Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥2॥

एवम्-इस प्रकार; परम्परा-सतत परम्परागत; प्राप्तम्–प्राप्त; इमम-इस विज्ञान को; राज-ऋषयः-राजर्षियों ने; विदुः-जाना; सः-वह; कालेन-अनंत युगों के साथ; इह-इस संसार में; महता-महान; योग:-योग शास्त्र; नष्ट:-विलुप्त होना; परन्तप-शत्रुओं का दमनकर्ता, अर्जुन।

Translation

BG 4.2:

हे शत्रुओं के दमन कर्ता! इस प्रकार राजर्षियों ने गुरु परम्परा पद्धति द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान संसार से लुप्त हो गया।

Commentary

दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की परम्परागत पद्धति के अंतर्गत शिष्य, भगवत्प्राप्ति गुरु परम्परा द्वारा अपने गुरु से पाते थे जो गुरु को भी परम्परागत पद्धति से प्राप्त होती थी। इसी परम्परा के अंतर्गत निमी और जनक जैसे राजर्षियों ने ज्ञानयोग की विद्या प्राप्त की। इस परम्परा का आरम्भ स्वयं भगवान ने किया जो इस संसार के प्रथम गुरु हैं। पद्धति से प्राप्त होती थी। इसी परम्परा के अंतर्गत निमि और जनक जैसे राजर्षियों ने ज्ञानयोग की विद्या प्राप्त की। इस परम्परा का आरम्भ स्वयं भगवान ने किया जो इस संसार के प्रथम गुरु हैं।

तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवयेमुह्यन्ति यत्सूरयः। (श्रीमद्भागवतम्-1.1.1) 

भगवान ने सर्वप्रथम आदिजन्मा ब्रह्माजी के हृदय में बैठकर उन्हें इसका ज्ञान दिया और ब्रह्माजी से यह परम्परा निरन्तर चलती रही। श्रीकृष्ण ने पिछले श्लोक में कहा कि उन्होंने यह ज्ञान सूर्य देवता विवस्वान् को दिया जिससे यह परम्परा आगे बढ़ती रही। किन्तु लौकिक जगत की प्रकृति इस प्रकार की है कि कालक्रम के साथ यह ज्ञान विलुप्त हो गया। अब लौकिक मनोवृत्ति वाले और निष्ठाहीन शिष्य इस ज्ञान की व्याख्या अपने निहित उद्धेश्यों के अनुसार करते हैं। केवल कुछ पीढ़ियों में ही इसकी पवित्रता दूषित हो गयी। जब ऐसा होता है तब भगवान अपनी अकारण कृपा द्वारा इस परम्परागत ज्ञान पद्धति को मानव समाज के कल्याण के लिए पुनः स्थापित करते हैं। वह ऐसा लोक कल्याण का कार्य संसार में स्वयं प्रकट होकर करते हैं या अपने भगवद् अनुभूत श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संतों द्वारा करवाते हैं जो पृथ्वी पर भगवान के कार्य के वाहक के रूप में प्रकट होते हैं।

 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज जो भारतीय इतिहास में पाँचवें मूल जगद्गुरु थे। वे ऐसे भगवतप्राप्त संत थे जिन्होंने आधुनिक समय में प्राचीन वैदिक ज्ञान की महत्ता को पुनः स्थापित किया। जब वे केवल 34 वर्ष के थे तब काशी विद्वत् परिषद के 500 विद्वानों की सर्वोच्च सभा ने उन्हें 'जगद्गुरु' अर्थात 'विश्व के आध्यात्मिक गुरु' की उपाधि से सम्मानित किया। इस प्रकार से वे भारतीय इतिहास में 'जगद्गुरु' की उपाधि प्राप्त करने वाले पाँचवें संत बने। इससे पूर्व इतिहास में केवल 4 ही मूल गुरु हुए-1. आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, 2. जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, 3. जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य और 4. जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य। प्राचीन वैदिक ग्रंथों पर उनके पूर्ण ज्ञान से काशी विद्वत् परिषद के सभी विद्वान इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने इन्हें बहुत सी उपाधियों से विभूषित किया। भगवद्गीता का यह भाष्य और इसके श्लोकों का ज्ञान श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मुझे दिए गए दिव्यज्ञान पर आधारित है।