तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥19॥
तपामि-गर्मी पहुँचाता हूँ; अहम् मैं; अहम्-मैं; वर्षम्-वर्षा; निगृह्णामि-रोकना; उत्सृजामि-लाता हूँ; च-और; अमृतम्-अमरत्व; च-और; एव-निश्चय ही; मृत्युः-मृत्यु; च-और; सत्-शाश्वत आत्मा; असत्-अस्थायी पदार्थ; च-तथा; अहम्-मैं; अर्जुन-अर्जुन।
Translation
BG 9.19: हे अर्जुन! मैं ही सूर्य को गर्मी प्रदान करता हूँ तथा वर्षा को रोकता और लाता हूँ। मैं अनश्वर तत्त्व और उसी प्रकार से साक्षात् मृत्यु हूँ। मैं ही आत्मा और उसी प्रकार से मैं ही पदार्थ हूँ।
Commentary
पुराणों में यह वर्णन मिलता है कि जब भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की तब उन्होंने सबसे पहले जन्मे ब्रह्मा को प्रकट किया और फिर उन्हें आगे सृष्टि की रचना करने का दायित्व सौंपा। ब्रह्मा स्थूल प्राकृत शक्ति से ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक पदार्थों और विभिन्न योनियों के सृजन के कार्य को संपन्न करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये तब भगवान ने उनके भीतर ज्ञान प्रकट किया जिसे चर्तुश्लोकी भागवत कहते हैं। जिसके आधार पर ब्रह्मा ने संसार की रचना के कार्य को आगे बढ़ाया। इसका पहला श्लोक इसे अति प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।
(श्रीमद्भागवतम्-2.9.32)
श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा से कहा, "मैं ही सब कुछ हूँ, सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही अस्तित्व में था। अब जब सृष्टि प्रकट हो चुकी है, इस प्रकट संसार का स्वरूप जो भी है वह सब मैं हूँ। प्रलय के पश्चात् भी केवल मैं ही रहूँगा। सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं।" उपर्युक्त सत्य का तात्पर्य यह है कि संसार के जिस पदार्थ के साथ हम भगवान की आराधना करते हैं वह भी भगवान है। जब लोग गंगा की पूजा करते हैं तो वे अपने शरीर के निचले अंग को उसमें डुबाते हैं। फिर वे अपनी हथेलियों से जल उठाकर गंगा में डाल देते हैं। इस प्रकार से वे गंगाजल का प्रयोग उसकी पूजा के लिए करते हैं। उसी प्रकार से जब भगवान सभी अस्तित्त्वों में व्याप्त हैं तब उनकी पूजा करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले पदार्थ भी उनसे भिन्न नहीं हो सकते। जैसे कि श्लोक 16 और 17 में श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि वे ही वेद, यज्ञ, अग्नि और पहला अक्षर 'ओम्', और यज्ञ कर्म हैं। हमारी भक्ति का भाव और विधि जो भी हो, कुछ भी भगवान से अलग नहीं है जो हम उन्हें अर्पित करते हैं। इसके पश्चात भी प्रेम भाव से किया गया अर्पण भगवान को प्रसन्न करता है न कि पदार्थ का अर्पण।