Bhagavad Gita: Chapter 15, Verse 11

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥11॥

यतन्तः-प्रयासरत करता; योगिन:-योगी; च-भी; एनम् इसे; पश्यनित-देखता है; आत्मनि–शरीर में; अवस्थितम् प्रतिष्ठित; यतन्तः-प्रयत्न करते हुए; अपि यद्यपि; अकृत-आत्मानः-जिनका मन शुद्ध नहीं है; न नहीं; एनम्-इसे; पश्यन्ति-देखते हैं; अचेतसः-अनभिज्ञ रहते हैं।

Translation

BG 15.11: भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते।

Commentary

ज्ञान अर्जन का प्रयास करना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि यह भी आवश्यक है कि हमारे प्रयास उचित दिशा की ओर निर्देशित भी होने चाहिए। मनुष्य यह भूल करते हैं कि वे दैवीय अस्तित्वों को उन्हीं साधनों से जान सकते हैं जिनके द्वारा उन्होंने संसार को जाना है। अपनी इन्द्रियों के अनुभव और अपनी बुद्धि की पहुँच के आधार पर वे सभी प्रकार के ज्ञान को उचित और अनुचित घोषित करने का निर्णय करते हैं। वे यह मान लेते हैं कि यदि उनकी इन्द्रियाँ किसी पदार्थ को अनुभव नहीं कर सकती और उनकी बुद्धि उसे समझ नहीं सकती तब फिर वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उस पदार्थ या सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। इस सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए, एलेक्सिस कार्रल ने अपनी पुस्तक, 'मैन द अन नोन' में लिखा है-"हमारे मन में ऐसी वस्तुओं को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति होती है जो हमारे समय की वैज्ञानिक या दार्शनिक मान्यताओं के ढाँचे के अनुरूप नहीं होती। आखिरकार सभी वैज्ञानिक मानव मात्र हैं। वे अपने परिवेश और युग के पूर्वाग्रहों से संतृप्त होते हैं। वे स्वेच्छा से यह विश्वास करते हैं कि जिन तथ्यों को वर्तमान सिद्धांतों द्वारा समझाया नहीं जा सकता उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। आधुनिक युग के वैज्ञानिक अभी तक दूर संवेदन और अन्य आध्यात्मिक सिद्धान्तों को भ्रम के रूप में देखते हैं। अप्रामाणिक प्रतीत होने वाले सुस्पष्ट तथ्य दबा दिए जाते हैं।" 

न्याय दर्शन में इस प्रकार के विचार को कूप-मंडूक-न्याय (तालाब के मेढ़क का तर्क) कहते हैं। कुएँ में रहने वाला एक मेढ़क अपने रहने के स्थान के आयाम से भली-भांति परिचित था। एक दिन राणा केन्क्रिवोर (समुद्र में रहने वाली मेढ़क प्रजाति) उस कुएँ में कूद कर आ गया। फिर दोनों मेढ़क आपस में वार्तालाप करने लगे। कुएँ के मेढ़क ने समुद्र में रहने वाले मेढ़क से पूछा-"वह समुद्र कितना बड़ा है जहाँ से तुम आये हो"? राणा केन्क्रिवोर ने उत्तर दिया "वह बहुत विशाल है।" "क्या इस कुएँ से पाँच गुणा अधिक आकार का है?" "नहीं इससे भी अधिक" "क्या इससे दस गुणा विशाल?" "नहीं यह तो कुछ नहीं है"? "क्या सौ गुणा अधिक"? "नहीं, इससे भी कहीं अधिक विशाल।" कुएँ के मेढ़क ने कहा, "तुम झूठ बोल रहे हो, कोई वस्तु मेरे कुएँ से सौ गुणा अधिक विशाल कैसे हो सकती है?" कुएँ में रहने वाले मेंढक की बुद्धि जीवन भर कुएँ में रहने के अनुभव से संकुचित हो चुकी थी इसलिए वह विशाल महासागर की कल्पना नहीं कर सका। समान रूप से सीमित बुद्धि के अनुभव से सांसारिक लोग अलौकिक आत्मा के अस्तित्व की संभावना को स्वीकार नहीं करते। लेकिन जो आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे यह अनुभव करते हैं कि उनकी भौतिक बुद्धि की परिधि से परे भी कोई ज्ञान हो सकता है। वे विनम्रता और विश्वास के साथ आध्यात्मिक मार्ग पर चलना आरंभ करते हैं और अपना उद्देश्य समझने लगते हैं। जब उनका मन शुद्ध हो जाता है तब स्वभाविक रूप से उन्हें आत्मा की उपस्थिति का बोध होने लगता है फिर अनुभव द्वारा उन्हें धार्मिक ग्रंथों के सत्य की अनुभूति होती है। 

जिस प्रकार से इन्द्रियाँ आरंभ में आत्मा का बोध नहीं कर पाती उसी प्रकार से भगवान भी उनकी परिधि में नहीं होते इसलिए आत्मा और भगवान को ज्ञान चक्षुओं से जाना जा सकता है। अगले श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान के अस्तित्व का बोध कराने की विधि से संबंधित व्याख्या करेंगे।