Bhagavad Gita: Chapter 9, Verse 18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥18॥

गति:-परम लक्ष्य; भर्ता-पालक; प्रभुः-स्वामी; साक्षी-गवाह; निवासः-धाम; शरणम्-शरण; सुहृत्-परम मित्र; प्रभवः-मूल; प्रलयः-संहार; स्थानम्-भण्डारग्रह; निधानम्-आश्रय, स्थल; बीजम्-बीज, कारण कारण; अव्ययम्-अविनाशी।

Translation

BG 9.18: मैं सभी प्राणियों का परम लक्ष्य हूँ और मैं ही सबका निर्वाहक, स्वामी, धाम, आश्रयऔर मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि का आदि, अन्त और मध्य (विश्रामस्थल) और मैं ही भण्डारग्रह और अविनाशी बीज हूँ।

Commentary

चूँकि आत्मा भगवान का अणु अंश है और उसका उनसे सभी प्रकार का संबंध है। किन्तु शारीरिक चेतना के कारण हम अपने शरीर के सगे-संबंधियों जैसे पिता, माता, प्रियजन, बच्चों और मित्र को अपना बंधु-बांधव मानते हैं। हम उनमें मोहित हो जाते हैं और बार-बार मन में उनके साथ अपने संबंधों का चिन्तन कर सांसारिक मोहपाश में बंध जाते हैं। किन्तु संसार के इन सगे-संबंधियों में से कोई भी हमें पूर्ण और सच्चा प्रेम नहीं दे सकता जिसे पाने के लिए हमारी आत्मा तरसती रहती है। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि सब नातेदार अस्थायी होते हैं और जब वे या हम शरीर त्यागते है तब सबका एक-दूसरे से बिछुड़ना अनिवार्य हो जाता है। दूसरे जितने समय तक वे जीवित रहते हैं उनका प्रेम स्वार्थ पर आधारित होता है और इसलिए यह स्वार्थ की संतुष्टि के अनुपात में घटता बढ़ता रहता है अर्थात जितना स्वार्थ उतना प्रेम और स्वार्थ सिद्ध होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है। दिन भर में सांसारिक प्रेम की सीमा और गहनता क्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। 'मेरी पत्नी बहुत शालीन है, मेरी पत्नी शालीन नहीं है। वह भली है, वह भद्दी है।' इस प्रकार से सांसारिक रंगमंच पर प्रेम इस सीमा तक घटता-बढ़ता रहता है। दूसरी ओर भगवान हमारे ऐसे संबंधी है जो इस जीवन में और मृत्यु के पश्चात भी हमारे साथ रहते हैं। प्रत्येक जन्म में हम जिस भी योनि में गये, भगवान हमारे साथ रहे और हमारे हृदय में बैठे रहे। इस प्रकार से वे हमारे नित्य संबंधी हैं। इसके अतिरिक्त उनका हमसे कोई स्वार्थ नहीं होता क्योंकि वे पूर्ण और सिद्ध हैं। वे हमसे निःस्वार्थ प्रेम करते हैं क्योंकि उनकी इच्छा हमारा आंतरिक कल्याण करना है। इसलिए भगवान ही हमारे एकमात्र सच्चे संबंधी हैं जो नित्य और निःस्वार्थी दोनों हैं। 

इस दृष्टिकोण को अन्य परिप्रेक्ष्य से समझने के लिए समुद्र और उसमें उठने वाली लहरों के सादृश्य पर विचार करें। समुद्र की दो निकटवर्ती लहरें कुछ समय के लिए एक साथ आपस में प्रसन्नतापूर्वक खेलती हुईं यह आभास करते हुए बहती हैं कि दोनों के बीच घनिष्ट मित्रता है। किन्तु कुछ दूरी तक साथ चलते रहने से एक लहर समुद्र में विलीन हो जाती है और कुछ समय पश्चात दूसरी भी शीघ्र समुद्र में विलीन हो जाती है। क्या उनमें आपस में कोई संबंध था? नहीं, उन दोनों का जन्म समुद्र से हुआ था और उनका संबंध केवल समुद्र के साथ था। समान रूप से भगवान समुद्र हैं और हम लहरों के समान हैं जो भगवान से प्रकट होती हैं। अतः सत्य यह है कि जीवात्माओं में परस्पर कोई संबंध न होकर केवल भगवान से होता है जिससे वे प्रकट होती हैं। 

इस श्लोक में श्रीकृष्ण हमें शारीरिक चेतना और उससे जुडी लौकिक सगे-संबंधियों की आसक्ति से ऊपर ले जाते हैं। आत्मा के स्तर पर केवल भगवान हमारे सच्चे संबंधी हैं। वे हमारे पिता, माता, बहन, भाई, प्रिय और सखा हैं। इसी प्रसंग को सभी वैदिक ग्रंथों में बार-बार दोहराया गया है। 

दिव्यो देव एको नारायणो माता पिता भ्राता सुहृत् गतिः।

निवासः शरणं सुहृत् गतिर्नारायण इति ।। 

(सुबालश्रुति मंत्र-6) 

"भगवान नारायण ही एकमात्र हमारे माता, पिता, प्रिय और आत्मा का गंतव्य हैं।"

मोरे सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबन्धु उर अन्तरजामी।। 

(रामचरितमानस) 

"हे भगवान राम केवल आप ही हमारे स्वामी हैं, आप ही निराश्रितों के उद्धारक, सबके हृदय को जानने वाले हो।" भगवान के साथ अपने अंतर्यामी शाश्वत संबंध को जानकर हमें केवल उन्हीं में अपने मन को तल्लीन करने का प्रयास करना चाहिए। तभी हमारा मन शुद्ध होगा और उसी स्थिति में हम पूर्ण शरणागति की शर्त पूरी करने में सक्षम हो पाएँगे जोकि भगवान को पाने के लिए अनिवार्य है। हमें इस एकल मानसिकता को धारण कर मन की सभी वर्तमान आसक्तियों को त्याग कर इन्हें भगवान में अनुरक्त कर देना चाहिए। इसलिए रामचरितमानस में वर्णन किया गया है

सब के ममता ताग बटोरी।

मम पद मनहि बाँधा बरि डोरी।

 "अपने मन से सांसारिक आसक्तियों के सूत को काट दो और इनकी रस्सी बनाकर इसे भगवान के चरण कमलों पर बाँध दो।" अपने मन को भगवान के साथ जोड़ने के लिए सहायतार्थ यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि आत्मा का सभी प्रकार का संबंध केवल एक भगवान के साथ ही है।