Introduction

वंदना

प्रथमं सद्गुरुं वन्दे श्रीकृष्ण तदनन्तरम्।

गुरुः पापात्मनां त्राता श्रीकृष्णस्त्वमलात्मनाम्॥

मुकुन्दानन्द प्रपन्नोहं गुरु पादारविन्दयोः।

तस्य प्रेरणया तस्य दिव्यादेशं वदाम्यहम्॥

"मैं सर्वप्रथम अपने गुरुदेव जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज और फिर परमात्मा श्रीकृष्ण के चरण कमलों में आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। हालाँकि श्रीकृष्ण शुद्ध अन्तःकरण वालों को अंगीकार करते हैं लेकिन मेरे गुरुदेव इतने करुणामयी हैं कि वे आध्यात्मिक रूप से निःसहायों को भी आश्रय प्रदान करते हैं। संसार में मुकुन्दानन्द के नाम से जानी जाने वाली तुच्छ और महत्त्वहीन आत्मा स्वयं को अपने आध्यात्मिक गुरु के चरण कमलों में समर्पित कर रही है। गुरु की अनुमति, प्रेरणा और अनुकंपा से यह विनम्रतापूर्वक आध्यात्मिक विषयों की व्याख्या करने जा रही है।"

वन्दे वृन्दावनानन्दा राधिका परमेश्वरीम्।

गोपिकां परमां शुद्धां ह्लादिनी शक्ति रूपिणीम्॥

"मैं ह्लादिनी शक्ति राधा रानी की आदरपूर्वक चरण वन्दना करता हूँ जो परम देवी और भगवान की आनन्द-दायिनी शक्ति हैं। वे गोपियों में से सबसे शुद्ध और वृंदावन के दिव्य आनन्द की अवतार हैं।"

कदा द्रक्ष्यामि नन्दस्य बालकं नीपमालकम्।

पालकं सर्व सत्त्वानां लसत्तिलक भालकम्॥

"मेरे नेत्र कब परमात्मा श्रीकृष्ण के अद्भुत रूप को देखेंगे जो पृथ्वी पर नंद के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे। जिन्होंने अपने गले में पुष्पों की माला पहनी है और जिनके मस्तक पर पवित्र तिलक सुशोभित है। वे भद्र पुरुषों के रक्षक हैं।"

अजात पक्षा इव मातरं खगाः सतन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्॥

"हे भगवान! जैसे किसी पक्षी का छोटा बच्चा अपनी माँ के लिए तड़पता है, जैसे एक भूखा बालक अपनी माँ के स्तनों से चिपक कर दूध पीना चाहता है और जैसे प्रेमी प्रियतम के लिए तड़पता है, उसी प्रकार से मेरा मन सदैव तुम्हारे दिव्य दर्शन की उत्कंठा उत्पन्न करता रहे।"

ज्ञान की स्व-अर्जित और प्रदत्त प्रक्रिया

ज्ञान प्राप्त करने की दो पद्धतियाँ हैं। पहली स्व-अर्जित प्रक्रिया है जिसमें हम अपनी इन्द्रियों, मन और बुद्धि का प्रयोग अन्वेषण, खोज और सत्य की प्रकृति का निष्कर्ष निकालने के लिए करते हैं। दूसरी प्रदत्त प्रक्रिया है जहाँ हम केवल उचित स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने की स्व-अर्जित प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से दोषयुक्त हो सकती है क्योंकि हमारी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्राकृत शक्ति से निर्मित हैं तथा ये अपूर्ण और सीमित हैं। परिणामस्वरूप इनके माध्यम से प्राप्त ज्ञान की सत्यता और विश्वसनीयता के संबंध में हम कभी आश्वस्त नहीं हो सकते।

जैसा कि भौतिक विज्ञान की खोज स्व-अर्जित प्रक्रिया पर आधारित है फिर भी अतीत के प्रशंसनीय और निर्विवादित वैज्ञानिक सिद्धान्तों को नए सिद्धान्त उलटकर पीछे छोड़ देते हैं। उदाहरणार्थ अविभाज्य परमाणुओं से युक्त पदार्थ की यूनानी अवधारणा को रदरफोर्ड ने तब अमान्य घोषित कर दिया, जब उसने यह प्रदर्शित किया कि परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और रिक्त स्थान के विशाल क्षेत्र सम्मिलित हैं। रदरफोर्ड के सिद्धान्त का खंडन क्वांटम सिद्धान्त द्वारा किया गया जिसमें यह कहा गया है कि इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन ठोस कण नहीं हैं लेकिन ये दोहरी कण-तरंग व्यवहार के साथ ऊर्जा के कंपन कण हैं। इससे हमें आश्चर्य होता है कि जिसे हम आज सत्य मानते हैं वह भी कुछ शताब्दियों के पश्चात सरासर त्रुटिपूर्ण सिद्ध होगा।

दूसरी ओर प्रदत्त ज्ञान की प्रकिया है जो ऐसे दोषों से पूर्णतया रहित है। जब हम उचित स्रोत से ज्ञान प्राप्त करते हैं तब हम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाते हैं कि यह दोष रहित है। उदाहरणार्थ यदि हम यह जानना चाहते हैं कि हमारा पिता कौन है, तब हम किसी प्रकार की खोज नहीं करते। इस संबंध में हम केवल अपनी मां से पूछते हैं क्योंकि वह इस प्रश्न का उत्तर देने की अधिकारी है। उसी प्रकार से आध्यात्मिक विषयों में भी प्रदत्त ज्ञान प्रक्रिया शीघ्रता से ज्ञान के ऐसे विपुल भण्डारों तक हमारी पहुँच को सुगम्य बनाती है जिन्हें स्वयं के प्रयासों से प्रकट करने में कई युग व्यतीत हो जाते। उचित ज्ञान की कसौटी यह है कि जिस स्रोत से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह अमोघ और विश्वसनीय होना चाहिए। केवल वेद ही ज्ञान के ऐसे स्रोत हैं।

वेद केवल किसी पुस्तक का नाम नहीं है। ये भगवान का शाश्वत ज्ञान है जिसे उन्होंने सृष्टि सृजन करते समय प्रकट किया। सृष्टि के इस चक्र में उन्होंने सबसे पहले प्रथम जन्में ब्रह्मा के हृदय में इन्हें प्रकट किया। इस प्रकार ये वेद हजारों वर्षों से श्रुति परम्परा द्वारा गुरु से शिष्य तक पहुँचते रहे इसलिए इनका दूसरा नाम श्रुति भी है। इन्हें अपौरुषेय भी कहा जाता है क्योंकि ये मानव कृत नहीं हैं। इसलिए भारतीय दर्शन में किसी भी आध्यात्मिक सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करने की अंतिम सत्ता वेद ही हैं। किसी भी आध्यात्मिक सिद्धान्त की वैधता चाहे वह अतीत, वर्तमान या भविष्य के संदर्भ में हो, वेदों के आधार पर ही स्थापित होनी चाहिए। इनके अर्थ को विस्तृत करने के लिए अनेक ग्रंथ लिखे गये। ये वेदों के अधिकार की उपेक्षा या उनका अतिक्रमण नहीं करते अपितु ये उनमें निहित ज्ञान का विस्तार और उसकी व्याख्या करते हैं। कुल मिलाकर इन सभी ग्रंथों को "वैदिक ग्रंथ" कहा जाता है। वैदिक ग्रंथ अनेक हैं लेकिन इनमें से तीन को परंपरागत रूप से 'प्रस्थानत्रयी' कहा जाता है। ये वैदिक विचारों को समझना आरम्भ करने संबंधी तीन बिंदु हैं। ये उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता हैं।

उपनिषद वेदों का अंश हैं जो तत्त्व ज्ञान का समाधान हैं और इन्हें वेदों का सारांश माना जाता है। इन्हें पढ़कर जर्मन दार्शनिक आर्थर सॉपेनॉर (1788-1866) ने कहा-"संसार में कोई भी दर्शन उपनिषदों के समान उन्नत नहीं है। ये मेरे जीवन का समाधान हैं और मेरी मृत्यु का भी समाधान होंगे।" एक

और जर्मन दार्शनिक पॉल डेसन ने उपनिषदों की महत्ता को इस प्रकार से व्यक्त किया है-"शाश्वत तात्त्विक सत्य की मर्म-भेदी और निर्णायक अभिव्यक्ति उपनिषदों के बंधन मुक्त उद्धार तत्त्वज्ञान से अधिक संभवतः कहीं अन्यत्र मिल सकती है।" एक साधारण व्यक्ति के लिए उपनिषदों की थाह पाना कठिन है।

ब्रह्मसूत्र उपनिषदों का सार है। इसे वेदव्यास ने वैदिक ज्ञान का निष्कर्ष प्रस्तुत करने के लिए लिखा। इसे वेदान्त भी कहा जाता है, जिसका अर्थ 'वैदिक विचारों की पराकाष्ठा' है। उपनिषदों की भांति ब्रह्मसूत्र को समझना भी कठिन है। इसकी संक्षिप्तता प्रायः अस्पष्टता और व्यक्तिपरक व्याख्या की ओर ले जाती है।

भगवद्गीता उपर्युक्त दोनो ग्रंथों से अधिक सुगम्य है। इसमें वैदिक दर्शन का व्यापक और सुगमतापूर्वक समझा जाने वाला सार दिया गया है। भगवद् का अर्थ 'भगवान' और गीता का अर्थ 'गीत' है। इस प्रकार से गीता का साहित्यिक अर्थ 'भगवान का गीत' है। यह महाभारत के युद्ध के कगार पर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ संवाद है।

