Bhagavad Gita: Chapter 9, Verse 3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥3॥

अश्रद्दधानाः-श्रद्धाविहीन लोग; पुरुषा:-व्यक्ति; धर्मस्य-धर्म के प्रति; अस्य-इस; परन्तप-शत्रु विजेता, अर्जुन; अप्राप्य–बिना प्राप्त किये; माम्-मुझको; निवर्तन्ते-लौटते हैं; मृत्युः-मृत्युः संसार–भौतिक संसार में; वर्त्मनि-मार्ग में।

Translation

BG 9.3: हे शत्रु विजेता! वे लोग जो इस धर्म में श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। वे जन्म-मृत्यु के मार्ग पर बार-बार इस संसार में लौटकर आते रहते हैं।

Commentary

पिछले दो श्लोकों में श्रीकृष्ण ने विश्वस्थ ज्ञान और इसकी पात्रता के आठ गुणों का वर्णन किया है। यहाँ इसका उल्लेख धर्म या भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति के मार्ग के रूप में किया गया है। ज्ञान चाहे कितना भी अद्भुत और मार्ग कितना ही परिणाममूलक क्यों न हो? अगर कोई उसका अनुसरण करने से मना कर देता है तब यह उसके लिए अनुपयोगी होता है। जैसाकि पिछले श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि भगवान की प्रत्यक्ष अनुभूति विलम्ब से होती है। सर्वप्रथम इस प्रकिया के आरम्भ में अगाध श्रद्धा अपेक्षित होती है। भक्ति रसामृत सिंधु (1.4.15) में उल्लेख है-“आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गो भजनक्रिया" अर्थात "भगवान की अनुभूति करने का पहला पग श्रद्धा है। तब मनुष्य सत्संग में भाग लेता है। यह भक्ति के निजी अभ्यास की ओर ले जाता है।" 

प्रायः लोग कहते है कि वे केवल उसमें विश्वास करना चाहते हैं जिसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है और क्योंकि भगवान की तत्काल प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती इसलिए वे उसमें विश्वास नहीं करते। किन्तु वे वास्तव में संसार में अनेक ऐसी चीजों पर बिना प्रत्यक्ष अनुभूति के विश्वास करते हैं। एक न्यायाधीश अतीत में कई वर्ष पूर्व घटित घटना से संबंधित प्रकरण पर अपना निर्णय देता है। यदि न्यायाधीश प्रत्यक्ष अनुभव के सिद्धान्त के अनुपालन में विश्वास करेगा तब पूरी न्याय व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। राज्याध्यक्ष अपने देश का शासन पूरे क्षेत्र से प्राप्त होने वाली सूचनाओं के आधार पर करता है। उसके लिए अपने अधिकार क्षेत्र के सभी गांवों और नगरों का निरीक्षण करना संभव नहीं हो पाता और यदि वह यह कारण प्रस्तुत कर इन सूचनाओं पर विश्वास न करे कि उसको कहाँ क्या घटित हुआ था? इसका प्रत्यक्ष बोध नहीं है तब फिर वह पूरे देश पर शासन करने के योग्य नहीं हो सकता। यहाँ तक कि सांसारिक कार्यों के लिए भी प्रत्येक कदम पर विश्वास आवश्यक है। बाइबिल में इसका सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है-"हम आँखों देखी बातों पर नहीं बल्कि विश्वास पर चलते हैं।" (2 कोरिन्थिअन्स-5.7) 

भगवान की अनुभूति से संबंधित एक रोचक कथा इस प्रकार से है। एक बार एक राजा ने एक साधु के सम्मुख यह कहा-“मैं भगवान में विश्वास नहीं करता क्योंकि मैं उसे देख नहीं सकता।" साधु ने राजा से अपने दरबार में एक गाय को लाने को कहा। राजा ने उसकी आज्ञा का पालन करते हुए अपने सेवकों को गाय लाने का आदेश दिया। तब साधु ने गाय का दूध दुहने का अनुरोध किया। राजा ने पुनः अपने सेवकों को साधु की आज्ञा का पालन करने का आदेश दिया। फिर साधु ने पूछाः हे राजा! अभी गाय से दुहे गये ताजा दूध में क्या मक्खन व्याप्त है? राजा ने उत्तर दिया कि उसे पूर्ण विश्वास है कि इसमें मक्खन है। तब साधु ने राजा से पूछा-'तुमने दूध में मक्खन को देखा नहीं तब फिर तुम्हें यह विश्वास क्यों है कि इसमें मक्खन है।' राजा ने उत्तर दिया-'हम इसे अभी प्रत्यक्ष देख नहीं सकते, क्योंकि मक्खन दूध में व्याप्त है किन्तु इसको देखने के लिए एक प्रक्रिया है यदि हम दूध को दही में परिवर्तित करते हैं और फिर दही को मथ कर उसमें मक्खन को देख सकते हैं।' तब साधु ने कहा-'जैसे दूध में मक्खन है उसी प्रकार भगवान भी सर्वत्र है। यदि हम उसकी शीघ्र अनुभूति नहीं कर सकते तब इसका यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि भगवान नहीं है। उसकी अनुभूति करने की प्रक्रिया है यदि हम उस प्रक्रिया पर विश्वास करके उसका पालन करते हैं तब हम प्रत्यक्ष उसकी अनुभूति कर पाएँगे और भगवद्प्राप्ति कर लेंगे।" भगवान में विश्वास एक स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है जिसका हम मानव के रूप में शीघ्र पालन कर सकें। हमें अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करते हुए सक्रिय होकर भगवान पर विश्वास करने का निर्णय लेना होगा। कौरवों की सभा में जब दुःशासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया तब भगवान ने उसकी साड़ी की लम्बाई को बढ़ाकर उसे लज्जित और अपमानित होने से बचाया। वहाँ सभी कौरव उपस्थित थे और उन्होंने इस चमत्कार को देखा लेकिन उन्होंने श्रीकृष्ण के सर्वशक्तिमान होने पर विश्वास करना स्वीकार नहीं किया और इस कारण उनकी चेतना जागृत नहीं हुई। परम प्रभु इस श्लोक में कहते हैं कि जो आध्यात्मिक पथ में विश्वास रखना पसंद नहीं करते, वे दिव्य ज्ञान से वंचित रहते हैं और निरन्तर जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं।