स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥28॥
स्पर्शान्-इन्द्रिय का विषयों से सम्पर्क; कृत्वा-करना; बहिः-बाहरी; बाह्यान्–बाहरी विषय; चक्षुः-आंखें; च और; एव–निश्चय ही; अन्तरे-मध्य में; भ्रवोः-भौहों के; प्राण-अपानो-बाहरी और भीतरी श्वास; समौ-समान; कृत्वा-करना; नास-अभ्यन्तर-नासिका छिद्रों के भीतर; चारिणौ-गतिशील; यत-संयमित; इन्द्रिय-इन्द्रियाँ; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; मुनिः-योगी; मोक्ष-मुक्ति; परायणः-समर्पित; विगत-मुक्त; इच्छा–कामनाएँ; भय-डर; क्रोधः-क्रोध; यः-जो; सदा-सदैव; मुक्तः-मुक्ति; एव–निश्चय ही; सः-वह व्यक्ति।
Translation
BG 5.27-28: समस्त बाह्य सुख के विषयों का विचार न कर अपनी दृष्टि को भौहों के बीच में स्थित कर, नासिका में विचरने वाली भीतरी और बाहरी श्वासों के प्रवाह को सम करते हुए इन्द्रिय, मन और बुद्धि को संयमित करके जो ज्ञानी कामनाओं और भय को त्याग देता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
Commentary
प्रायः वैरागी लोगों की रुचि अष्टांगयोग या हठयोग में भी होती है। उनकी विरक्ति उन्हें भक्ति के मार्ग से उदासीन रखती है जिसमें भगवान के नाम, रूपों, लीलाओं और धाम का स्मरण करना आवश्यक होता है। श्रीकृष्ण यहाँ तपस्वियों द्वारा अपनाए गए मार्ग का वर्णन करते हैं-
वे कहते हैं कि ऐसे तपस्वी अपनी दृष्टि और श्वास को नियंत्रित कर विषयों का चिंतन बंद कर देते हैं। वे अपनी दृष्टि को भौहों के मध्य में केन्द्रित करते हैं। यदि नेत्रों को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए तो निद्रा आने की संभावना रहती है और यदि आंखों को खुला रखा जाये तब वे अपने आस-पास की वस्तुओं से व्याकुल हो सकते हैं। इन दोनों दोषों से बचने के लिए योगी लोग अपनी अधखुली आंखों से दृष्टि को भौहों के मध्य या नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करते हैं। वे 'प्राण' अर्थात् बाहर छोड़ी जाने वाली श्वास को 'आपान' अर्थात् अन्दर भरी जाने वाली श्वास के साथ तब तक समरूप करते हैं जब तक कि दोनों यौगिक समाधि में विलीन न हो जायें। यह यौगिक क्रिया इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर नियंत्रण पाने के योग्य बनाती है। ऐसे योगी लोगों का एक मात्र लक्ष्य माया के बंधनों से मुक्त पाना होता है। ऐसे योगियों को आत्मज्ञान तो प्राप्त हो जाता है किन्तु उन्हें ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं होता। किंतु तपस्या का मार्ग भी भगवान की भक्ति के द्वारा ही पूर्ण होता है। इसे अगले श्लोक में व्यक्त किया गया है।