ऐतिहासिक कालक्रम के दौरान अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शन आदि में उल्लिखित हजारों सिद्धान्त पहले प्रतिपादित किए गए थे और बाद में इन्हें अपूर्ण और त्रुटिहीन होने के कारण अस्वीकृत कर दिया गया। ये स्व-अर्जित ज्ञान की उत्पत्ति थे और इसी कारण से अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण थे। यदि गीता भी मर्त्य और परिमित बुद्धि वाली रचना होती तब पचास शताब्दियाँ व्यतीत होने पर यह भी प्राचीन और अप्रासंगिक कही जाती। लेकिन गीता का शाश्वत ज्ञान निरन्तर आधुनिक युग के कुछ विख्यात विचारकों जैसे महात्मा गांधी, रोबर्ट ओपनहाइमर, कार्ल जंग, हर्मन हेस्स और अल्दौस हक्सले को प्रेरित करता रहा है। इस प्रकार से यह अपने दिव्य उद्गम को इंगित करती है।

महाभारत में समाविष्ट

भगवद्गीता को वेदव्यास ने मूल रूप से एक अलग ग्रंथ के रूप में संकलित किया था। बाद में उन्होंने जब महाभारत लिखी तब उन्होंने गीता को उसमें समाविष्ट कर दिया। महाभारत में एक लाख श्लोक हैं इसलिए इसको विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य कहा जाता है। यह इलियेड और ऑडसी को मिलाकर उनसे सात गुना और बाइबिल से तीन गुणा अधिक बड़ा महाकाव्य है। रामायण के साथ-साथ महाभारत का भी इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान है। इतिहास में स्थान से तात्पर्य भारत की ऐतिहासिक पाण्डुलिपि होने से है। इसकी कथाओं और नैतिक उपदेशों ने हजारों वर्षों के लिए भारतीय संस्कृति की संरचना को आकृति प्रदान की है। महाभारत अठारह पर्यों (खण्डों) में विभाजित है। भगवद्गीता को इसके छठे पर्व (खण्ड) में समाविष्ट किया गया है, जिसे भीष्म पर्व कहा जाता है। अठारह पर्वो में संकलित गीता इस पर्व (खण्ड) के 25वें अध्याय से आरम्भ होती है और क्रमानुसार 42वें अध्याय पर समाप्त होती है। चूंकि भगवद्गीता वेदों के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को समाहित करती है इसलिए इसे गीतोपनिषद या गीता-उपनिषद भी कहा जाता है। यह निम्नवर्णित दो महत्त्वपूर्ण उद्धेश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान करती है।

यह ब्रह्म विद्या का बोध कराती है

जिस प्रकार मानव जाति निर्भीकता से आगे बढ़ते हुए ज्ञान की सीमाओं का विस्तार कर रही है। ज्ञान की अनंत संभावनाओं की खोज के पश्चात प्रतिदिन प्रात:काल यह बोध होता है कि चाहे हमने जितनी भी अधिक खोज और अन्वेषण कर लिए हों तथा बहुत कुछ सीख चुके हों तब भी बहुत कुछ जानना और समझना अभी भी शेष है। प्रत्येक वर्ष नयी वैज्ञानिक तकनीक प्रकट होती रहती है जो निश्चित रूप से यह निष्कर्ष प्रस्तुत करती है कि सष्टि के पर्ण सत्य की खोज को समझना कभी न समाप्त होने वाला कार्य है। इससे कोई भी यह आश्चर्य कर सकता है कि क्या ज्ञान का कोई ऐसा निकाय या स्रोत है जो ब्रह्माण्ड की सभी अभिव्यक्तियों को सरलता से व्यक्त कर सके। वेदों के अनुसार ज्ञान की एक ऐसी शाखा है, जो परम सत्य का अनुभव कराती है। इस परम सत्य को कई नामों जैसे ईश्वर, भगवान, अल्लाह, खुदा, यहोवा, अहूर, मजदा, अलख निरंजन, शून्य, इक ओंकार इत्यादि नाम से संबोधित किया जाता है। अन्य सभी सत्य इसी से प्रकट होते हैं और उसकी सृष्टि निर्माण की योजना में अपना स्थान ढूंढ़ते हैं। इसलिए वेद में कहा गया है 'एकस्मिन् विजन्नाते सर्वमिदं विजन्नातं भवति' अर्थात 'वह जो परम सत्य को जान जाता है, वह समस्त ज्ञान प्राप्त कर लेता है।' परम सत्य को जानने के ज्ञान को 'ब्रह्मविद्या' कहा जाता है। भगवद्गीता का उद्देश्य सबसे परे ब्रह्मविद्या अर्थात भगवद्प्राप्ति के विज्ञान का बोध कराना है।

ज्ञान किसी व्यक्ति की आसन्न समस्या का समाधान करने में सहायता प्रदान करता है जो एक प्रकार का जागरण है। जब ज्ञान पहले ही प्रहार में अज्ञानता को जड़ से उखाड़ कर सभी समस्याओं का समाधान करता है तब यह दूसरे प्रकार का जागरण कहलाता है। भगवद्गीता का उद्देश्य दूसरे जागरण द्वारा अज्ञानता के अंधकार का विनाश करना है जिसने आत्मा को अनन्त जन्मों से आच्छादित कर रखा है। सन्निकट समस्याओं का सामना करने में स्वयं को अक्षम पाकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से उस वेदना, जिसे वह अनुभव कर रहा था, पर विजय प्राप्त करने और उसका उपशमन करने का आग्रह किया। श्रीकृष्ण ने न केवल उसकी तात्कालिक समस्या पर उसे परामर्श प्रदान किया बल्कि विषयांतर होकर जीवन दर्शन पर भी गहन उपदेश दिया।

यह योग के अभ्यास का शिक्षण देती है

किसी विज्ञान की उपयोगिता के लिए उसे सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों पहलुओं से देखना चाहिए। यहाँ तक कि उत्तम सैद्धान्तिक ज्ञान भी जीवन की समस्याओं को हल करने में अपर्याप्त होता है। यदि ज्ञान को व्यावहारिक नहीं बनाया जाता तब यह केवल बौद्धिक मनोरंजन करता है। भगवद्गीता केवल उन्नत तत्त्व ज्ञान प्रदान करने में संतुष्ट नहीं होती बल्कि यह दैनिक जीवन के लिए अपने आध्यात्मिक उपदेशों के परिपालन के लिए स्पष्ट पद्धतियों का चित्रण भी करती है। हमारे जीवन में आध्यात्मिकता के विज्ञान को क्रियान्वित करने वाली ये पद्धतियां 'योग' कहलाती हैं। इसलिए भगवद्गीता को 'योग शास्त्र' भी कहा जाता है अर्थात योग के अभ्यास की शिक्षा देने वाला ग्रंथ।

आध्यात्मवाद के अनुभवहीन साधक प्रायः आध्यात्मिकता को लौकिक जीवन से पृथक कर देते हैं और कुछ इसे परलोक में प्राप्त होने वाले परम सुख के रूप में देखते हैं। लेकिन भगवद्गीता ऐसा विभेद नहीं करती बल्कि इसका उद्देश्य इस संसार में मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रतिष्ठित करना है। इस प्रकार से इसके अठारह अध्याय विभिन्न प्रकार के योग को निर्दिष्ट करते हैं क्योंकि ये व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान को क्रियान्वित करने की कार्य प्रणालियों को सुलझाते हैं। इन अध्यायों में विभिन्न योग पद्धतियों जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी वर्णन किया गया है।

भगवद्गीता का परिवेश

यद्यपि सत्य एक और शाश्वत है, तथापि यह विभिन्न युगों में विभिन्न स्थानों में स्वयं को अभिव्यक्त करता है जो इसकी अभिव्यक्ति को अपना विशिष्ट रंग-रूप प्रदान करते हैं इसलिए भगवद्गीता की शिक्षाओं को केवल सामान्यीकृत दर्शन या नैतिक सिद्धान्त के प्रकाश में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। यह एक विशेष संकट की स्थिति में मानव जीवन के नैतिक आचार-विचार का व्यावहारिक प्रयोग है जो इसके परिवेश के अनुरूप कार्यान्वित होता है। चूंकि इसके उपदेश अति गहन हैं इसलिए भगवद्गीता में समान रूप से इसके परिवेश के अनुरूप समस्यात्मक और दुस्तर संकटों को समाविष्ट करना अपेक्षित था। इसके आदर्शों के महत्त्व की पूरी सराहना करने के लिए उन घटनाओं के ऐतिहासिक प्रवाह को भी जानना चाहिए, जिसके कारण श्रीकृष्ण को कुरूक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को दिव्य संदेश देना पड़ा।

जिस परिवेश में गीता का उपदेश दिया गया, वह चचेरे भाइयों के बीच प्रारम्भ होने वाला महाभारत का भीषण युद्ध था। पाण्डवों में युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव श्रेष्ठ पांच भाई थे। उनके पिता पाण्डु की दुर्भाग्य से उस समय मृत्यु हो गयी जब उनके पांचों पुत्र बहुत छोटे थे। हस्तिनापुर के राज्य को उनके सौतेले भाई धृतराष्ट्र ने अपने अधिकार में ले लिया था जो जन्म से नेत्रहीन था। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे जिन्हें कौरव कहा जाता था। धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र दुर्योधन था। दुर्योधन के साथ मिलकर कौरवों ने कई वर्षों तक अपने चचेरे भाइयों पर अत्याचार किए और छल करके उनसे हस्तिनापुर का राज सिंहासन छीन लिया, जिस पर उनका कोई न्यायोचित अधिकार नहीं था। कौरव दुष्ट, अन्यायी, दुराचारी, अत्याचारी और अहंकारी थे वहीं दूसरी ओर पाण्डव सज्जन, सद्गुणी आदर्श, त्याग, भक्ति और करुणा की साक्षात मूर्ति थे। उससे भी अधिक वे श्रीकृष्ण भगवान के परम भक्त थे। कौरवों के उत्पीड़न से पाण्डवों के कष्ट असहनीय हो गये थे इसलिए दोनों के बीच युद्ध को टाला नहीं जा सकता था। युद्ध को अपरिहार्य मानते हुए दोनों पक्ष उस समय पूरे भारत के राज्यों से समर्थन जुटाने लगे। दोनों ओर के चचेरे भाई इतने शक्तिशाली थे कि उनके बीच लड़े जाने वाले युद्ध का प्रभाव पूरे भारत पर पड़ता। अतः सभी देशों के राजा दोनों पक्षों में से किसी एक का समर्थन करने के लिए विवश थे।

सैन्य समर्थन जुटाने के प्रयासों के प्रयोजन से अर्जुन और दुर्योधन श्रीकृष्ण की सहायता प्राप्त करने का अनुरोध करने हेतु द्वारका पहुंचे। सर्वज्ञ होने के कारण श्रीकृष्ण यह जान गये कि वे उनकी सहायता प्राप्त करने की विनती करने आए हैं। उन्होंने ऐसी स्थिति उत्पन्न की जिससे आसन्न युद्ध के लिए शिक्षात्मक शैली स्थापित हुई। उन्होंने अपने कक्ष में निद्रा में होने का अभिनय किया। अर्जुन ने उनके कक्ष में प्रवेश किया और विनम्र भाव से उनके चरणों की ओर बैठ गया और उनके जागने की प्रतीक्षा करने लगा। इसी दौरान दुर्योधन भी वहाँ उपस्थित हुआ और अपने स्वभावगत अहंकार के कारण श्रीकृष्ण के सिर के पीछे आसन पर बैठ गया। जब श्रीकृष्ण निद्रा से जागे तब स्वाभाविक रूप से उनकी दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी और तत्पश्चात उन्हें उसी प्रकार से दुर्योधन की उपस्थिति का बोध हुआ। दोनों पक्ष युद्ध में श्रीकृष्ण से सहायता प्राप्त करना चाहते थे क्योंकि श्रीकृष्ण अर्जुन और दुर्योधन दोनों के चचेरे भाई थे इसलिए वे स्वयं पर किसी प्रकार के पक्षपात का आरोप नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक पक्ष को द्वारका राज्य की विशाल सेना और दूसरे पक्ष के लिए स्वयं को निःशस्त्र रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। चूंकि जागने पर श्रीकृष्ण की दृष्टि सबसे पहले अर्जुन पर पड़ी इसलिए उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को अपना विकल्प प्रस्तुत करने को कहा। अर्जुन ने निःशस्त्र श्रीकृष्ण को अपने पक्ष के लिए चुना क्योंकि उसे विश्वास था कि यदि भगवान उसके साथ रहेंगे तो वह कभी पराजित नहीं हो सकता। दुर्योधन अर्जुन की पसंद पर प्रसन्न हुआ क्योंकि वह सैन्य बल पर आधारित भौतिक शक्ति में विश्वास रखता था। इस प्रकार परम प्रभु श्रीकृष्ण युद्ध में अर्जुन के सारथी बने।

युद्ध के कगार पर कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर दोनों पक्षों की ओर से विशाल सेनाएँ एकत्रित हो चुकी थी। यह महाभारत का आसन्न युद्ध था। यह स्थिति अत्यन्त भयावह थी क्योंकि इस परस्पर विध्वंसी युद्ध में एक युग अपना विनाश करने जा रहा था। युद्ध आरम्भ होने से पूर्व अर्जुन ने श्रीकृष्ण से रथ को दोनो सेनाओं के बीच खड़ा करने का अनुरोध किया। युद्ध के लिए तैयार व्यूह रचना में अपने सम्बन्धियों को खड़े देखकर अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। हताशा की स्थिति में आकर उसने अपना धनुष फेंक दिया और युद्ध में लड़ने से मना कर दिया।

अर्जुन नैतिक विरोधाभास से ग्रसित था। एक ओर उसे अपने दादा भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि जैसे लोगों का सामना करना था और दूसरी ओर उसे एक योद्धा के रूप में धर्म की मर्यादा के लिए युद्ध लड़ने के कर्त्तव्य का निर्वहन भी करना था। फिर भी युद्ध में विजय या अन्य किसी प्रकार का परिणाम इस घृणित कार्य को न्यायोचित सिद्ध नहीं करता था। यह एक ऐसी दुविधा थी जिसका कोई समाधान नहीं था। मोहग्रस्त, हतोत्साहित, जीवन के प्रति निराश और परिस्थितियों से खिन्न अर्जुन परम भगवान के समक्ष आत्मसमर्पण करते हुए उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने की प्रार्थना करने लगा कि उसके लिए क्या उचित कर्त्तव्य है? अर्जुन को नैतिक रूप से किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने उसे ज्ञान प्रदान करने का निश्चय किया।

घटनाओं की ऐतिहासिकता

महाभारत में वर्णित घटनाओं की ऐतिहासिक सत्यता के संबंध में प्रश्न उठाए जाते हैं। महाभारत की भांति यूरोप में बाइबिल में वर्णित ईसा मसीह के जीवन से संबंधित घटनाओं पर भी विवाद उठाया जाता है। ऐसा वाद-विवाद इतिहासकारों के लिए महत्त्व रखता है लेकिन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इसका कोई महत्त्व नहीं है। यह सब होते हुए इससे क्या अंतर पड़ता है कि यीशू का जन्म नाज़रेथ या बेथलेहम में हुआ था। अतः इस पर ध्यान न देकर हमें यह देखना चाहिए कि हम उनकी शिक्षाओं का कब तक और कितना लाभ उठा सकते हैं एवं उनके उपदेशानुसार पवित्र जीवन यापन कर सकते हैं? इसी प्रकार गीता के उपदेशों के सार को जानने के लिए हमारे लिए ऐतिहासिक तथ्यों की चिंता करना आवश्यक नहीं है बल्कि ज्ञानोदय के पथ पर चलने के लिए इसमें प्रदत्त सिद्धांतों और उनकी उपयोगिताओं पर ध्यान देना आवश्यक है। अतः महाभारत में उल्लिखित घटनाओं की सत्यता के संबंध में भाष्यकारों और इतिहासकारों द्वारा संदेह व्यक्त करना एक अनावश्यक प्रयास है। यदि हम पत्थर की मूर्ति में दिव्य मनोभावनाएँ बनाए रखते हैं तब हम भी शुद्ध हो जाते हैं। हमारी दिव्य मनोभावनाएँ हमारे मन को शुद्ध कर देती हैं। तब फिर दिव्य मनोभावनाओं के साथ भगवान की लीलाओं का चिंतन करने के फलस्वरूप शुद्धिकरण के प्रभाव के संबंध में कहाँ कोई संदेह रह जाता है?

जब मैंने अपने भक्तों से उल्लेख किया कि मैं भगवद्गीता पर भाष्य लिखना चाहता हूँ तब पश्चिम के कुछ भक्तों ने मुझे महाभारत की रूपात्मक व्याख्या करने और तदनुसार गीता की विवेचना करने का सुझाव दिया। उन्होंने मुझे पश्चिम के कई ऐसे सुप्रसिद्ध ग्रंथों का संदर्भ दिया जिनमें सारी परिस्थितियों और घटनाओं की व्याख्या रूपात्मक शैली में की गई थी। ऐसी रूपात्मक व्याख्या करना एक सरल कार्य तो अवश्य है लेकिन ऐसी पद्धति के साथ समस्या यह होती है कि यह भक्ति के सुन्दर आधार को नष्ट कर देती है जो महाभारत हमारे समक्ष प्रदर्शित करती है और हमें बौद्धिक विश्लेषणात्मकता के स्तर तक नीचे ले जाती है। यह एक खेत जिसमें पहले से अद्भुत सुन्दर खिले हुए फूलों का उद्यान है, उसे खेती करने के लिए खोदने का आदेश देने के समान है। वेदव्यास द्वारा इस ग्रंथ को प्रकट करने का दष्टिकोण हमें केवल दिव्य ज्ञानकोष प्रदान करना नहीं था अपित भगवान के नाम. गण. लीला और धाम के गुणगान के साथ पाठकों को भगवान की दिव्य महिमा से परिचित कराना भी था जो कि मन को परमात्मा में अनुरक्त करने का मधुर आधार प्रदान करता है। इसलिए हमें सब कुछ संक्षेप में करने के प्रयोजन से निर्जीव रूपात्मक व्याख्या के प्रलोभनों के वशीभूत नहीं होना चाहिए। भगवद्गीता में पहले से ही बुद्धि के लिए प्रचुर पोषण प्रदान करने का अगाध मूल ज्ञान निहित है और टीकाकारों द्वारा इसका शुष्क बौद्धिक विश्लेषण करना एक अनावश्यक प्रयास ही है। वेदव्यास भी साहित्यिक विद्या के रूप में रूपात्मक व्याख्या शैली से भली-भांति परिचित थे और उन्होंने अपने लेखन में इसका प्रभावशाली ढंग से प्रयोग भी किया है। हमें वेदव्यास द्वारा आवश्यकतानुसार प्रयोग की गई उनकी रूपात्मक शैली को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह हमें मन-मस्तिष्क की यात्रा पर ले जाते हैं और जब भगवान ने पृथ्वी पर मानव के रूप में अवतार लिया तब उन्होंने उनकी दिव्य लीलाओं और उपदेशों का वर्णन किया।

गीता की भाषा

भगवद्गीता भारत की ऐतिहासिक भाषा संस्कृत में अभिलिखित और प्रस्तुत की गई रचना है। यह निश्चित रूप में उचित है क्योंकि संस्कृत में आध्यात्मिक अवधारणाओं को व्यक्त करने के लिए प्रचुर और समृद्ध शब्दावली है। संसार की सभी भाषाओं में इसका व्याकरण अत्यधिक उपयुक्त और सम्पूर्ण है और यही एक ऐसा व्याकरण है जो हजारों वर्षों के पश्चात भी अपरिवर्तित रहा है। हाल में ही नासा के वैज्ञानिक कृत्रिम बुद्धि के कार्य के लिए कम्प्यूटर की भाषा का विकास कर रहे थे। वे यह जानकर आश्चर्यचकित रह गये कि इस प्रयोजन के लिए संस्कृत में कम्प्यूटर के अनुकूल उपयुक्त व्याकरण है। नासा एम्स रिसर्च सेन्टर, सी. ए. रिक ब्रिन्स ने अपने पत्र, 'नॉलइज रिप्रजेंटेशन इन संस्कृत एंड आर्टिफिशल इनटेलिजेन्स (ए. आई. मैगजीन स्प्रिंग 1985-39)', में यह लिखा- "कम से कम एक भाषा संस्कृत जो कि लगभग एक हजार वर्षों की अवधि के लिए अपने समृद्ध साहित्य के साथ बोली जाने वाली भाषा रही है।" साहित्यिक मूल्यों के निर्माण के अतिरिक्त यहाँ एक दीर्घकालीन दार्शनिक और व्याकरणिक परम्परा थी जो अपने ओजस्व के साथ वर्तमान शताब्दी तक अस्तित्त्व में है। व्याकरणकर्ताओं की उपलब्धियों में से संस्कृत को संक्षिप्त वर्णन करने के लिए एक विधि के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है जो कि न केवल सार बल्कि वर्तमान कृत्रिम बुद्धि के कार्य के लिए भी एक समान है।

भगवद्गीता के माध्यम से संस्कृत गहनता और परिशुद्धता दोनों प्रदान करती है। एक ही समय में यह लचीली है और सभी परम्पराओं के लिए उनके परिप्रेक्ष्यों को दिव्य संवाद में सम्मिलित कर देखने की व्यापकता भी प्रदान करती है।

गीता की विश्वव्यापी लोकप्रियता

शंकराचार्य के समय से महान दार्शनिकों ने भगवद्गीता पर प्रथानुसार भाष्य लिखे। इन्हें संस्कृत से कई भारतीय भाषाओं में अनुदित भी किया गया है, जैसे कि 'ज्ञानेश्वरी' जिसे संत ज्ञानेश्वर ने 13वीं शताब्दी में मराठी में लिखा।

ब्रिटिश शासनकाल के दौरान गीता का विश्वव्यापी प्रचार हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े एक व्यवसायी चार्ल्स विल्किंस ने सर्वप्रथम इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनकी अभिव्यक्ति ने अमेरिकन अन्तर्ज्ञानवादियों, न्यू इंग्लैण्ड के स्वतन्त्र विचारकों के एक समूह पर व्यापक प्रभाव डाला। राल्फ वाल्डो एमर्सन ने इसे अपनी कविता 'ब्रह्मा' का आधार बनाया। एमर्सन ने कहा कि गीता उन सभी के लिए पढ़ना आवश्यक है जो ईसाई धर्म के प्रचार पर आपत्ति उठाते हैं। उनके मित्र हेनरी डेविड थोरी भी गीता के प्रति श्रद्धोन्मत्त थे और उन्होंने गीता के कर्मयोग को अपनी जीवन शैली और दर्शन में सम्मिलित किया। इसलिए पहली बार यह समकक्ष संस्कृति का अंग बन गयी। एक शताब्दी के पश्चात टी. एस. इलियट की भारतीय दर्शन में आजीवन रुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने इसे अपनी कविताओं में समाविष्ट किया। गीता ने जर्मनी के स्वछंदवादियों को भी आकर्षित किया जिनमें विशेषकर श्लेगेल, हंबोल्ट और गेटे हैं। अपने देश भारत में भी स्वतंत्रता आन्दोलन के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेताओं ने भगवद्गीता को अपनी प्रेरणा के स्रोत का श्रेय देना आरम्भ किया। स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता और महान कर्मयोगी बाल गंगाधर तिलक ने महात्मा गांधी से पूर्व गीता पर व्यापक और पाण्डित्यपूर्ण टिप्पणी लिखी। उनके पश्चात महात्मा गांधी ने कहा कि जब भी उन्होंने स्वयं को निराशा से घिरा पाया तब उन्होंने मार्गदर्शन और धैर्य के लिए गीता की ओर रुख किया। गांधी के विचारों ने 20वीं शताब्दी के पश्चिम के दो दिग्गजों मार्टिन किंग लूथर और नेल्सन मण्डेला को प्रेरित किया। पूर्व और पश्चिम के बीच विचारों के इस आदान-प्रदान से गीता की लोकप्रियता में और अधिक वृद्धि हुई। वर्ष 1860 में संस्कृति के आदान-प्रदान की लहर का अमेरिका पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए स्वामी विवेकानन्द और स्वामी योगानंद जिन्होंने सबसे पहले पश्चिमी देशों में भ्रमण किया तत्पश्चात अनेक भारतीय आचार्यों ने अमेरिका जाना आरम्भ किया जैसे स्वामी सच्चिदानन्द और स्वामी प्रभुपाद। इन सबने अपने उपदेशों के लिए गीता को अधिकारिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में चित्रित किया जिसके परिणामस्वरूप आज गीता मानव इतिहास में अति लोकप्रिय और गम्भीरता से पढ़े जाने वाले ग्रंथों में सर्वोत्तम स्थान पर है।

गीता के उपदेश पंथ और धर्म से परे हैं

एक प्रकार का शिक्षण पंथ और धर्म की हठधर्मिता का प्रचार करता है। दूसरे प्रकार का शिक्षण विचारों और जीवन के सिद्धान्तों का प्रचार करता है। वे विद्वान जो गीता को किसी विशेष धर्म व्यवस्था का परिणाम मानते हैं, वे अपने संदेश की सार्वभौमिकता के साथ अन्याय करते हैं। इसमें प्रदत्त विचार दार्शनिक बुद्धि की अटकलें नहीं हैं अपितु ये आध्यात्मिक वास्तविकताओं के ऐसे चिरस्थायी सत्य हैं जो हमारे अपने अस्तित्व में और जीवन भर के पड़ावों के लिए प्रमाण योग्य हैं। इस प्रकार जब गीता का प्रथम अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हुआ, तब भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अपनी प्रस्तावना में लिखा था-" भारतवासियों के ये लेख, तब भी जीवंत रहेंगे जब भारत में ब्रिटिश राज्य का अंत हो चुका होगा और उनके द्वारा एकत्रित किए गए धन के स्रोत और शक्तियाँ स्मरण करने के लिए विस्मृत हो जाएगी।"

इसलिए भगवद्गीता को अध्ययन करने का हमारा दृष्टिकोण, इसके संदेश की रूढ़िवादिता या शैक्षणिक निरीक्षण करने का नहीं होना चाहिए और न ही किसी विचारधारा के विरोध के संदर्भ में इसके दर्शन को स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। प्राचुर्य आध्यात्मिक विचारों के बावजूद भी गीता आध्यात्मिक ग्रंथ नहीं है। इसकी अपेक्षा यह उच्चत्तम व्यावहारिक उपयोगिता के लिए परम सत्य ढूंढती है न कि बुद्धि के लिए और न ही आध्यात्मिक संतुष्टि के लिए। गीता सत्य के रूप में हमारी वर्तमान अमूर्त अपूर्णता से मूर्त पूर्णता के मार्ग को सुरक्षित और प्रशस्त करती है। इसलिए हमें इसके जीवंत उपदेशों को सहायता और ज्ञान प्राप्त करने के दृष्टिकोण से देखना चाहिए जो मानव जाति के लिए परम आनन्द और आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के लिए लाभदायक हो सकता है।

गीता पर भाष्य

दिव्य ज्ञान की पुस्तकें स्वाभाविक रूप से भाष्यकारों को उन पर टीका-टिप्पणी लिखने के लिए आकर्षित करती हैं। ये भाष्य उनमें समाविष्ट शाश्वत धर्माज्ञाओं को समझाने का कार्य करते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि किसी देश से सम्बंधित उनकी कानूनी पुस्तकें होती हैं, जैसे-संविधान आदि। इसके अतिरिक्त वकीलों द्वारा प्रकाशित टिप्पणियों का उद्देश्य भी इन पुस्तकों के सुचारु अध्ययन में सहायता करना है। इस प्रकार से धार्मिक ग्रंथों पर लिखी गयी टीका-टिप्पणियाँ उनमें प्रदत्त ज्ञान के रत्नों को आगे बढ़ाने में सहायता करती हैं। अपनी लोकप्रियता के कारण भगवद्गीता पर सैकड़ों टीका-टिप्पणियाँ लिखी गयी हैं। इतिहास में जगद्गुरु शंकराचार्य, जगद्गुरु रामानुजाचार्य, जगद्गुरु माध्वाचार्य, जगद्गुरु निम्बार्काचार्य और महाप्रभु बल्लभाचार्य महान भाष्यकार रहे हैं जो प्रमुख वैदिक परम्पराओं के प्रवर्तक थे। शैव परम्पराओं में प्रतिष्ठित तत्त्ववेता अभिनव गुप्त ने कुछ भिन्न प्रकार से टिप्पणी लिखी जिसे 'गीतार्थ समग्र' कहा जाता है।

दिव्य ज्ञान का सौंदर्य ऐसा है कि इसका जितना मंथन किया जाए, यह उतना ही अमृत उत्पन्न करता है और इसीलिए इस अंतर्दृष्टि से पूर्ण टीका-टिप्पणियों ने नि:संदेह संसार को समृद्ध किया है। हमें भी यह ध्यान रखना चाहिए कि महान आचार्यों की टिप्पणियाँ उनके जीवन के लक्ष्यों के अनुरूप हैं। इन महान आचार्यों ने सदैव मानवजाति के कल्याणार्थ काल, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार परम सत्य का उपदेश दिया। इस प्रकार से उन्होंने धर्म प्रचारक की भूमिका का निर्वहन करते हुए अति उमंग के साथ भगवद्गीता के श्लोकों की व्याख्या करने में अपने उत्कृष्ट विचारों को प्रसारित किया और अपने सभी निजी विशिष्ट परिप्रेक्ष्यों को चित्रित किया। तदनुसार उनके सुसंस्कृत कार्यों का सम्मान करते हुए हमें ध्यान रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण अद्वैतवादी, विशिष्ट अद्वैतवादी या द्वैतवादी नहीं थे। वे दार्शनिक विवादात्मक कौशल से परे थे और इसी प्रकार के उनके उपदेश थे। इस प्रकार से हम देखते हैं कि उनके उपदेशों में आस्तिकवाद, द्वैतवाद, यर्थाथवाद, कर्म, ज्ञान, भक्ति, हठ, सांख्य इत्यादि से सम्बंधित सभी सिद्धांतों को गुंथा गया है। इसलिए हमें एक धार्मिक परिप्रेक्ष्य में भगवद्गीता के अर्थ को सीमित करने की अपेक्षा इसे पूर्ण परम सत्य के झरोखे के रूप में देखना चाहिए।

यही जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की चिन्तन की शैली है जिन्होंने किसी एक संप्रदाय या धार्मिक परम्परावादी दलदल में फंसे बिना प्रसिद्ध भारतीय संतों और पश्चिमी संतों के चिन्तन को मुक्त रूप से अपने उपदेशों में उद्धृत किया। जब उनसे यह पूछा जाता था कि चार वैष्णव संप्रदायों में से वे किस एवं कौन से संप्रदाय से हैं तब वह नम्रता से उत्तर देते थे कि परम सत्य एक है और वे स्वयं को किसी विशेष संप्रदाय तक सीमित नहीं रखते। सभी वास्तविक संप्रदाय भगवान से आरम्भ होते हैं। इसलिए केवल एक ही संप्रदाय है जो कि भगवान का संप्रदाय है। तब फिर हमें उन्हें चार में विभाजित करने की क्या आवश्यकता है? यदि हम सच्चाई को इस प्रकार से विभाजित करना पसंद करते हैं तब यह इन विभाजनों को गुणा करना होगा। संप्रदायों के साथ ऐसा ही हुआ है क्योंकि चारों मूल संप्रदायों में से प्रत्येक को कई शाखाओं और फिर उपशाखाओं में विभाजित किया गया है। सभी परम सत्य के समस्त क्षेत्रों पर एक मात्र अपने स्वामित्व का दावा करते हैं। इस प्रवृत्ति ने सनातन धर्म को अनेक शाखाओं में विभाजित कर दिया है।

जैसे ही संसार के बीच सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं और लोगों में सूचना के प्रवाह का प्रसार होता है। यह विचार कि एक पंथ, जाति, संप्रदाय का धर्म, सार्वभौमिक सत्य का महासंरक्षक है, इसे स्वीकार करने वाले बहुत ही कम हैं। इसीलिए हम सबको पूर्वाग्रह से मुक्त उदार बुद्धि की व्यापक तरंग के साथ मिलकर भगवद्गीता के चमकते प्रकाश से अविभाज्य विशुद्ध सत्य को प्रकाशित करना चाहिए। यह न केवल भगवद्गीता का अपितु सभी वेद शास्त्रों का मूल उद्देश्य है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

जगद्गुरु श्री कृपालु जी एक अवतारी संत थे जिन्होंने आधुनिक युग में प्राचीन वैदिक ज्ञान की महत्ता को पुनः स्थापित किया। 34 वर्ष की अल्प आयु में उन्होंने भारत की एकमात्र सर्वोच्च सभा काशी विद्वत्परिषत् के 500 विद्वानों के समक्ष 10 दिन तक परिष्कृत संस्कृत में कुशलतापूर्वक एक सौ वैदिक ग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत करते हुए वर्तमान युग के लिए भगवद्प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। इस सभा के प्रकाण्ड विद्वानों को जब यह बोध हुआ कि इनका ज्ञान तो उन सबके समेकित ज्ञान से भी अधिक गहन है तब उन्होंने उन्हें जगद्गुरु, विश्व के आध्यात्मिक गुरु की उपाधि से सम्मानित किया। इस प्रकार से भी वे भारतीय इतिहास में जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त करने वाले पाँचवें संत बने। इससे पूर्व इतिहास में केवल चार ही मूल गुरू हुए-1. आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, 2. जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, 3. जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य और 4. जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य। प्राचीन वैदिक ग्रंथों पर उनके पूर्ण अधिकारिक अद्भुत ज्ञान से काशी विद्वत्परिषत् के सभी विद्वान विस्मय से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने इनके अनुभवात्मक दिव्य ज्ञान व भक्तिरस से ओतप्रोत व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर इन्हें बहुत-सी उपाधियों से विभूषित किया। जैसे किः

जगद्गुरुत्तमः भारत के इतिहास के सर्वोच्च जगद्गुरु।

वेदमार्ग प्रतिष्ठापनाचार्यः वेदों में प्रकट सत्य ज्ञान को स्थापित करने वाले।

निखिल दर्शन समन्वयाचार्यः सभी धार्मिक ग्रंथों के सार का समन्वय करने वाले।

सनातन वैदिक धर्म प्रतिष्ठापनाचार्यः विश्व में शाश्वत वैदिक धर्म की पुनः स्थापना करने वाले।

सत्संप्रदाय परमाचार्यः आध्यात्मिक ज्ञान परंपरा के सच्चे प्रवर्तक।

भगवद्गीता का यह भाष्य और इसके श्लोकों का अर्न्तदृष्टिपूर्ण ज्ञान श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मुझे प्रकट किए गए दिव्य ज्ञान पर आधारित है। इस भाष्य का उद्देश्य केवल व्याख्या करना नहीं है अपितु श्रीकृष्ण द्वारा व्यक्त किए गए श्लोकों के अर्थ को आगे बढ़ाना भी है। इस प्रयोजन के लिए मैंने दिव्य ज्ञान की पुस्तकों, संतों, विश्वभर की पुण्य आत्माओं और दिग्गजों के उपदेशों को उद्धृत करने में कोई संकोच नहीं किया।

गीता पठन सरल बनाने के लिए सहायक बिन्दु

इस भाष्य से कुछ चीजों को समझना सहज होगा। सर्वप्रथम गीता संवादों के बीच 'संवादों का संवाद' है। भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का अंश है जो राजा जनमेजय और ऋषि वैशम्पायन से सम्बंधित है। इस प्रकार से इसमें वैशम्पायन जनमेजय के समक्ष संजय उवाच' संजय ने कहा, 'धृतराष्ट्र उवाच' धृतराष्ट्र ने कहा इत्यादि का वर्णन किया गया है जबकि वैशम्पायन और जनमेजय गीता के वक्ता के रूप में प्रत्यक्ष सामने नहीं आते।

गीता राजा धृतराष्ट्र और उनके मंत्री संजय के बीच वार्तालाप से आरम्भ होती है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह युद्ध के मैदान में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित नहीं हो सका। धृतराष्ट्र वार्तालाप आरम्भ करते हुए संजय से युद्ध क्षेत्र की गतिविधियों के संबंध में जानकारी देने को कहता है और वह आगे कुछ नहीं बोलता। संजय उन्हें उत्तर देते हुए युद्धस्थल की घटनाओं का सजीव वर्णन करता है। संजय वेदव्यास का शिष्य था और अपने गुरु की कृपा से उसे दूर-दूर तक देखने की चमत्कारी शक्ति प्राप्त हुई थी। अपनी दूर दृष्टि की दिव्य शक्ति के बल पर वह महाभारत के युद्ध में घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ था। इसलिए वह दूर से युद्ध के मैदान में घटित हो रही गतिविधियों का पल-प्रतिपल आंखों देखा वर्णन सुना रहा था। इस प्रकार वह कहता है, 'श्री भगवान उवाच' परम प्रभू ने कहा, और अर्जुन उवाच, 'अर्जुन ने कहा' आदि।

मुख्य संवाद भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच है। अर्जुन प्रश्न करता है और श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं। यह एक पक्षीय संवाद है क्योंकि श्रीकृष्ण अधिकतर वार्तालाप करते हैं।

दूसरे इसमें उपनामों की अधिकता है जिन्हें विशेषणों के रूप में भी जाना जाता है। उदाहरणार्थ श्रीकृष्ण को हृषीकेश, केशव, गोविन्द, मधुसूदन, अच्यूत आदि तथा समान रूप से अर्जुन को धनुर्धर, कौन्तेय, परन्तप आदि उपनामों से सम्बोधित किया गया है। प्रायः इन नामों का प्रयोग सूझ-बूझ के साथ किया जाता है ताकि ये विशेष अर्थ को संप्रेषित कर सकें या संवादों को रूप प्रदान कर सकें। इसलिए इस भाष्य में यथावश्यक ऐसे ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया गया है।

भगवद्गीता में प्रयुक्त महत्त्वपूर्ण शब्द

पूरी भगवद्गीता का सार इस पुस्तक में वर्णित परिचय की परिधि से परे है क्योंकि सर्वप्रथम यह दिव्य ज्ञान की स्वयं खोज करने के लिए हमारी इसे पढ़ने की उत्सुकता बनाए रखता है और दूसरे क्योंकि श्रीकृष्ण ने इसमें जो सब कुछ कहा उसकी संक्षेप में विवेचना करना असंभव है फिर भी भगवद्गीता के कुछ सामान्य शब्दों और अन्य वैदिक साहित्य के शब्दों की व्याख्या की गयी है ताकि पाठक इसमें प्रस्तुत की गई अवधारणाओं को सुगमता से ग्रहण कर सकें।

भगवानः भगवद्गीता सहित वैदिक ग्रंथों में भगवान को परम सत्ता के रूप में व्यक्त किया गया है। वे सर्वशक्तिशाली, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। वे सृष्टि के निर्माता, संरक्षक और संहारक हैं। एक ही समय में वे असंख्य विरोधाभासी गुणों के स्वामी भी हैं। इस प्रकार से वे निकट भी हैं और दूर भी हैं, बड़े भी हैं और छोटे भी हैं। वे निराकार हैं, फिर भी साकार हैं, निर्गुण होते हुए भी वे अनन्त गुणों के स्वामी हैं। लोग भगवान को तीन प्रकार के दृष्टिकोण से देखते हैं। कोई उन्हें सर्वव्यापक निराकार के दृष्टिकोण से देखता है जिसे ब्रह्म कहते हैं। अन्य लोग परमात्मा के रूप में उनकी उपासना करना पसंद करते हैं जो सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं जबकि कुछ लोग भगवान के साकार रूप में उनकी पूजा करते हैं। ब्रह्म, परमात्मा और भगवान एक ही परम सत्ता के तीन अलग-अलग स्वरूप हैं।

कभी-कभी भगवान अकारण कृपा करते हुए पृथ्वी पर अवतरित होते हैं और आत्मा को उन्नत करने के लिए दिव्य लीलाएँ प्रदर्शित करते हैं। ऐसे अवतरण को अवतार कहा जाता है। श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों परम पुरूषोत्तम सर्वशक्तिमान भगवान के अवतार हैं। चूंकि भगवान सर्वशक्तिमान हैं इसीलिए उन्हें किसी एक रूप में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। वे असंख्य रूपों में प्रकट हो सकते हैं किन्तु हमें सदैव स्मरण रहना चाहिए कि ये एक ही भगवान के अलग-अलग स्वरूप हैं और यह भिन्न-भिन्न भगवान नहीं हैं।

आत्माः आत्मा भगवान का अणु अंश है। इसकी प्रकृति आध्यात्मिक है और यह भौतिक शरीर से पृथक है। आत्मा की उपस्थिति शरीर को चेतना प्रदान करती है जो जड़ पदार्थों से निर्मित है। जब आत्मा शरीर को छोड़ देती है तब शरीर पुनः जड़ पदार्थ बन जाता है। शरीर नश्वर है और आत्मा अविनाशी है।

यह अब्राहम धर्म की इस अवधारणा से कि पृथ्वी पर जीवों के प्रत्येक जन्म में नई आत्माएँ निर्मित होती हैं, से कुछ अलग है। वैदिक ज्ञान के अनुसार आत्मा का कोई आदि और अन्त नहीं है। यह न तो जन्म लेकर उत्पन्न होती है और न ही मृत्यु होने पर नष्ट होती है। सांसारिक भाषा में मृत्यु को हम आत्मा का शरीर परिवर्तित करना कहते हैं। भगवद्गीता में इसे मनुष्य द्वारा एक वस्त्र को त्यागकर दूसरा वस्त्र धारण करने के समान कहा गया है। आत्मा अगले जन्म का चयन करने में स्वतंत्र नहीं है जिसका निर्धारण भगवान द्वारा कर्म के नियम के अन्तर्गत किया जाता है।

माया शक्ति हमें क्यों आरम्भिक अवस्था में घेर लेती है! इसका कारण यह है कि हम भगवान की ओर पीठ किए हुए हैं अर्थात भगवान से विमुख हैं। भगवान की प्रकृति प्रकाशमय है और जबकि भौतिक शक्ति की प्रकृति अंधकारमय है।

जब कोई मनुष्य प्रकाश से विमुख रहता है तब स्वाभाविक रूप से अंधकार उस पर हावी हो जाता है। समान रूप से जो आत्माएँ भगवान की ओर पीठ किए हुए हैं अर्थात उनसे विमुख रहती हैं, उन्हें प्राकृत शक्ति आच्छादित कर लेती है।

आत्मा शब्द के संबंध में वैदिक शब्दावली को समझना उपयोगी होगा। शरीर की जीवित अवस्था में आत्मा जीवात्मा कहलाती है क्योंकि यह शरीर को जीवित रखती है। भौतिक क्षेत्र में आत्मा के संदर्भ में आत्मा और जीवात्मा शब्दों का प्रयोग अन्तर्विनिमय के लिए किया जाता है। जीवात्मा के साथ भगवान भी शरीर में निवास करते हैं। इसीलिए उन्हें परमात्मा कहा गया है। वे मृत्यु पश्चात भी आत्मा के साथ रहते हैं चाहे वह किसी भी शरीर को धारण करे। भगवान जीवों के कर्म में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन हमारे भीतर बैठकर मूक साक्षी बने रहते हैं। जीवात्मा अपने शाश्वत मित्र को विस्मृत कर देती है और भौतिक पदार्थों एवं सुख सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करती है।

आत्मा शब्द जिसका साहित्यिक अर्थ भी आत्मा है और गीता में नियमित रूप से इसका विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया गया है। कुछ स्थानों पर इसका प्रयोग जीवात्मा (व्यक्तिगत आत्मा) के रूप में शरीर, मन, और बुद्धि को सम्मिलित किए बिना किया गया है (उदाहरणार्थ श्लोक 6.20) कई बार आत्मा और शरीर सहित मन और बुद्धि के रूप में जीवों के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व के संदर्भ में इसका प्रयोग किया जाता है। (उदाहरणार्थ श्लोक 6.20) कहीं-कहीं आत्मा शब्द का प्रयोग मन के लिए (उदाहरण पार्थ श्लोक 6.5) और कई बार इसका प्रयोग बुद्धि के लिए (उदाहरणार्थ श्लोक 5.7) और कुछ स्थानों पर इसका प्रयोग परमात्मा (उदाहरणार्थ श्लोक 6.29) के लिए किया गया है।

भौतिक शक्ति (प्रकृति या माया)

भौतिक शक्ति जिसे प्रकृति कहा जाता है, भगवान की विरोधी नहीं है अपितु यह भगवान की अनन्त शक्तियों में से एक है। प्रलय के समय प्रकृति भगवान में अव्यक्त अवस्था में स्थित रहती है। फिर जब भगवान सृष्टि के सृजन की इच्छा करते हैं तब वे इस पर दृष्टि डालते हैं और यह अपनी अव्यक्त अवस्था से प्रकट होना आरम्भ करती है। तब यह स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों को प्रकट करती है।

प्राकृत शक्ति का एक स्वरूप, माया संसार का निर्माण करने के लिए उत्तरदायी होती है और इसका दूसरा स्वरूप 'उपादान' है जो जीवों को 'संसार' जीवन और मृत्यु के बंधनों में डालता है। माया दिव्य आत्मा के रूप में हमारी पहचान को विस्मृत कर देती है और हमें भौतिक शरीर के भ्रम में डाल देती है। इसलिए हम इस संसार में शारीरिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं। भौतिक क्षेत्र में अनन्त जन्मों के प्रयास के पश्चात आत्मा को यह बोध होता है कि वे असीम दिव्य सुख जिन्हें वह प्राप्त करना चाहती है, उन्हें इस संसार में प्राप्त नहीं किया जा सकता और ये केवल भगवान से ही प्राप्त हो सकते हैं। तब वह पूर्णता की अवस्था प्राप्त करने के लिए योग के मार्ग का अनुसरण करती है और फिर यह माया शक्ति के बंधनों से मुक्त हो जाती है।

प्रकृति के गुण

प्राकृत शक्ति के तीन संघटक गुण हैं जो सत्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण हैं। ये तीनों गुण भिन्न अनुपात में हमारे व्यक्तित्त्व में विद्यमान हैं और हमें प्रभावित करते हैं। तमोगुण अज्ञानता का गुण है। यह आलस्य, मूर्छा, अज्ञानता, अहिंसा, क्रोध और दुर्व्यसन की ओर उत्प्रेरित करता है। इस प्रकार यह आत्मा को सांसारिकता के भ्रम के अंधकार में गहनता तक खींच कर ले जाता है। रजोगुण आसक्ति का गुण है जो मन और इन्द्रियों की कामनाओं को भड़काता है और मनुष्य को सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के प्रयास के लिए प्रेरित भी करता है। सत्व अर्थात अच्छाई का गुण मनुष्य को ज्ञान से प्रकाशित करता है और दयालुता, धैर्य और सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को पोषित करता है। यह मन को शांत करता है और इसे आध्यात्मिक अभ्यास के योग्य बनाता है। आध्यात्मिकता का अभ्यास करने वाले साधक को तमोगुण और रजोगुण को कम करने का प्रयास करना चाहिए तथा सत्वगुणों को पोषित करना चाहिए और फिर सत्वगुण से परे जाने का प्रयास करना चाहिए। भगवान तीनों गुणों से परे हैं इसीलिए मन को भगवान में तल्लीन कर हम भी अलौकिक अवस्था की ओर बढ़ सकते हैं।

