ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् ॥3॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥4॥
ये-जो; तु–लेकिन; अक्षरम्-अविनाशी; अनिर्देश्यम्-अनिचित; अव्यक्तम्-अप्रकट; पर्युपासते-आराधना करना; सर्वत्र-गम्-सर्वव्यापी; अचिन्त्यम्-अकल्पनीय; च-और; कूट-स्थम्-अपरिवर्तित; अचलम्-अचल; ध्रुवम्-शाश्वत; सकियम्य-वश में करके; इन्द्रियग्रामम्-समस्त इन्द्रियों को; सर्वत्र सभी स्थानों में; सम-बुद्धयः-समदर्शी; ते–वे; प्राप्नुवन्ति-प्राप्त करते हैं; माम्-मुझको; एव–निश्चय ही; सर्व-भूत-हिते-समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रताः-तल्लीन।
Translation
BG 12.3-4: लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को निग्रह करके सर्वत्र समभाव से मेरे परम सत्य, निराकार, अविनाशी, निर्वचनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापक, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अचल रूप की पूजा करते हैं, वे सभी जीवों के कल्याण में संलग्न रहकर मुझे प्राप्त करते हैं।
Commentary
ऐसा कहने के पश्चात कि उनके साकार रूप की पूजा करना उत्तम है अब श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि वे उनके निराकार रूप की आराधना को अस्वीकृत नहीं करते। वे जो उनके सर्वव्यापक, अनिर्वचनीय, अव्यक्त, अचिंतनीय, अचल, शाश्वत ब्रह्म के स्वरूप पर समर्पित होते हैं वे भी भगवान को पाते हैं। पृथ्वी पर अनंत प्रकृति वाले जीव हैं। जीवों की विविध प्रकृति की रचना करने वाले भगवान का व्यक्तित्त्व भी अनंत रूपों का स्वामी है। अपनी सीमित बुद्धि के कारण हम भगवान की अनंत अभिव्यक्तियों को श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं। तदानुसार वेदव्यास ने भगवान की अनेक अभिव्यक्तियों को ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है जिसका उल्लेख पिछले श्लोक में भी किया गया है। कोई भी व्यक्ति इन रूपों में से किसी एक रूप की पूजा कर सकता है किन्तु किसी को यह दावा नहीं करना चाहिए कि भगवान के किसी एक रूप की अवधारणा ही दोषरहित है और अन्य दोनों में से कोई एक त्रुटिपूर्ण है। श्लोक 4.11 में श्रीकृष्ण ने कहा था कि जिसप्रकार से लोग मेरे प्रति समर्पित होते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार प्रतिफल प्रदान करता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग किसी न किसी प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण पुष्टि करते हैं कि उनके निराकार रूप की उपासना करने वाले उपासक भी उन्हें पाते हैं क्योंकि उनकी इच्छा परम सत्य भगवान की निर्गुण और निर्विशेष अभिव्यक्ति के साथ एकीकृत होने की होती है। इसलिए भगवान उन्हें अव्यक्त सर्वव्यापक ब्रह्म के रूप में मिलते हैं।