Bhagavad Gita: Chapter 9, Verse 32

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥32॥

माम्-मेरी; हि-निःसंदेह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः व्यपाश्रित्य-शरण ग्रहण करके; ये-जो; अपि-भी; स्युः-हों; पाप-योनयः-निम्नयोनि में उत्पन्न; वैश्या:-व्यावसायिक लोग; तथा भी; शूद्राः-शारीरिक श्रम करने वाले; ते-अपि-वे भी; यान्ति–जाते हैं; परम्-परम; गतिम्-गंतव्य।

Translation

BG 9.32: वे सब जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं भले ही वे जिस कुल, लिंग, जाति के हों और जो समाज से तिरस्कृत ही क्यों न हों, वे परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

Commentary

कुछ जीवात्माओं को ऐसे संस्कारी परिवारों में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है जहाँ उन्हें बचपन से उच्च आदर्श और सदाचारी जीवनयापन की शिक्षा दी जाती है। यह सौभाग्य पूर्व जन्मों के शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। किन्तु कुछ जीवात्माओं को दुर्भाग्य से अपराधियों, जुआरियों और नास्तिकों के परिवारों में जन्म मिलता है। यह दुर्भाग्य भी पूर्व जन्म में किए गए पाप कर्मों के कारण प्राप्त होता है। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि किसी भी जाति, लिंग, कुल में जन्म लेने के पश्चात भी जो उनकी पूर्ण शरणागति प्राप्त करता है वह अपने लक्ष्य को पा लेगा। भक्ति मार्ग की ऐसी महानता है कि सभी लोग इसका पालन करने के योग्य होते हैं जबकि अन्य मार्गों का अनुसरण करने की योग्यता प्राप्त करने हेतु कड़े मापदण्ड निश्चित किए गये हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य ने ज्ञानयोग के मार्ग का अनुसरण की पात्रता का वर्णन इस प्रकार से किया है

विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुण शालिनः।

मुकुक्षोरैव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मताः।। 

"केवल वे लोग जो विवेक, विरक्ति, संयमित मन और इन्द्रियाँ तथा मुक्ति की तीव्र उत्कंठा के इन चार गुणों से सम्पन्न होते हैं। केवल उन्हीं लोगों को ज्ञान योग का अनुसरण करने का अधिकारी माना जाता है।" वैदिक कर्मकाण्डों में इसकी पात्रता के लिए छः मापदण्डों का उल्लेख किया गया है। वैदिक कर्मकाण्डों के अनुपालन के लिए निम्नांकित छः मापदण्डों का पालन करना आवश्यक हैः 

देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रद्धा समन्वितम्।

पात्रे प्रदीयते यत्तत् सकलं धर्म लक्ष्णम्।। 

"उपयुक्त स्थान, उपयुक्त समय, उपयुक्त प्रक्रिया और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, शुद्ध सामग्री का प्रयोग, यज्ञ करने वाले ब्राह्मण की योग्यता और उसकी दक्षता में पक्का विश्वास होना।" इसी प्रकार से अष्टांग योग के मार्ग के लिए भी कड़े नियम निर्धारित किए गए हैं।

शचौ देशे प्रतिष्ठाप्य 

(श्रीमद्भागवतम्-3.28.8)

 "हठ योग के अभ्यास हेतु शुद्ध स्थान पर उपयुक्त आसन में स्थिर बैठना आवश्यक है।" इसकी अपेक्षा भक्ति योग एक ऐसा योग है जिसका पालन किसी समय, स्थान, परिस्थितियों और किसी भी सामग्री के साथ किया जा सकता है।

न देश नियमस्तस्मिन् न काल नियमस्तथा।। 

(पद्मपुराण)

 इस श्लोक में वर्णन है कि भगवान भक्ति करने वाले स्थान के संबंध में कोई चिंता नहीं करते। वे केवल हृदय का प्रेम भाव देखते हैं। सभी जीव भगवान की संतान हैं। भगवान अपनी दोनों भुजाओं को फैलाए सभी को स्वीकार करना चाहते हैं यदि हम विशुद्ध प्रेम के साथ उनकी ओर अग्रसर होते हैं।