यज्ञः सामान्यतः यज्ञ शब्द का तात्पर्य हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्जवलित कर यज्ञ करने से है। भगवद्गीता में धार्मिक ग्रंथों में वर्णित सभी निर्धारित धार्मिक क्रियाओं को यज्ञ के रूप में सम्मिलित किया गया है जिनका क्रियान्वयन भगवान को अर्पण के रूप में किया जाता है। प्रकृति के तत्त्व भगवान की सृष्टि निर्माण प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। सृष्टि की प्रणाली के सभी तत्त्व स्वाभाविक रूप से परम भगवान से प्राप्त करके पुनः उसे वापस कर देते हैं। सूर्य पृथ्वी को स्थिरता प्रदान करता है और जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक गर्मी और प्रकाश प्रदान करता है। पृथ्वी अपनी मिट्टी से अन्न और अन्य खाद्य पदार्थों को उत्पन्न कर हमारा पोषण करती है और सभ्य जीवन शैली के लिए अपने गर्भ में आवश्यक खनिजों को समाये रखती है। वायु हमारे शरीर में प्राण शक्ति का संचार करती है और ध्वनि शक्ति के संचरण को सक्षम बनाती है। हम जीव भी भगवान की सष्टि प्रणाली के अभिन्न अंग हैं। वायु जिससे हम श्वास लेते हैं। पृथ्वी जिस पर हम रहते हैं, अन्न जिसे हम ग्रहण करते हैं और प्रकाश जो सबके लिए दिन में उजाला करता है। हमारे लिए ये सब सृष्टि के उपहार हैं। जब हम अपने जीवन निर्वाह के लिए इन उपहारों का उपयोग करते हैं तब सृष्टि की अभिन्न प्रणाली के प्रति हमारे कुछ कर्त्तव्य भी हैं। भगवद्गीता यह उपदेश देती है कि प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति के साथ हम भगवान के प्रति अपने निश्चित कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं। भगवान हमसे ऐसे यज्ञों की अपेक्षा करते हैं।

अपने हाथ के उदाहरण पर विचार करें, यह हमारे शरीर का अभिन्न अंग है। यह शरीर से अपने पोषण हेतु रक्त, ऑक्सीजन और पोषक तत्त्व प्राप्त करता है और इसके बदले में यह शरीर के लिए आवश्यक कार्य करता है। यदि हाथ अपने कार्य को बोझ समझने लगें और यह निर्णय कर लें कि केवल शरीर ही उसकी सेवा करे तब यह कुछ क्षण भी चेतन नहीं रह सकता। इस प्रकार शरीर के प्रति यज्ञ के रूप में कार्य करने से हाथ का निजी हित भी पूरा होता है। समान रूप से हम जीवात्माएँ भगवान का अणु अंश हैं और इसीलिए भगवान की सृष्टि निर्माण की विशाल योजना में हमें भी अपनी भूमिका का निर्वहन करना होता है। जब हम भगवान के प्रति यज्ञ के रूप में अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं तब स्वाभाविक रूप से हमारे निजी हितों की भी संतुष्टि होती है।

यज्ञों को दिव्य चेतना से युक्त होकर भगवान के प्रति अर्पण की भावना के साथ सम्पन्न करना चाहिए। हालांकि लोगों की समझ विभिन्न प्रकार की होती है और इसीलिए वे भिन्न-भिन्न पद्धतियों द्वारा अस्थिर चेतना के साथ यज्ञ करते हैं। अल्पज्ञानी भौतिक पदार्थों की कामना से यज्ञ सम्पन्न करते हैं और स्वर्ग के देवताओं को अपनी भेटें अर्पित करते हैं।

देवताः स्वर्ग लोक के देवता-ये लोग भौतिक क्षेत्र के भीतर अस्तित्त्व वाले उच्च लोकों में रहते हैं जिसे स्वर्ग कहते हैं। ये स्वर्ग के देवता भगवान नहीं हैं। ये हमारे समान आत्माएँ हैं। ये भगवान की शासन व्यवस्था के संचालन हेतु विशिष्ट पदों पर नियुक्त हैं और भौतिक संसार के निश्चित पक्षों एवं कार्यों का निरीक्षण एवं देख-रेख करते हैं। किसी देश की संघीय सरकार पर विचार करें जिसमें राज्य के सचिव, वित्त सचिव, वाणिज्य सचिव और कृषि सचिव के पद सृजित किए जाते हैं। इन पदों पर चयनित लोग सीमित अवधि के लिए अपने पदों पर आसीन रहते हैं। अपने कार्यकाल की समाप्ति, सत्ता हस्तांतरण होने पर ये पदाधिकारी भी बदल जाते हैं किन्तु इन पदाधिकारियों के बदलने पर ये सब पद यथावत बने रहते हैं। समान रूप से संसार के प्रशासनिक कार्यों के लिए कुछ पदवियाँ जैसे अग्नि देव, वायुदेव, वरूणदेव, (समुद्र के देवता) इन्द्र देव (स्वर्ग के देवताओं का राजा) आदि सृजित की गयी हैं। जीवात्माएँ अपने पूर्व जन्मों के कार्यों के आधार पर निश्चित अवधि के लिए इन पदों को ग्रहण करती हैं और फिर कार्यकाल की समाप्ति पर वे इन पदों से हट जाती हैं और अन्य लोग इन पदों पर आसीन हो जाते हैं। इस प्रकार से आत्माएँ केवल अस्थायी रूप से स्वर्ग का देवता बनती हैं और इसी कारण से हम उनकी तुलना परमात्मा से नहीं कर सकते।

अनेक लोग भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने हेतु स्वर्ग के देवताओं की आराधना करते हैं किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये देवता न तो माया के बंधनों से मुक्ति दिला सकते हैं और न ही भगवद् प्राप्ति करा सकते है। इसके अतिरिक्त वे हमें वही भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करते हैं जो उन्हें भगवान से प्राप्त होती है इसीलिए गीता बार-बार स्वर्ग के देवताओं की पूजा के लिए निरुत्साहित करती है और यह अवगत कराती है कि जो ज्ञान में स्थित रहते हैं, वे परमेश्वर की पूजा करते हैं।

भगवान का दिव्य लोकः पृथ्वी लोक सहित भौतिक ब्रह्मांड में सम्मिलित स्वर्ग के सभी उत्तम लोक एवं नरक लोकों के सभी अस्तित्व भगवान की सृष्टि का एक चौथाई भाग हैं। ये सब उन आत्माओं के लिए हैं जिन्हें आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त नहीं हुई है। हम संसार में कई प्रकार के कष्ट भोगते हैं, जैसे-जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु आदि। इन समस्त भौतिक क्षेत्र से परे आध्यात्मिक क्षेत्र का परिमाण भगवान की सृष्टि का तीन चौथाई है। इसमें भगवान के असंख्य दिव्यलोक हैं जिनका उल्लेख वैदिक ग्रंथों में साकेत लोक (भगवान राम लोक) गोलोक (भगवान श्रीकृष्ण का लोक) शिवलोक (भगवान शिव का लोक) दुर्गा लोक (माता दुर्गा का लोक) आदि के रूप में किया गया है। भगवद्गीता में बारंबार यह उल्लेख किया गया है कि जो मनुष्य भगवद्प्राप्ति कर लेता है वह भगवान के दिव्य लोकों में जाता है और फिर वह जन्म और मृत्यु के इस मायाबद्ध संसार में पुनः लौट कर नहीं आता।

शरणागतिः भगवान दिव्य हैं और हमारी लौकिक बुद्धि उन्हें समझ नहीं सकती। समान रूप से हमारी भौतिक इन्द्रियाँ उनकी अनुभूति नहीं कर सकती, आँखें उन्हें देख नहीं सकती और कान उन्हें सुन नहीं सकते लेकिन यदि भगवान कुछ जीवों पर अपनी कृपा करने का निर्णय करते हैं तब वे उन भाग्यशाली आत्माओं को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं। उनकी दिव्य कृपा को प्राप्त कर कोई भी उन्हें देख सकता है, सुन सकता है और उनको पा सकता है। भगवान की कृपा प्राप्त करना मनचाहा कार्य नहीं है। वे उन पर कृपा करते हैं जो उनके प्रति पूर्ण शरणागत होते हैं। इस प्रकार से भगवद्गीता इस पर बल देती है कि आत्मा को भगवान की शरणागति प्राप्त करने का रहस्य अवश्य सीखना चाहिए।

योगः गीता में योग शब्द का प्रयोग लगभग एक सौ पचास स्थानों पर किया गया है। यह युज धातु से बना है जिसका अर्थ जुड़ना है। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में जीवात्मा के भगवान के साथ एकीकरण को योग कहते हैं (देखें श्लोक 5.21) और इस एकीकरण को पूर्ण बनाने वाले विज्ञान को भी योग कहते हैं (देखें श्लोक 4.1)। पुनः किसी पद्धति द्वारा प्राप्त सिद्धावस्था का उल्लेख भी योग के रूप में किया गया है (देखें श्लोक 6.18)। भगवान के साथ एकीकृत होना स्वाभाविक रूप से मनुष्य को प्राकृतिक शक्ति के संपर्क से उत्पन्न कष्टों से मुक्त कराता है। इसीलिए दुखों से मुक्ति की अवस्था को भी योग कहा जाता है (देखें श्लोक 6.23)। चूंकि पूर्णता मन की समानता के साथ आती है, ऐसी समानता को भी योग कहा जाता है (देखें श्लोक 2.48)। योग की अवस्था प्राप्त मनुष्य भगवान की भक्ति से युक्त होकर अपने सभी काम पूर्णता के साथ करता है इसलिए दक्षता पूर्ण कार्य करना भी योग कहलाता है (देखें श्लोक 2.50)।

