Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 4

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥

सांख्य-कर्म का त्याग; योगौ-कर्मयोगः पृथक्-भिन्न; बाला:-अल्पज्ञ; प्रवदन्ति-कहते हैं; न कभी नहीं; पण्डिताः-विद्वान्; एकम्-एक; अपि-भी; आस्थित:-स्थित होना; सम्यक्-पूर्णतया; उभयोः-दोनों का; विन्दते-प्राप्त करना है; फलम् परिणाम।

Translation

BG 5.4: केवल अज्ञानी ही 'सांख्य' या 'कर्म संन्यास' को कर्मयोग से भिन्न कहते हैं जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे यह कहते हैं कि इन दोनों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं।

Commentary

 यहाँ श्रीकृष्ण ने सांख्य शब्द का प्रयोग कर्म संन्यास या ज्ञान पोषित करने की इच्छा के साथ कर्म का परित्याग करने के रूप में किया है। यहाँ दो प्रकार के वैराग्य को समझना आवश्यक है-(1) फल्गु वैराग्य। (2) युक्त वैराग्य। फल्गु वैराग्य वह है जिसमें लोग संसार को बोझ के रूप में देखते हैं और अपने उत्तरदायित्वों और कठिन परिश्रम से छुटकारा पाने की इच्छा से इसका त्याग करते हैं। ऐसा वैराग्य पलायनवादी मनोवृत्ति है और यह स्थायी नहीं होता। ऐसे मनुष्यों का वैराग्य चुनौतियों का सामना न करने की इच्छा से प्रेरित होता है। ऐसे मनुष्यों को जब आध्यात्मिक मार्ग में आने वाली विपत्तियों का सामना करना पड़ता है तब वे अध्यात्मिक मार्ग को त्यागकर लौकिक जीवन में लौटने की इच्छा करने लगते हैं। युक्त वैराग्य में लोग समस्त जगत को भगवान की शक्ति के रूप में देखते हैं। जो कुछ भी उनके स्वामित्व में होता है उसे वे अपना नहीं समझते और अपने लिए उसका उपयोग भी नहीं करना चाहते। इसके स्थान पर भगवान ने उन्हें जो कुछ दिया है उसी के साथ वे भगवान की सेवा की भावना से प्रेरित होते हैं। युक्त वैराग्य स्थायी होता है और इसका अनुसरण करने वाले कभी विपत्तियों से भयभीत नहीं होते। 

कर्मयोगी बाह्य रूप से अपने दैनिक कार्यों को करते हुए युक्त वैराग्य की भावना को विकसित करते हैं। वे भगवान को भोक्ता के रूप में और स्वयं को भगवान का सेवक मानते हैं तथा इसलिए वे समस्त कार्य कलापों को भगवान के सुख के लिए करने की चेतना में स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार से उनकी आंतरिक अवस्था उन कर्म संन्यासियों के समान हो जाती है जो पूर्ण रूप से दिव्य चेतना में लीन रहते हैं। बाह्य दृष्टि से वे सांसारिक व्यक्ति प्रतीत होते हैं किन्तु आन्तरिक रूप से वे किसी संन्यासी से कम नहीं होते। पुराणों और इतिहास में कई महान राजाओं के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने यद्यपि बाह्य दृष्टि से अपनी पूरी कुशलता से शासकीय कर्तव्यों का निर्वहन किया और राजसी ठाट बाट में जीवन व्यतीत किया किन्तु मानसिक दृष्टि से वे लोग पूर्णतया भगवद्चेतना में तल्लीन रहे। प्रह्लाद्, धुव्र, अम्बरीष, पृथु, विभीषण और युधिष्ठिर आदि सब राजा ऐसे कर्मयोग का उदाहरण हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है:

गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।

विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः।।

(श्रीमद्भागवतम्-11.2.48) 

"वह जो इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण तो करता है किन्तु न तो उनके लिए ललचाता है और न ही उनसे दूर भागता है। वह इस दिव्य चेतना में स्थित होता है कि संसार में सब कुछ भगवान की शक्ति है और इनका उपभोग उसी की सेवा के लिए करना चाहिए, ऐसा व्यक्ति परम भक्त होता है।" इस प्रकार सच्चे ज्ञानियों की दृष्टि में कर्मयोग और कर्म संन्यास में कोई भेद नहीं होता क्योंकि दोनों में से किसी एक का अनुसरण करने से दोनों का फल प्राप्त होता है।

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