Bhagavad Gita: Chapter 16, Verse 16

अनेकाचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥16॥

अनेक-कई; चित्त-कल्पनाएँ; विभ्रान्ताः-भ्रमित; मोह-मोह में; जाल–जाल; समावृताः-आच्छादित; प्रसक्ताः-आसक्त; काम-भोगेषु इन्द्रिय सुखों की तृप्तिः पतन्ति–गिर जाते हैं; नरके-नरक में; अशुचौ-अंधा नर्क;

Translation

BG 16.16: ऐसी कल्पनाओं द्वारा पथभ्रष्ट होकर और मोह के जाल से आच्छादित तथा इन्द्रिय भोग की तृप्ति के आदी होकर वे अंधे नरक में गिरते हैं।

Commentary

अहंकार के प्रभाव से लोगों की पहचान अपने मन के साथ होती है और वे अपने व्यर्थ और दोहराये हुए विचारों के साँचे में सीमित हो जाते हैं। वे व्यावहारिक रूप से अपने उस मन के अधीन हो जाते हैं जो टूटे हुए ध्वनि संग्रहणों के समान बजता रहता है और वे इस भ्रम में रहते हैं कि उनके विचार उनके लिए बने हैं। दूषित मन के एक पसंदीदा विचार का स्वरूप शिकायत करना है। वह रिरियाना और कुढ़ना भी पसंद करता है न केवल लोगों के संबंध में बल्कि परिस्थितियों के संबंध में भी। उसके साथ ये उलझनें होती हैं-'यह नहीं होना चाहिए था', 'मैं यहाँ नहीं रहना चाहता', 'मेरे साथ अनुचित व्यवहार हो रहा है' इत्यादि। सभी शिकायतें एक छोटी कहानी हैं जिन्हें मन सृजित करता है और मनुष्य इनमें पूर्णतः विश्वास करता है। मस्तिष्क केवल दुखद, चिंतित या दूसरों के जीवन की व्यथित कहानियाँ सुनाता है। इस प्रकार से निकृष्ट व्यक्ति अहम् के प्रभाव के कारण अपने आन्तरिक वचनों को स्वीकार कर लेता है। जब शिकायत ज्यादा गंभीर हो जाती है तब यह असंतोष और घृणा में परिवर्तित हो जाती है। असंतोष का तात्पर्य कटुता, क्रोध, द्वेष, उत्तेजना या अप्रसन्नता से है। जब असंतोष अधिक समय तक उपस्थित रहता है तब इसको शिकायत में परिवर्तित हो जाता है। शिकायत अतीत की घटनाओं से जुड़ी एक सशक्त नकारात्मक भावना है जो मन-मस्तिष्क में अतीत से जुड़ी घटनाओं को बार-बार दोहराते हुए बाध्यकारी विचारों द्वारा जीवित रहती है-'किसी ने मेरे साथ क्या किया" इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि असुर व्यक्ति जो अहम द्वारा जनित भ्रम के जाल में रहना पसंद करते हैं वे निम्न गुणवत्ता वाले बहुसंख्यक विचारों से विचलित हो जाते हैं। परिणामस्वरूप ऐसे मनुष्य अपने भाग्य को धुंधला और निस्तेज बनाते हैं। मनुष्य अपनी पसंद के अनुसार कर्मों का चयन करने के लिए स्वतंत्र है किंतु वे अपने कर्मों का फल निश्चित करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। भगवान जीवात्मा को उसके कर्म के नियमों के अंतर्गत फल प्रदान करते हैं।