Bhagavad Gita: Chapter 10, Verse 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥

तेषाम्-उनको; सतत-युक्तानाम्-सदैव तल्लीन रहने वालों को; भजताम्-भक्ति करने वालों को; प्रीति-पूर्वकम्-प्रेम सहित; ददामि–मैं देता हूँ; बुद्धि-योगम्-दिव्य ज्ञान; तम्-वह; येन-जिससे; माम्–मुझको; उपयान्ति–प्राप्त होते हैं; ते वे।

Translation

BG 10.10: जिनका मन सदैव मेरी प्रेममयी भक्ति में एकीकृत हो जाता है, मैं उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे वह मुझे पा सकते हैं।

Commentary

हमारी बुद्धि की उड़ान भगवान के दिव्य ज्ञान को नहीं पा सकती। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारा मानसिक तंत्र कितना शक्तिशाली है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारी बुद्धि प्राकृत शक्ति से निर्मित है। इसलिए हमारे विचार, ज्ञान और विवेक भौतिक जगत तक ही सीमित है भगवान और उनका दिव्य संसार हमारी लौकिक बुद्धि की परिधि से पूर्णरूप से परे है। वेदों में इसे प्रभावशाली ढंग से घोषित किया गया है

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।

अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।। 

(केनोपनिषद्-2.3)

"वे जो यह सोचते हैं कि वे भगवान को अपनी बुद्धि से समझ सकते हैं उन्हें भगवान का ज्ञान नहीं हो सकता। वे जो यह सोचते हैं कि वह उनकी समझ से परे है, केवल वही वास्तव में भगवान को जान पाते हैं।" बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णन है

स एष नेति नेत्यात्मागृह्योः। 

(बृहदारण्यकोपनिषद-3.9.26) 

"कोई भगवान को अपनी बुद्धि के अनुसार अपने स्वयं के प्रयत्नों द्वारा कभी नहीं समझ सकता।" रामचरितमानस में भी ऐसा वर्णन किया गया है

राम अतय बुद्धि मन बानी। 

मत हमार अस सुनहि सयानी ।।

"भगवान राम हमारी बुद्धि, मन और वाणी की परिधि से परे हैं।" अब भगवान को जानने के विषय के संबंध में ये कथन स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि भगवान को जानना संभव नही है, तब फिर कोई भगवान को कैसे जान सकता है? श्रीकृष्ण यहाँ यह प्रकट करते हैं कि भगवान का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है। वे कहते हैं कि भगवान अपनी कृपा से जीवात्मा को अपना ज्ञान करवाते हैं और भाग्यशाली पुण्य आत्माएँ उनकी कृपा से उन्हें जानने में समर्थ हो सकती हैं। यजुर्वेद में वर्णन है

तस्य नो रासव तस्य नो धेही। 

"भगवान के चरण कमलों से प्रवाहित अमृत जल में स्नान किए बिना कोई भी उन्हें कैसे जान सकता है।" इस प्रकार भगवान का सच्चा ज्ञान बौद्धिक व्यायाम के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होता अपितु यह भगवान की दिव्य कृपा के परिणामस्वरूप मिलता है। श्रीकृष्ण ने यह भी उल्लेख किया है कि उनकी कृपा प्राप्त करने के पात्र मनुष्य का चयन मनचाहे ढंग से नही करते अपितु जो अपने मन को उनकी भक्ति में एकनिष्ठ रखता है श्रीकृष्ण ऐसे भक्त पर कृपा बरसाते हैं। आगे वे उनकी दिव्य कृपा के परिणामस्वरूप होने वाली प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करेंगे।