Bhagavad Gita: Chapter 15, Verse 15

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥15॥

सर्वस्य–सभी प्रणियों के; च और; अहम्–मैं; हृदि हृदय में; सन्निविष्ट:-स्थित; मत्तः-मुझसे; स्मृति:-स्मरणशक्ति; ज्ञानम्-ज्ञान; अपोहनम् विस्मृति; च-और; सर्वेः-समस्त; अहम्-मैं हूँ; एव-निश्चय ही; वेद्यः-वेदों द्वारा जानने योग्य, ज्ञेय; वेदान्त-कृत-वेदान्त के रचयिता; वेदवित्-वेदों का अर्थ जानने वाले; एव–निश्चय ही; च-और; अहम्-मैं।

Translation

BG 15.15: मैं समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आती है। केवल मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।

Commentary

 भगवान ने हमारे भीतर ज्ञान और स्मृति से युक्त अद्भुत तंत्र सृजित किया है। हमारा मस्तिष्क धातु सामग्री (हार्डवेयर) और मन प्रक्रिया सामग्री (सॉफ्टवेयर) के समान है। हम प्रायः इस तंत्र को उपेक्षित भाव से लेते हैं। सर्जन मस्तिष्क का प्रत्यारोपण कर अपनी उपलब्धि पर गर्व करते हैं किंतु वे यह चिंतन नहीं करते कि मस्तिष्क रूपी इस अद्भुत तंत्र की उत्पत्ति कैसे हुई? आधुनिक युग के सभी क्षेत्रों में अभी भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ प्रौद्योगिकी में सभी प्रकार की प्रगति के बावजूद भी कम्प्यूटर की मानव मस्तिष्क के कार्यकलापों के साथ तुलना नहीं की जा सकती। उदाहरणार्थ सॉफ्टवेयर इंजीनियर अभी तक चेहरा पहचानने की तकनीक की खोज में जुटे हुए हैं किन्तु मानव मस्तिष्क लोगों को उनके चेहरों पर आए परिवर्तन के बावजूद भी सरलता से उनकी पहचान कर लेते हैं। हम प्रायः लोगों को यह कहते हुए पाते हैं, “ओ प्रिय मित्र, अति दीर्घकाल के पश्चात तुमसे मिलकर प्रसन्नता हुई जब हम पिछली बार मिले थे उस समय और अब वर्तमान में तुम्हारे में बहुत परिवर्तन दिखाई दे रहा है।" यह दर्शाता है कि मानव मस्तिष्क परिवर्तित हुए चेहरों की कई वर्षों बाद भी पहचान कर लेता है जबकि कम्प्यूटर अपरिवर्तित चेहरों की भी ठीक प्रकार से पहचान नहीं कर सकता। वर्तमान में इंजिनियर अभी भी स्कैनर सॉफ्टवेयर पर काम कर रहे हैं जो टाईप की गई सामग्री को बिना त्रुटि के समझ सकें जबकि इसके विपरीत मनुष्य दूसरों की सांकेतिक हस्तलिपि भी सरलता से समझ सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्मृति और ज्ञान के अद्भुत गुण उन्हीं से प्राप्त होते हैं। 

इसके अतिरिक्त वे मनुष्य को विस्मृति की शक्ति भी प्रदान करते हैं। चूंकि आवांछित लेख नष्ट कर दिए जाते हैं, लोग व्यर्थ की स्मृति को धारण करने से बचते हैं क्योंकि ऐसा न करने से मस्तिष्क सूचनाओं की भरमार से अवरूद्ध हो जाएगा। उद्धव श्रीकृष्ण से कहते हैं

त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः

(श्रीमदभागवतम्-11.22.28)

"केवल तुमसे जीवों में ज्ञान उदय होता है और आपकी ही शक्ति से ज्ञान विलुप्त हो जाता है।" इसके अतिरिक्त आंतरिक ज्ञान जिससे हम सम्पन्न हैं उस ज्ञान का बाह्य स्रोत शास्त्र हैं और श्रीकृष्ण ने इन संदर्भ ग्रंथों में भी उसी प्रकार से अपनी महिमा प्रकट की है। उन्होंने ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों को प्रकट किया। चूंकि भगवान दिव्य और बुद्धि की परिधि से परे हैं इसलिए वेद भी दिव्य हैं। इसलिए केवल वे इनका वास्तविक अर्थ जानते हैं और यदि वे किसी पर कृपा करते हैं तब वह भाग्यशाली आत्मा वेदों को जान लेती है। वेदव्यास जो भगवान के अवतार थे, ने वेदान्त दर्शन लिखा। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे वेदान्त के रचयिता हैं। अंततः वह कहते हैं कि यद्यपि वेदों में बहुसंख्यक भौतिक और आध्यात्मिक उपदेश सम्मिलित हैं और वैदिक ज्ञान का उद्देश्य भी भगवान को जानना है। कर्म फलों से संबंधित धार्मिक अनुष्ठानों का उल्लेख भी उनमें इसी प्रयोजनार्थ किया गया है। वे भौतिक संसार की ओर गहनता से आसक्त लोगों को लुभाते हैं और उन्हें भगवान की ओर निर्देशित करने से पूर्व मध्यवर्ती उपायों की व्यवस्था करते हैं। कठोपनिषद् (1.2.15) में वर्णित है-" सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति" अर्थात "सभी वैदिक मंत्र भगवान की ओर संकेत करते हैं।" हम सभी वैदिक मंत्रों का स्मरण करना, उन्हें कंठस्थ करना तथा उनका उपर्युक्त छंदों में उच्चारण सीख सकते हैं। सभी धार्मिक रीतियों और अनुष्ठानों को सम्पन्न करने में हम दक्ष और ध्यान में लीन होना सीख सकते हैं और यहाँ तक कि हम अपनी कुण्डलिनी शक्ति को भी जागृत कर सकते हैं। यदि फिर भी हम भगवान को नहीं जान पाते तब हम वेदों के वास्तविक अभिप्राय को नहीं समझ सकते। जबकि दूसरी ओर वे जो भगवान के प्रति प्रेम विकसित करते हैं स्वतः सभी वेदों के अभिप्राय को समझ जाते हैं। इस संबंध में जगद्गुरु श्री कृपालुजी जी महाराज ने वर्णन किया है-

सर्व शास्त्र सार यह गोविंद राधे।

आठों याम मन हरि गुरु में लगा दे।। 

(राधा गोविन्द गीत) 

"सभी शास्त्रों का सार मन को दिन-रात भगवान की प्रेममयी भक्ति में तल्लीन करना है।" इस अध्याय के पहले श्लोक से 15वें श्लोक तक श्रीकृष्ण ने सृष्टि के वृक्ष की व्याख्या की है। अब इस विषय का समापन करते हुए वे अगले दो श्लोकों में इस ज्ञान को उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम शब्दों की व्याख्या करेंगे।