita 4.31 View commentary »
इन यज्ञों का रहस्य जानने वाले और इनका अनुष्ठान करने वाले, इन यज्ञों के अमृततुल्य अवशिष्टांश का आस्वादन कर परम सत्य की ओर बढ़ते हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! जो लोग यज्ञ नहीं करते, वे न तो इस संसार में और न ही अगले जन्म में सुखी रह सकते हैं।
Bhagavad Gita 4.32 View commentary »
विभिन्न प्रकार के इन सभी यज्ञों का वर्णन वेदों में किया गया है और इन्हें विभिन्न कर्मों की उत्पत्ति का रूप मानो, यह ज्ञान तुम्हें माया के बंधन से मुक्त करेगा।
Bhagavad Gita 4.33 View commentary »
हे शत्रुओं के दमन कर्ता! ज्ञान युक्त होकर किया गया यज्ञ किसी प्रकार के भौतिक या द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अंततः सभी यज्ञों की परिणति दिव्य ज्ञान में होती है।
Bhagavad Gita 4.34 View commentary »
आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका होता है।
Bhagavad Gita 4.35 View commentary »
इस मार्ग का अनुसरण कर और गुरु से ज्ञानावस्था प्राप्त करने पर, हे अर्जुन! तुम कभी मोह में नहीं पड़ोगे क्योंकि इस ज्ञान के प्रकाश में तुम यह देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा का अंश हैं और वे सब मुझमें स्थित हैं।
Bhagavad Gita 4.36 View commentary »
जिन्हें समस्त पापों का महापापी समझा जाता है, वे भी दिव्यज्ञान की नौका में बैठकर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ हो सकते हैं।
Bhagavad Gita 4.37 View commentary »
जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी को स्वाहा कर देती है उसी प्रकार से हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों से प्राप्त होने वाले समस्त फलों को भस्म कर देती है।
Bhagavad Gita 4.38 View commentary »
इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी शुद्ध नहीं है। जो मनुष्य दीर्घकालीन योग के अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध कर लेता है वह उचित समय पर हृदय में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।
Bhagavad Gita 4.39 View commentary »
वे जिनकी श्रद्धा अगाध है और जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है, वे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस दिव्य ज्ञान के द्वारा वे शीघ्र ही कभी न समाप्त होने वाली परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं।
Bhagavad Gita 4.40 View commentary »
किन्त जिन अज्ञानी लोगों में न तो श्रद्धा और न ही ज्ञान है और जो संदेहास्पद प्रकृति के होते हैं उनका पतन होता है। संदेहास्पद जीवात्मा के लिए न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख है।
Bhagavad Gita 4.41 View commentary »
हे अर्जुन। कर्म उन लोगों को बंधन में नहीं डाल सकते जिन्होंने योग की अग्नि में कर्मों को विनष्ट कर दिया है और ज्ञान द्वारा जिनके समस्त संशय दूर हो चुके हैं वे वास्तव में आत्मज्ञान में स्थित हो जाते हैं।
Bhagavad Gita 4.42 View commentary »
अतः तुम्हारे हृदय में अज्ञानतावश जो संदेह उत्पन्न हुए हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट दो। हे भरतवंशी अर्जुन! स्वयं को योग में निष्ठ करो। उठो खड़े हो जाओ और युद्ध करो।