Bhagavad Gita: Chapter 8, Verse 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥6॥

यम्-यम्-जिसका; वा-या; अपि-किसी भी; स्मरन्-स्मरण कर; भावम्-स्मरण; त्यजति-त्याग करना अन्ते–अन्तकाल में; कलेवरम्-शरीर को; तम्-तम्-उस उसको; एव–निश्चय ही; एति-प्राप्त करता है; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन,; सदा-सदैव; तत्-उस; भाव-भावितः-चिन्तन में लीन।

Translation

BG 8.6: हे कुन्ती पुत्र! मृत्यु के समय शरीर छोड़ते हुए मनुष्य जिसका स्मरण करता है वह उसी गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव ऐसे चिन्तन में लीन रहता है।

Commentary

 हम एक तोते को 'शुभ प्रभात' बोलने के लिए शिक्षित करने में तो सफल हो सकते हैं किन्तु यदि उसका गला जोर से दबा देते हैं तब वह भूल जाएगा कि उसने कृत्रिम रूप से क्या सीखा है और फिर अपनी स्वाभाविक भाषा में 'कैंऽऽ' बोलेगा। समान रूप से मृत्यु के समय हमारा मन स्वाभाविक रूप से विचारों की श्रृंखलाओं द्वारा प्रवाहित होता है जो दीर्घकालीन प्रवृत्ति के द्वारा रचित होते हैं। हमारी यात्रा की योजना का निर्णय उस समय नहीं लिया जाता जब पहले से यात्रा का बैग पैक किया गया हो बल्कि इसके लिए पहले से सुविचारित योजना और उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है।

मृत्यु के क्षण किसी पर जो विचार प्रमुख रूप से हावी होते हैं उसी के अनुसार अगला जन्म निर्धारित होता है। यही सब श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में व्यक्त किया है। कोई व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों और संगत के प्रभाव के अनुसार अपने जीवनकाल में निरन्तर जिसका चिन्तन करता है और जिस पर अपना ध्यान एकाग्र करता है उसी के अनुसार स्वभाविक रूप से उसके अंतिम विचारों का निर्धारण होगा। पुराणों में भरत महाराज की कथा का वर्णन मिलता है। वह एक राजा थे किन्तु उन्होंने राज्य त्याग दिया और तपस्वी के भेष में वन में जाकर भगवद्प्राप्ति के लिए साध ना करने लगे।

 एक दिन उन्होंने एक गर्भवती हिरणी को सिंह की गर्जना सुनने पर नदी में छलाँग लगाते हुए देखा। भय के कारण गर्भवती हिरणी ने बच्चे को जन्म दिया जो जल में डूबने लगा। भरत को हिरणी के उस बच्चे पर दया आई और उन्होंने उसे डूबने से बचा लिया। वह उसे अपनी कुटिया में ले आए और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह अति अनुराग के साथ उसकी चंचल क्रीड़ाओं का अवलोकन करते हुए प्रसन्न होते और उसके साथ लाड़-प्यार करते। वह उसके लिए घास इकट्ठी करके लाते और प्रेम से उसे खिलाते। उसे गर्म रखने के लिए अपने से चिपटाए रखते। धीरे-धीरे उनका मन भगवान से विमुख होकर हिरणी के उस बच्चे में आसक्त हो गया। यह आसक्ति इतनी गहन हो गयी कि वे पूरे दिन हिरण के बच्चे के स्मरण में खोये रहते और चिंता करने लगे कि उनकी मृत्यु के पश्चात उसका क्या होगा। 

परिणामस्वरूप अगले जन्म में भरत महाराज को हिरण का जन्म मिला। किन्तु उन्होंने पूर्व जन्म में आध्यात्मिक साधना कर रखी थी और उन्हें अपने पिछले जन्म की भूल का ज्ञान था। इसलिए हिरण होते हुए भी वह वन में संत पुरुषों के आश्रम के आस-पास ही रहते थे। अन्ततः जब उन्होंने हिरण के शरीर का त्याग किया तो उन्हें पुनः मनुष्य जन्म मिला। फिर वह महान संत जड़ भरत बने और अपनी साधना पूर्ण कर इन्होंने भगवद्प्राप्ति की। 

इस श्लोक को पढ़कर किसी को यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि केवल मृत्यु के समय परम लक्ष्य भगवान का ध्यान कर हम उसे पा सकते हैं। स्कन्ध पुराण में उल्लेख है कि मृत्यु के क्षणों में भगवान का स्मरण करना अत्यंत कठिन है।

 मृत्यु एक पीड़ादायक अनुभव है इसलिए उस समय मन स्वाभाविक रूप से किसी की आंतरिक प्रकृति के अनुसार निर्मित विचारों की ओर आकर्षित हो जाता है। मन में भगवान का चिन्तन करने के लिए किसी की आंतरिक प्रकृति का भगवान के साथ एकीकृत होना आवश्यक होता 

चेतना आंतरिक प्रकृति है जो किसी के मन और बुद्धि के साथ टिकी रहती है। यदि हम किसी का निरन्तर चिन्तन करते हैं तब वह हमारी आंतरिक प्रकृति के अंश के रूप में प्रकट होता है। अन्तस्थ में भगवचेतना विकसित करने के लिए जीवन के प्रत्येक क्षण में भगवान का स्मरण और चिन्तन करना आवश्यक है। इन सबका वर्णन श्रीकृष्ण अगले श्लोक में करेंगे।