Bhagavad Gita: Chapter 7, Verse 15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥15॥

न–नहीं; माम् मेरी; दुष्कृतिन:-बुरा करने वाले; मूढाः-अज्ञानी; प्रपद्यन्ते–शरण ग्रहण करते हैं; नर-अधमाः-अपनी निकृष्ट प्रवृति के अधीन आलसी लोग; मायया भगवान की प्राकृत शक्ति द्वारा; अपहृत- ज्ञानाः-भ्रमित बुद्धि वाले; आसुरम्-आसुरी; भावम्-प्रकृति वाले; आश्रिताः-शरणागति।

Translation

BG 7.15: चार प्रकार के लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते-वे जो ज्ञान से वंचित हैं, वे जो अपनी निकृष्ट प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, जिनकी बुद्धि भ्रमित है और जो आसुरी प्रवृति के हैं।

Commentary

श्रीकृष्ण ने निम्नानुसार उन चार प्रकार के मनुष्यों की श्रेणियाँ बताई हैं जो उनकी शरण ग्रहण नहीं करते।

(1) अज्ञानी मनुष्यः ये लोग आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित होते हैं। वे शाश्वत आत्मा के रूप में अपनी पहचान करने और जीवन के लक्ष्य के संबंध में अनभिज्ञ रहते हैं जो कि प्रेममयी भक्ति के साथ भगवान को समर्पण करने की प्रक्रिया है। ज्ञान की कमी उन्हें भगवान के शरणागत होने से रोकती है। 

(2) वे जो आलस्य के कारण निकृष्ट प्रवृत्ति का अनुसरण करते हैं: वे मनुष्य जिनके पास मौलिक आध्यात्मिक ज्ञान होता है और उन्हें यह बोध भी होता है कि उन्हें क्या करना है। किन्तु फिर भी ऐसे मनुष्य अपनी निकृष्ट प्रवृत्ति की जड़ता के दबाव के कारण भगवान की शरण ग्रहण करने का प्रयास नहीं करते। धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार किसी मनुष्य द्वारा अपने दायित्वों का पालन करने के प्रयासों के माध्यम से आध्यात्म मार्ग पर अग्रसर न होने के लिए आलस्य को सबसे बड़ा दोषी माना गया है। 

संस्कृत भाषा में इस प्रकार से कहा गया है-

आलस्य ही मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

 "आलस्य एक बड़ा शत्रु है और यह हमारे शरीर में रहता है। कर्म मनुष्य का अच्छा मित्र है जो कभी पतन की ओर नहीं ले जाता।" 

(3) वे जो भ्रमित बुद्धि वाले होते हैं: संसार में ऐसे कई मनुष्य हैं जिन्हें अपनी बुद्धि पर घमंड होता है। यद्यपि वे संतो और धार्मिक ग्रंथो के उपदेशों को सुनते हैं किन्तु श्रद्धा के साथ उन्हें स्वीकार करने की इच्छा नहीं रखते। यद्यपि सभी आध्यात्मिक सत्य तुरन्त सुस्पष्ट नहीं होते। सर्वप्रथम हमें इस प्रक्रिया में विश्वास रखना होगा और फिर इनके लिए अभ्यास आरम्भ करना चाहिए तब फिर अनुभव द्वारा हम उनके उपदेशों को समझ सकेंगे। वे जो किसी भी विषय को जो उनके लिए वर्तमान में सुस्पष्ट नहीं है, उस पर विश्वास करने से मना कर देते हैं और वे भगवान जो इन्द्रियों की समझ से परे हैं, की शरण ग्रहण करना अस्वीकार कर देते हैं। श्रीकृष्ण ऐसे लोगों को तीसरी श्रेणी में रखते हैं। 

(4) वे जो आसुरी प्रवृत्ति के अधिभूत हैं: ये ऐसे मनुष्य है जो स्वीकार करते हैं कि भगवान है किन्तु संसार में भगवान के प्रयोजन को विफल करने के लिए वे प्रतिकूल, बुरे और अनुचित कार्य करते हैं तथा अपनी आसुरी प्रवृत्ति के कारण वे भगवान के दिव्य व्यक्तित्त्व से घृणा करते हैं। वे किसी को भगवान की महिमा का गान करते हुए या भगवान की भक्ति में लीन होते हुए देखना सहन नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि ऐसे लोग भगवान की शरण ग्रहण नहीं करते।