अब कोई प्रश्न कर सकता है कि योग क्यों आवश्यक है? इसका उत्तर यह है कि भौतिक संसार में सुखों की खोज करना रेगिस्तान में जल की खोज में और आगे भागने के समान है। सांसारिक कामनाओं की प्रकृति ऐसी होती है कि जब इनकी पूर्ति की जाती है तब यह अग्नि को शमन करने के लिए उसमें घी डालने के समान होता है, इससे कुछ क्षण के लिए अग्नि शांत तो हो जाती है किन्तु कुछ क्षण पश्चात और अधिक तीव्रता से भड़कती है। इसी प्रकार से मन और इन्द्रियों की कामनाओं की पूर्ति हमारे लोभ को बढ़ाती है लेकिन इनका दमन करना भी हानिकारक होता है और इससे क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिए हमें कामनाओं के उत्पन्न होने के मूल कारणों को ज्ञात कर उनका सामना करने के उपाय ढूंढने चाहिए। बार-बार चिन्तन करने के परिणामस्वरूप मन में आसक्ति उत्पन्न होती है और यह आसक्ति कामनाओं को बढाती है। इसलिए हमें यह दृढ निश्चय करना चाहिए कि आत्मा संसार में जिन सुखों को सांसारिक पदार्थों में खोज रही है, वे आत्मा का दिव्य सुख नहीं हैं तब इन कामनाओं का उत्पन्न होना बंद हो जाता है। हालांकि सुख की इच्छा आत्मा की मूल प्रकृति है क्योंकि वह दिव्य आनन्द के महासिंधु भगवान का अणु अंश है। यह प्रवृत्ति तभी शांत होती है जब आत्मा भगवान का असीम आनन्द प्राप्त कर लेती है। इसलिए जाने और अनजाने में प्रत्येक आत्मा दिव्य चेतना या योग की अवस्था को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही है।

भगवान के साथ एकत्व स्थापित करने के लिए विभिन्न प्रकार की योग पद्धतियों का उल्लेख किया जाता है जैसे कि कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांग योग और भक्तियोग। इस प्रकार से अध्यात्म पथ के साधक को योगी या साधक कहा जाता है (देखें श्लोक 4.25)। कभी-कभी योग शब्द का प्रयोग विशेष रूप से अष्टांग योग की प्रक्रिया संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। ऐसी अवस्था में योगी को विशेषतः अष्टांग योग के साधक के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।

ज्ञानयोगः (ज्ञान का मार्ग) इस पद्धति में आत्मज्ञान पर बल दिया जाता है। गीता में कहीं-कहीं इसका उल्लेख सांख्य योग के रूप में भी किया गया है। यद्यपि बौद्धिक चेतना के अभ्यास में ज्ञानी स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करता है जो शरीर की सभी उपाधियों और दूषण से अलग होता है। इसमें आत्मज्ञान को पूर्णता का चरम लक्ष्य माना जाता है। ज्ञानयोग का अभ्यास स्वयं के प्रयास और बिना भगवान की कृपा की सहायता पर आधारित होता है। यह अत्यंत कठिन मार्ग है और इसमें पग-पग पर पतन होने का जोखिम बना रहता है।

अष्टांगयोगः (योग के आठ अंग) इसमें शारीरिक अभ्यास के साथ आरम्भ करते हुए शनैः-शनैः शुद्धिकरण की प्रक्रिया और मन को नियंत्रित करने की दिशा में आगे बढ़ना सम्मिलित है। इसमें प्राण वायु को सुषुम्ना नाड़ी द्वारा मेरूदण्ड कोष्ठ तक उठाते हैं और उसे आँखों की भौहों के बीच ले जाते हैं जो कि तीसरा नेत्र अर्थात आंतरिक नेत्र का क्षेत्र है। इसके पश्चात भक्ति भावना से परिपूर्ण होकर परम भगवान पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। पतंजलि ऋषि द्वारा रचित उनके प्रसिद्ध ग्रंथ जिसे योग सूत्र कहा जाता है, में आठ चरणों में अभ्यास करने की संरचनात्मक पद्धति प्रस्तुत की गयी है। इसलिए इसे अष्टांग योग के रूप में जाना जाने लगा। हठयोग इससे अलग हटकर है। इसमें कठोर तपस्या पर बल दिया जाता है। हठयोग द्वारा इच्छाशक्ति को दृढ़ कर मन और इन्द्रियों को वश में करने का प्रयास किया जाता है।

वैदिक साहित्य में कई स्थानों पर भगवद् प्राप्ति के तीन मार्गों-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार के वर्गीकरण में अष्टांग योग को ज्ञानयोग में सम्मिलित किया गया है।

भक्तियोगः (भक्ति का मार्ग) इस मार्ग में मन को निःस्वार्थ, निष्काम भाव और अनन्य प्रेम के साथ भगवान के नाम, रूप, गुण और लीलाओं में अनुरक्त करना सम्मिलित है। कोई भी भगवान को अपने शाश्वत माता, पिता, मित्र, स्वामी और आत्म प्रिय के रूप में देखकर उनके साथ मधुर संबंध स्थापित कर सकता है। इस मार्ग में भक्त भगवान के शरणागत होकर उनकी इच्छा के साथ अपनी इच्छा को एकीकृत करके अन्य मार्गों की अपेक्षा सरलता से भगवान की कृपा की पात्रता और आध्यात्मिक पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करता है। यद्यपि भगवद्गीता योग पद्धति के सभी मार्गों को अंगीकार करती है फिर भी यह दृढ़तापूर्वक भक्तियोग के मार्ग के महत्त्व को योग की अन्य पद्धति से श्रेष्ठ बताती है। गीता में श्रीकृष्ण द्वारा बार-बार घोषित किया गया है कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है। यह कुछ लोगों के बीच इस गलत अवधारणा को निर्मूल करता है कि भक्ति योग अन्य योग पद्धतियों से निकृष्ट है।

कर्मयोगः यह योग मनुष्य के सांसारिक कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को दर्शाता है जबकि योग का तात्पर्य भगवान के साथ एकीकृत होना है। इसलिए संसार में अपने दायित्वों का पालन करते हुए भी मन को भगवान में अनुरक्त करने का अभ्यास योग कहलाता है। इसके लिए मन को कर्मफलों से विरक्त रखना और यह निश्चय विकसित करना होता है कि सभी कार्य भगवान के सुख के निमित्त हैं। इसलिए गीता में इसका उल्लेख कभी-कभी बुद्धि योग या ज्ञान योग के रूप में किया जाता है। चूंकि अधिकांश लोग गृहस्थ जीवन में अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ-साथ अध्यात्म का अभ्यास भी करते हैं। इसलिए कर्मयोग उनके लिए भी अनिवार्य हो जाता है जो इसके साथ अन्य योग पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों की संक्षिप्त व्याख्या के साथ अब मैं पाठकों पर छोड़ देता हूँ कि वे भगवद्वाणी पर ध्यान से विचार करें और भगवद्गीता में परम भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रकट किए गए दिव्यज्ञान की स्वयं खोज करें।

आभारोक्ति

मैं अपने गुरुदेव जगद्गुरु, श्री कृपालु जी महाराज जो दिव्य प्रेम और अलौकिक ज्ञान के महासागर थे, के प्रति अपनी गहन और हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। यह केवल उनकी कृपा ही है जिसे पाकर मेरे जैसी अयोग्य आत्मा उनके ज्ञान के अनन्त कोष की बूंद प्राप्त करने में सक्षम हुई। मानवता की सेवा में यह वैदिक ज्ञान उन्हीं के उपदेशों के अनुसरण का विनम्र प्रयास है। मैं मानवजाति की ओर से अति कृपालु और उदार ऋषि वेदव्यास का भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने महाभारत में दिव्य भगवद्वाणी को समाविष्ट करके हमें पवित्र ग्रंथ का ज्ञान दिया। इस पुस्तक में सम्मिलित सुन्दर चित्रों की अभिकल्पना के लिए मैं संजय सरकार को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।

मैं इस पुस्तक के प्रारूप, टाईपिंग-विन्यास, अभिन्यास कार्य इत्यादि के लिए प्रज्ञान वैद्य के दिन-रात के परिश्रम की सराहना करता हूँ। मैं इस पुस्तक का संस्करण निकालने और इसके प्रकाशन में अपनी टीम के सभी सदस्यों द्वारा प्रदान किए अमूल्य सहयोग की प्रशंसा करता हूँ। इस योगदान के लिए इन सबको मेरा हार्दिक धन्यवाद। इस पुस्तक की रचना मूल रूप से अंग्रेजी में की गयी थी। हमारे सत्संगी पंकज दीवान ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया। मैं उनके सटीक, सारगर्भित और विषयानुरूप उत्कृष्ट अनुवाद कार्य की सराहना करता हूँ।

मैं आशा करता हूँ कि जिस वास्तविक उद्देश्य के लिए इस पुस्तक की रचना की गई है, उसे यह पूरा करेगी और परम सत्य की खोज करने वाले साधकों के मागदर्शन और भगवद् प्राप्ति के लिए उनकी यात्रा में सहायता करेगी।

भगवद सेवा में तल्लीन स्वामी मुकुन्दानन्द