Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सऊं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥10॥

ब्रह्मण-भगवान् को; आधाय–समर्पित; कर्माणि-समस्त कार्यों को; सङ्गगम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्यागकर; करोति-करना यः-जो; लिप्यते-प्रभावित होता है; न कभी नहीं; स:-वह; पापेन-पाप से; पद्म-पत्रम्-कमल पत्र; इव-के समान; अम्भसा-जल द्वारा।

Translation

BG 5.10: वे जो अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर सभी प्रकार से आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पापकर्म से उसी प्रकार से अछूते रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं कर पाता।

Commentary

हिन्दू और बौद्ध दोनों धर्मों के धार्मिक ग्रंथ कमल के पुष्प की उपमाओं से भरे पड़े हैं। भगवान के दिव्य स्वरूप के विभिन्न अंगों का निरूपण करते समय कमल के पुष्प का नाम आदरपूर्वक लिया जाता है। इसलिए चरण कमल का अर्थ 'कमल के समान चरण', 'कमल चक्षु' का अर्थ कमल के समान नेत्र, 'कर कमल' का अर्थ 'कमल के समान हाथ' इत्यादि। कमल के पुष्प का एक अन्य नाम 'पंकज' है जिसका अर्थ 'कीचड़ में जन्म लेना' है और कमल का फूल सरोवर के तल पर जमे कीचड़ में जन्म लेता है फिर भी यह अपनी सुन्दरता को बनाए रखते हुए जल से ऊपर आकर सूर्य की ओर खिलता है। इसलिए संस्कृत साहित्य में किसी गंदगी में उत्पन्न होने वाली उस वस्तु के लिए कमल के फूल का उदाहरण दिया जाता है जो बाद में उसके ऊपर विकसित होकर अपने सौन्दर्य और पवित्रता को बनाए रखता है।

 इसके अतिरिक्त कमल के पौधों के बड़े पत्ते जो सरोवर के जल की सतह पर तैरते रहते हैं, उन कमल के पत्तों का भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में थाली के रूप में प्रयोग किया जाता है क्योंकि ये जल सह होते हैं और इन पर डाला गया तरल पदार्थ सोखता नहीं, बल्कि बह जाता है। कमल के पत्ते की सुन्दरता ऐसी होती है कि यद्यपि कमल का पुष्प अपने जन्म, विकास और जीवन निर्वाह के लिए जल का ऋणी होता है किन्तु वह स्वयं को जल से भीगने नहीं देता। कमल पत्रों पर डाला गया जल उसकी सतह पर उगने वाले छोटे रोयों के कारण एक किनारे की ओर से बह जाता है। इस प्रकार कमल पर्ण की सुन्दर उपमा देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे यह जल की सतह पर तैरता रहता है और स्वयं को जल से भीगने नहीं देता उसी प्रकार से कर्मयोगी सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी पाप से अछूते रहते हैं क्योंकि वे दिव्य चेतना में लीन होकर अपने कर्म करते हैं।

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