Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥30॥

यः-जो; माम्-मुझे; पश्यति-देखता है; सर्वत्र-सभी जगह; सर्वम्-प्रत्येक पदार्थ में; च और; मयि–मुझमें; पश्यति-देखता है; तस्य-उसके लिए; अहम्-मैं; न-नहीं; प्रणश्यामि-अप्रकट होता हूँ; सः-वह; च-और; मे मेरे लिए; न-नहीं; प्रणश्यति–अदृश्य होता है।

Translation

BG 6.30: वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।

Commentary

भगवान को खोने से तात्पर्य मन का भगवान से विमुख होकर भटकना है और उसमें मन के लगने का अर्थ मन को भगवान में एकत्व कर उसके सम्मुख होना है। मन को भगवान के साथ जोड़ने का सरल उपाय सीखने के लिए सभी पदार्थों को भगवान से संबंधित देखना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि कोई हमें आहत करता है तब मन अपनी प्रवृति के अनुसार भावुक होकर हमें आहत करने वाले के प्रति रोष और घृणा व्यक्त करता है। यदि हम मन को ऐसा करने की अनुमति देते हैं तब हमारा मन आध्यात्मिक क्षेत्र से दूर भाग जाता है और मन की भगवान के साथ भक्तिमयी एकीकरण की संभावना समाप्त हो जाती है। इसके स्थान पर यदि हम उस व्यक्ति के भीतर भगवान की अनुभूति करते हैं तब कोई ऐसा सोचेगा-"भगवान इस व्यक्ति के माध्यम से मेरी परीक्षा ले रहे हैं क्योंकि वे मेरे भीतर सहिष्णुता के गुण को बढ़ाना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने इस व्यक्ति को मेरे साथ दुर्व्यवहार करने की प्रेरणा दी होगी लेकिन मैं अपने मन को इस घटना से मुझे विक्षुब्ध करने की स्वीकृति नहीं दूंगा।" इस प्रकार से सोचकर हम अपने मन को नकारात्मक मनोभावों का शिकार बनने से रोकने में समर्थ हो सकते हैं। इसी प्रकार से मन जब मित्र या सगे संबंधी में आसक्त हो जाता है तब वह भगवान से विमुख हो जाता है। ऐसे में यदि हम मन को प्रशिक्षित करें कि वह उस व्यक्ति में भगवान को देखें तब प्रत्येक समय जब मन उस व्यक्ति या महिला में भटकने लगे तब किसी को यह सोचना चाहिए–'भगवान श्रीकृष्ण उस व्यक्ति या महिला के भीतर उपस्थित हैं। इसलिए मैं इन पर आकर्षित हो रहा हूँ।' इस विधि से मन स्थिर होकर निरन्तर परमेश्वर की भक्ति में लीन रहेगा। 

कई बार मन अतीत की घटनाओं पर शोक व्यक्त करता है। इससे पुनः मन दिव्य आध्यात्मिक क्षेत्र से विलग हो जाता है। क्योंकि शोक मन को अतीत में उलझा देता है और इससे वर्तमान में भगवान और गुरु का चिन्तन समाप्त हो जाता है। यदि हम उन घटनाओं का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखते हैं तब कोई यह विचार करेगा-" भगवान ने जान-बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की थी ताकि मैं संसार के कष्टों का अनुभव कर सकू जिससे मैं सांसारिक आकर्षणों से विरक्त होने के योग्य बन पाऊँ। भगवान मेरे कल्याण के संबंध में अत्यंत चिन्तित हैं इसलिए उन्होंने मुझ पर दया करके ऐसी उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं जो कि मेरे आध्यात्मिक उत्थान के लिए अत्यंत लाभदायक हैं।" ऐसा सोचकर हम भगवान की भक्ति को सुरक्षित रखने के योग्य बन सकते हैं।

लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।। 

(नारद भक्तिदर्शन सूत्र-61)

 "जब हम संसार में कठिनाइयों का सामना करे, तब हमें शोक या इन पर चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इन घटनाओं को भगवान की कृपा के रूप में देखना चाहिए।" यदि हमारा निजी स्वार्थ किसी भी प्रकार से कहीं अन्यत्र या भगवान के अलावा मन में किसी अन्य को प्रश्रय देता है तब इसको समझाने का सरल उपाय सर्वत्र सभी पदार्थों और समस्त जीवों में भगवान को देखना है। यह अभ्यास का चरण है जो धीरे-धीरे पूर्णता की ओर ले जाता है और फिर जैसे कि इस श्लोक में उल्लेख किया गया है कि हम कभी भगवान के लिए अदृश्य नहीं होंगे और भगवान हमारे लिए अदृश्य नहीं होंगे।