अध्याय बारह: भक्तियोग

भक्ति का विज्ञान

इस छोटे अध्याय में आध्यात्मिक साधनाओं के अन्य मार्गों की अपेक्षा भक्ति मार्ग की सर्वोत्कृष्टता के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। इसका प्रारम्भ अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से पूछे गए इस प्रश्न से होता है कि वह योग में किन्हें पूर्ण माने, क्या जो भगवान की साकार रूप में भक्ति करते हैं या वे जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं? इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि दोनों मार्ग भगवद्प्राप्ति की ओर ले जाते हैं किन्तु वे उनकी साकार रूप की पूजा करने वाले भक्त का श्रेष्ठ योगी के रूप में सम्मान करते हैं। वे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मायाबद्ध देह धारियों के लिए उनके निराकार अव्यक्त रूप की आराधना करना कष्टदायक और अत्यंत कठिन है जबकि साकार रूप की आराधना करने वाले भक्त अपनी चेतना के साथ भगवान में विलीन हो जाते हैं और उनके प्रत्येक कर्म भगवान को समर्पित होते हैं तथा वे शीघ्रता से जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी बुद्धि उन्हें समर्पित करने और अपने मन को केवल उनकी प्रेममयी भक्ति में स्थिर करने के लिए कहते हैं। 

किन्तु ऐसा प्रेम प्रायः संघर्षमयी आत्मा लभ्य नहीं होता। इसलिए श्रीकृष्ण अन्य विकल्प देते हुए कहते हैं कि यदि अर्जुन तुरन्त अपने मन को पूर्ण रूप से भगवान में एकाग्र करने की अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता तब उसे निरन्तर अभ्यास द्वारा पूर्णता की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। भक्ति कोई रहस्यमयी उपहार नहीं है। इसे निरन्तर प्रयास से पोषित किया जा सकता है। यदि अर्जुन इतना भी नहीं कर सकता तब भी उसे पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए अपितु इसके विपरीत उसे केवल श्रीकृष्ण के सुख के लिए अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। यदि उसके लिए ऐसा करना भी संभव नहीं है तब उसे अपने कर्म फलों का त्याग कर देना चाहिए और अपनी आत्मा में स्थित हो जाना चाहिए। अब श्रीकृष्ण बताते हैं कि लौकिक कर्मों से श्रेष्ठ ज्ञान अर्जन करना है और ज्ञान अर्जन से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से श्रेष्ठ कर्म फलों का त्याग करना है जो तुरन्त परम शांति प्राप्त करने के मार्ग की ओर ले जाता है। इस अध्याय के शेष श्लोकों में उनके प्रिय भक्तों के अद्भुत गुणों का वर्णन किया गया है जो भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं।

अर्जुन ने पूछा। आपके साकार रूप पर दृढ़तापूर्वक निरन्तर समर्पित होने वालों को या आपके अव्यक्त निराकार रूप की आराधना करने वालों में से आप किसे योग में पूर्ण मानते हैं?

आनंदमयी भगवान ने कहा-वे जो अपने मन को मुझमें स्थिर करते हैं और सदैव दृढ़तापूर्वक पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं, मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ।

लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को निग्रह करके सर्वत्र समभाव से मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, निर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापक, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अचल रूप की पूजा करते हैं, वे सभी जीवों के कल्याण में संलग्न रहकर मुझे प्राप्त करते हैं।

जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति का मार्ग अतिदुष्कर और कष्टों से भरा होता है। अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों के लिए अत्यंत दुष्कर होती है।

लेकिन जो अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हैं और मुझे परम लक्ष्य समझकर मेरी आराधना करते हैं और अनन्य भक्ति भाव से मेरा ध्यान करते हैं, मन को मुझमें स्थिर कर अपनी चेतना को मेरे साथ एकीकृत कर देते हैं। हे पार्थ! मैं उन्हें शीघ्र जन्म-मृत्यु के सागर से पार कर उनका उद्धार करता हूँ।

अपने मन को केवल मुझ पर स्थिर करो और अपनी बुद्धि मुझे समर्पित कर दो। इस प्रकार से तुम सदैव मुझ में स्थित रहोगे। इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

हे अर्जुन! यदि तुम दृढ़ता से मुझ पर अपना मन स्थिर करने में असमर्थ हो तो सांसारिक कार्यकलापों से मन को विरक्त कर भक्ति भाव से निरंतर मेरा स्मरण करने का अभ्यास करो।

यदि तुम भक्ति मार्ग के पालन के साथ मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते तब मेरी सेवा के लिए कर्म करने का अभ्यास करो। इस प्रकार तुम पूर्णता की अवस्था को प्राप्त कर लोगे।

यदि तुम भक्तियुक्त होकर मेरी सेवा के लिए कार्य करने में असमर्थ हो तब अपने सभी कर्मों के फलों का त्याग करो और आत्म स्थित हो जाओ।

शारीरिक अभ्यास से श्रेष्ठ ज्ञान है, ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से श्रेष्ठ कर्म फलों का परित्याग है और ऐसे त्याग से शीघ्र मन को शांति प्राप्त होती है।

जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, सबके मित्र हैं, दयालु हैं, ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त और मिथ्या अहंकार से मुक्त रहते हैं, दुख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं। वे सदा तृप्त रहते हैं, मेरी भक्ति में ढूंढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं, वे आत्म संयमित होकर, दूंढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं।

वे जो किसी को उद्विग्न करने का कारण नहीं होते और न ही किसी के द्वारा व्यथित होते हैं। जो सुख-दुख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।

वे जो सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन रहते हैं बाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध, निपुण, चिन्ता रहित, कष्ट रहित और सभी कार्यकलापों में स्वार्थ रहित रहते हैं, मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।

वे जो न तो लौकिक सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं तथा न ही किसी हानि के लिए शोक करते हैं एवं न ही लाभ की लालसा करते हैं, वे शुभ और अशुभ कर्मों का परित्याग करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं।

जो मित्रों और शत्रुओं के लिए एक समान है, मान और अपमान, शीत और ग्रीष्म, सुख तथा दुख, में समभाव रहते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं। जो सभी प्रकार के कुसंग से मुक्त रहते हैं जो अपनी प्रशंसा और निंदा को एक जैसा समझते हैं, जो सदैव मौन-चिन्तन में लीन रहते हैं, जो मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, घर-गृहस्थी में आसक्ति नहीं रखते, जिनकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थिर रहती है और जो मेरे प्रति भक्तिभाव से परिपूर्ण रहते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय है। श्रीकृष्ण भक्तों की दस अन्य विशेषताओं का वर्णन करते हैं-

वे जो यहाँ प्रकट किए गए इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं तथा निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मुझ पर समर्पित होते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं।